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अतुल्य दंतेवाड़ा : जहां हर काम में करप्शन बोल रहा है… ‘DMF’ की आड़ में खेल ऐसा कि सबसे बड़ा खिलाड़ी कौन? पता लगाना कठिन…

इम्पेक्ट न्यूज। रायपुर।

आज जरा याद कीजिए कॉमनवेल्थ घोटाला! बस ऐसा ही कुछ यदि आप देखना चाहते हैं तो आइए दंतेवाड़ा में आपका स्वागत है। इम्पेक्ट ने दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी कारिडोर के निर्माण से जुड़े कई मामलों में लगातार खबरें प्रकाशित की हैं। आज सिलसिलेवार ब्योरा से साफ समझा जा सकता है। डीएमएफ यानी डिस्ट्रिक्ट मनी फ्राड की आड़ में जिले में ऐसा खेल चला कि अब पता लगाना कठिन कि सबसे बड़ा खिलाड़ी कौन?

दंतेवाड़ा जिले में माता दंतेश्वरी की धरा में एक बड़े निर्माण की कार्ययोजना कलेक्टर दीपक सोनी के कार्यकाल में बनाई गई। इसी बीच उनका जिले से तबादला हो गया। इसके बाद सुकमा में अथाह गड़बड़ियों के बाद उपजे जनविद्रोह के प्रत्यक्षदर्शी कलेक्टर विनीत नंदनवार को दंतेवाड़ा में पदस्थ कर दिया गया। इस पदस्थापना से पहले किसी को इस बात का पूर्वानुमान तक नहीं था कि जिले में एक बड़ा बदलाव राज्य सरकार करने जा रही है।

सुकमा में जिला प्रशासन की छवि बुरी तरह खराब हो गई थी। सो खो—खो जैसा खेल सीएम भूपेश बघेल की सचिव रहते सौम्या चौरसिया ने खेल दिया। इसका नतीजा रहा कि सुकमा से खदेड़े जा रहे जिला अधिकारी को दंतेवाड़ा जैसा मलाईदार जिला सौंप दिया गया। बात तो बहुत उड़ी कि इस खेल के लिए बड़ी कीमत अदा की गई। कीमत क्या थी? जितनी जुबान उतनी बात!

बताते हैं कि विनीत नंदनवार की पदस्थापना के खेल में फिलहाल जेलनसीब सूर्यकांत तिवारी की भी भूमिका रही। यानी अग्नि चंद्राकर से लेकर सूर्यकांत तिवारी और उसके बाद सौम्या के चैनल से नंदनवार को दंतेवाड़ा नसीब हुआ। यह तो तय है कि सौदा मुफ्त को तो रहा ही नहीं होगा? यह वही समय है जब सौम्या चौरसिया की सहमति के बगैर सीएमओ में पत्ता भी नहीं हिलता था।

इस पदस्थापना के बाद जब कोंटा विधायक और आबकारी मंत्री कवासी लखमा से हमने यह सवाल किया कि आपने तो अपना अफसर कर्मा के इलाके में बिठा दिया है। तो लखमा ने साफ कहा कि सुकमा में पोस्टिंग के लिए मैने नंदनवार की सिफारिश की थी। क्योंकि उससे एक कार्यक्रम में मुलाकात हुई थी तो उसने बताया था कि वह जगदलपुर से है। मुझे लगा कि अपने बीच का लड़का है अच्छा काम करेगा! बाद में मुझे खुद लगा कि मेरे से एक गलती हो गई कि मैने उसे अपने यहां पोस्टिंग करवाया। मैने पूछा फिर कैसे दंतेवाड़ा जिले में पहुंच गया? मेरे को नहीं मालूम! उसका उपर से ही सेटिंग हो गया होगा!

बताते हैं कि दरअसल जैसे ही नंदनवार को यह भनक लगी कि सुकमा जिला से रवानगी होनी है तो उसने किसी पटेल के माध्यम से चंद्राकर तक अपनी बात पहुंचवाई। फिर सूर्यकांत से होकर सौम्या तक मामला पहुंचा। फिर तो वही होना था जो हुआ। विनीत नंदनवार दंतेवाड़ा जिला कलेक्टर पदस्थ हो गए।

जिले में उनकी पदस्थापना के बाद सितंबर 2022 में इम्पेक्ट ने उनका साक्षात्कार लिया। जिसमें उन्होंने कई मुद्दों को लेकर अपनी बात रखी। हमने उनकी बात को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया। योजनाओं से लेकर उसके क्रियान्वयन तक का पूरा खाखा उन्होंने रखा। इसमें अतुल्य दंतेवाड़ा नाम की परियोजना शामिल नहीं थी। दरअसल तब तक उन्हें इस परियोजना के बारे में जानकारी ही नहीं थी। क्योंकि इस तरह की एक व्यापक परियोजना पूर्व कलेक्टर दीपक सोनी ने तैयार करवाई थी। जिसके तहत पूरे दंतेवाड़ा का कायाकल्प किया जाना शामिल था। इसके लिए प्रक्रिया तय करने से पहले ही दीपक सोनी का तबादला हो गया… सो यह परियोजना कागज में दबी रह गई।

पदस्थापना के कुछ समय बाद कलेक्टर श्री नंदनवार को इस परियोजना की ब्यूप्रिंट मिली तो उनके सामने बहुत कुछ संभावनाएं दिखाई देने लगी। आत्ममुग्ध, अहंकारी और मतलबपरस्त प्रशासन के लिए यह पवित्र परियोजना पोषक तत्वों से भरपूर आहार के समान परिलक्षित हुई। डीएमएफ से मिलने वाले अरबों रुपयों से पूरे दंतेवाड़ा का ईमानदारी के साथ कायाकल्प हो सकता था। इसमें पोषण के लिए सेंधमारी का लक्ष्य निर्धारित करने में समय निकलने लगा।

प्रशासन ने कई मोर्चों पर एक साथ काम शुरू किया। पहला मोर्चा था स्थानीय विधायक के खिलाफ प्रदेश के मुखिया के सामने नकारात्मक छवि प्रस्तुत करना। दूसरा मोर्चा था सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के नेताओं में विभाजन के लिए कूटनीतिक तरीके से व्यवहार करना। तीसरा मोर्चा था मीडिया में मुखबिर तैयार कर अपने पक्ष—विपक्ष वालों को निशाने पर लेना। चौथा मोर्चा था पहले से तैयार अपनी टीम को काम पर लगाकर लूट में हिस्सेदारी तय करना।

जिले में कांग्रेस के नेताओं की शिनाख्ती की गई। सीएम के करीबी और विधायक से नाराज नेताओं को एक समूह में रखा गया। दूसरे समूह में कांग्रेस के मौकापरस्त नेताओं को बिठाने का दौर चालू किया गया। उन्हें साधकर प्रशासन के पक्ष में पार्टी के विद्रोह को रोकना प्रमुख लक्ष्य रहा। यही नहीं कर्मा परिवार के छविंद्र और तुलिका के लिए रणनीतिक तौर पर साधने—बिधने का काम किया गया।

जिला प्रशासन में दंतेवाड़ा के मिजाज और लोगों से पूर्व परिचित अधिकारी को केंद्रीय भूमिका में रखकर काम शुरू किया गया। इससे पूरे जिले में नेता, मीडिया, समाज, प्रशासन के बीच जबरदस्त अंतरविरोध प्रारंभ हो गया। मीडिया की स्थिति ऐसी हो गई कि सभी केवल वाट्सएप कॉल पर बात करने लगे। चौक, पानठेलों में होने वाली बात सीधे कलेक्टर तक पहुंचने से विश्वास का संकट जैसा हाल उत्पन्न हो गया।

ग्राम पंचायत से लेकर जनपद तक और जनपद से लेकर जिला प्रशासन तक चैनल बनाकर काम किया गया। पाठकों को यह बात समझ में शायद ही आए कि इसका मतलब क्या है? मजेदार बात यही है कि राज्य सरकार ने ग्राम पंचायतों के लिए काम की सीमा 50 लाख रुपए तक बढ़ा दी। तो डीएमएफ की आड़ में जिला प्रशासन को एक नई राह मिल गई। जिला निर्माण समिति ने चिन्हित पंचायतों के नाम से काम स्वीकृत किया। काम करने के लिए ठेकेदारों को जिम्मा सौंपा गया। काम के लिए जनपद से ग्राम पंचायत को एजेंसी बनाकर पंचायत के हिस्से का कमिशन सेट करने का जिम्मा सीईओ को सौंप दिया गया। अब सीधे ठेकेदार मैदान पर थे।

काम की गुणवत्ता और देखरेख का माईबाप कोई नहीं। यही वजह थी कि करोड़ों के काम को बिना टेंडर सौंपना शुरू कर दिया गया। किसी ने सवाल किया तो साफ बता दिया कि ग्रामीण यांत्रिकी सेवा निर्माण एजेंसी है और पंचायत के माध्यम से काम हो रहा है। जिला निर्माण समिति ने काम स्वीकृत किया है तो जिला कलेक्टर की छवि पर सीधे कोई प्रभाव पड़ना ही नहीं था। हर वर्ग को साधने के लिए काम स्वीकृति के लिए नियम कायदे तैयार किए गए। सूचना के अधिकार के तहत जानकारी दबाई जाने लगी। या तो जानकारी बाहर ना निकले इसके लिए निचले स्तर से पाबंदी लगा दी गई।

इम्पेक्ट ने कुछ कार्यों के लिए निर्धारित टेंडर की प्रक्रिया की अनदेखी पर खबर प्रकाशित की तो उन कार्यों को निरस्त कर सीधे पंचायतों को सौंप दिया गया। किसी ने सवाल उठाया तो बता दिया गया कि शिकायत के बाद कार्रवाई करते हुए पंचायतों को काम सौंप दिया गया। बात तो अभी यह सामने आई ही नहीं है कि किस काम के लिए किस तरह से प्रक्रिया दोष की विधि स्थापित की गई है।

दंतेवाड़ा जिले में होने किए जा रहे सभी निर्माण कार्यों की यदि बारिकी से जांच की जाए तो यह साफ हो सकता है कि अरबों रुपए के आबंटन के बाद किस तरह से बंदरबाट का खेल जिला स्तर पर खेला गया है।

फिलहाल डंकिनी रिवर फ्रंट में चल रहे निर्माण की गुणवत्ता को यदि देखा जाए तो यह स्पष्ट हो सकता है कि बिना कंपेक्शन के मिट्टी के उपर कांक्रीट कर ढांकने की कोशिश चल रही है। तकनीकी जानकारों का दावा है कि इस स्थिति में यह निर्माण कभी भी धसक सकता है। इतना ही नहीं मुख्य द्वार से लेकर मंदिर के सामने तक पुराने शेड को हटाकर टेंसिंग सीट लगाई जा रही है।

मजेदार बात तो यह है कि टेंसिंग सीट ही लगाना था तो पांच मंजिला बिल्डिंग के उपयोग के लायक नींव का निर्माण क्यों किया गयाा? इसके जवाब में तकनीकी जानकार आरोप लगा रहे हैं कि जमीन के भीतर काम करने का मापन और दर ज्यादा है। इससे इस काम के लिए ज्यादा से ज्यादा राशि बुक करने की कोशिश की गई है।

एक महिला को लेकर जिले में कई तरह की बातें प्रचलित हैं। बताया जा रहा है कि उक्त महिला के माध्यम से ठेकेदारों के भुगतान को करवाने की व्यवस्था करवाई गई है। कुछ ठेकेदारों ने इस बात को प्रमाणित भी किया है। राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के साथ संपर्क को सामान्य करने के लिए ऐसे सभी ठेकेदारों के भुगतान तत्काल प्रभाव से किए गए जिनके भुगतान को पूर्व सरकार के दौर में जानबूझकर लटका कर रखा गया था।

हमने अतुल्य दंतेवाड़ा परियोजना की हर खबर प्रयास से लेकर पैसे के दुरूपयोग तक की लगातार उठाने की कोशिश की है। नीचे सभी लिंक दिए जा रहे हैं।

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आज दैनिक भास्कर ने यह खबर प्रकाशित की है जिसे आप पढ़ सकते हैं।

महाकाल कॉरिडोर की तर्ज पर दंतेवाड़ा में मां दंतेश्वरी कॉरिडोर बनाया जा रहा है,लेकिन इसके निर्माण में बड़ा खेल सामने आया है। डीएमएफ से दंतेवाड़ा रिवर फ्रंट के लिए 70 करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट तैयार किया गया। दंतेवाड़ा कलेक्टर विनीत नंदनवार ने इसका प्रेजेंटेशन मंत्रालय में दिया। कलेक्टर की अध्यक्षता में 45 करोड़ रुपए की स्वीकृति प्रदान हुई। नियमानुसार यह काम पीडब्ल्यूडी जैसी एजेंसी ही करती है, लेकिन कलेक्टर नंदनवार के कहने पर जिला निर्माण समिति ने इसे ग्रामीण यांत्रिकी सेवा (आरईएस) को काम करने का जिम्मा सौंप दिया।

आरईएस के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर को 50 लाख रुपए के टेंडर करने की पावर होती है। इसका दुरुपयोग करते हुए रिवर फ्रंट का एक बार में टेंडर न निकालकर 20 करोड़ के लिए 50 लाख से कम के 46 मैनुअल टेंडर निकाले गए। ये सभी दो ठेकेदार टी राणा और केतन पटेल को दे दिए गए। यही नहीं इन कामों के लिए पीडब्ल्यूडी, जल संसाधन या पुरातत्व को सूचना नहीं दी गई। शिकायत केंद् और राज्य की जांच एजेंसियाें के अलावा ईडी में की गई है, जिसमें दंतेवाड़ा कलेक्टर को ही मुख्य आरोपी बनाया गया है। अब नई सरकार बनने के बाद यह मामला मंत्रालय पहुंचा है।

सूत्रों की मानें तो जल्द ही इस मामले में जांच शुरू होने वाली है। यह पहली नहीं कई और शिकायतें भी आ चुकी हैं सामने दंतेवाड़ा में डीएमएफ फंड को लेकर कई घपले की शिकायतें मंत्रालय में पहले भी पहुंच चुकी है। बारसूर में बूढ़ा तालाब को संवारने के नाम पर डी-ग्रेड के ठेकेदार को 7 करोड़ का ठेका देने का काम भी 9 हिस्सों में बांटा गया था। इसे भी आरईएस को दिया गया था। गीदम और दंतेवाड़ा में रीपा में भी कई गड़बड़ियां सामने आ चुकी हैं।

11 करोड़ 75 लाख रुपए और 7 करोड़ 79 लाख रुपए के दो काम की प्रशासकीय स्वीकृति दी गई। इस काम को इस तरह तोड़ा गया। पर्यावरण संरक्षण के अंतर्गत शंकनी-डंकनी नदी द्वारा मिट्टी कटाव और पर्यावरण हृास को रोकने हेतु आवश्यक कार्य भाग-एक के लिए तकनीकी स्वीकृति 43.40 लाख रुपए। इसी तरह भाग-2 के लिए 47.20 लाख रुपए, भाग-3 के लिए 46.63 लाख रुपए, भाग-चार के 46.53 लाख रुपए। ऐसे ही 46 भागों में काम को बांटा गया।

गड़बड़झाले को ऐसे समझें

डंकिनी नदी के हिस्से में 150 मीटर की रिटेनिंग वाल 20 करोड़ रुपए से बनाई जा रही है। इस काम के 46 टुकड़ों में बांटकर मैनुअल टेंडर किए गए हैं। इसके पीछे ईई का खेल यह था कि 50 लाख से अधिक की राशि होने पर फाइल को उच्च अधिकारियों के पास भेजना पड़ता है। 50 लाख से कम की तकनीकी स्वीकृति उन्होंने स्वयं दे दी। शिकायत में यह भी बताया गया है कि कई काम टेंडर होने से पहले शुरू हो गए थे। 30 प्रतिशत कार्य का 90 प्रतिशत तक भुगतान करने का भी आरोप है।

लोहे से लेकर पत्थर तक में घपला

रिवर फ्रंट में 150 मीटर लंबी, 4 मीटर चौड़ी दीवार बनाई जा रही है। इसकी मोटाई 40-45 सेमी है। दीवार में 4 करोड़ का लोहा लगा है। आरईएस का दावा है कि 20-32 एमएम के राड लगे हैं। शिकायत में कहा गया है कि ऐसी दीवार में इतने लोहे का उपयोग किया नहीं जाता है। मंदिर के आसपास 11 हजार वर्ग मीटर में 10 करोड़ रुपए के पत्थर लगाए गए हैं। पीडब्ल्यूडी के एसओआर के मुताबिक यह ढाई करोड़ में हो सकता है।

ऐसे टूटे नियम…

50 लाख रुपए तक की तकनीकी स्वीकृति मुख्य अभियंता स्तर से लेनी चाहिए, लेकिन ईई ने फाइल आगे भेजी ही नहीं।
50 लाख से कम के काम बस्तर संभाग में आॅफलाइन हो सकते हैं। इसलिए राशि कम की गई, जिससे ऑनलाइन टेंडर न करना पड़े।
टेंडर के लिए 30 दिन का समय देना चाहिए, लेकिन यहां सिर्फ 15 दिन ही दिये गए।
टेंडर को दो राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय स्तर के अखबार में प्रकाशित करवाना था, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ।

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