Articles By Namesafarnama

मिलना एक महान रचनाकार से…

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  • दिवाकर मुक्तिबोध

एक मार्च को शैलेन्द्र नगर में विनोद जी के घर में उनसे मुलाकात हुई। उनका चेहरा देखा तो अनायास मुझे 60-62 वर्ष पूर्व के वे विनोद जी याद आ गए जिन्हें मैं राजनांदगांव के दिग्विजय कॉलेज परिसर के अपने मकान की विशाल खिड़की के पाटे पर बैठकर अपने घर की ओर पैदल आते देखा करता था। उन दिनों वे जबलपुर के कृषि महाविद्यालय के छात्र थे और जैसा कि उन्होंने अनेक बार अपने संस्मरणों में जिक्र किया है, वे नये-नये युवा कवि थे, कविताएं लिख रहे थे। छुट्टियों में जब कभी राजनांदगांव आते, अपनी कविताओं पर पिताजी की राय लेने उनके पास आया करते थे। उस समय भी विनोद जी धीर गंभीर व सहज सरल थे। हम भाई बहन छोटे थे, प्रायमरी मिडिल के विद्यार्थी इसलिए उनके बारे में केवल इतना जानते थे कि वे पिताजी से मिलने आते हैं। किसलिए पता नहीं। पिताजी के पास वे बैठते ही थे, कभी-कभी मां से भी उनकी बातें होती थीं।

वो विनोद जी 86 बरस पार कर अब 87 की ओर बढ़ रहे हैं। शरीर कृषकाय हो गया है पर चेहरे पर अपूर्व तेज है। उन्हें देखकर खुद ब खुद श्रद्धा मन में उमड़ती है, आत्मिक सुख मिलता है। रायपुर में हम जहां रहते हैं वहां से उनके घर की दूरी लगभग आठ-नौ किलोमीटर है इसलिए अब उनसे घर जाकर मिलना काफी कम हो गया है। फोन पर भी बातें कम होती हैं। हाल ही में जब मैंने यह खबर सुनी कि उन्हें साहित्य के लिए अमेरिका का पेन नाबोकोव अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है तो बेहद खुशी हुई लिहाजा अगले ही दिन सुबह उनके यहां पहुंच गया। विनोद जी से साहित्यिक बातें नहीं होती। दरअसल बीते वर्षों में छत्तीसगढ़ के अखबारों में, पत्र-पत्रिकाओं में उनके बारे में, उनके जीवन वृत्त पर, उनके दैनिक क्रियाकलापों पर, उनकी रचनात्मकता पर, उनकी साहित्यिक वृत्तियों पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि मुझे नहीं लगता कि उनसे पूछने के लिए कम से कम मेरे पास फिलहाल नया कुछ शेष है। वैसे इसकी जरूरत भी नहीं क्योंकि उनसे पारिवारिक रिश्ते हैं नांदगांव के समय से। सितंबर 1964 में पिताजी के निधन के बाद हम 1967 में रायपुर में शिफ्ट हो गए थे और जब विनोद जी कृषि महाविद्यालय रायपुर में स्थानांतरित हुए , वे और उनकी पत्नी सुधा जी जब समय मिलता मां से, तब देवेंद्र नगर में हम लोगों से मिलने घर आया करते थे। वर्ष 2010 में मां नहीं रहीं पर घर के बड़े की हैसियत से विनोद जी हम लोगों की बराबर खोजखबर लेते रहे, खैरियत पूछते रहे। आज भी उनका पहला सवाल था, घर में लोग कैसे हैं ,बडे भैया का स्वास्थ्य कैसा है ? परिवार के प्रति उनका यह अटूट स्नेह हमें हमेशा संबल देता है।

किसी भी पुरस्कृत व्यक्ति के लिए यह सामान्य सवाल है कि पुरस्कार या सम्मान मिलने पर आप कैसा महसूस करते हैं, उत्तर भी अपेक्षित ही रहता है। लेकिन जब कोई विश्व पुरस्कार मिले, समस्त एशियाई मूल के पहले साहित्यकार के रूप में आप सम्मानित किए जाएं तो हर्षातिरेक से भावनाओं को काबू में रखना मुश्किल होता है लेकिन विनोद जी लगभग निर्विकार थे। उन्होंने इसे बहुत सहजता से लिया। वैसे भी उन्हें देश-विदेश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं से दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं। इसमें एक की और बढोत्तरी हुई। यद्यपि 50 करोड़ डालर का पेन नाबोकोव पुरस्कार मिलने पर उन्होंने स्वयं को सहज-सरल रखा था फिर भी एक अलग तरह की खुशी उनके चेहरे पर झलक रही थी जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सृजनात्मकता को सम्मान मिलने पर संतोष का विनम्र भाव था।

मैंने पूछा- पुरस्कार की सूचना मिलने पर सबसे पहले आपको किसका ख्याल आया। उत्तर था- उन सभी का जो मेरे जीवन में है। अतीत याद आया। मुक्तिबोध जी याद आए। मैंने उनसे कहा – ‘आपको याद होगा ,आपने सबसे पहले बच्चों के लिए लिखी गई कविताएं कहाँ सुनाई थी ?’ विनोद जी खामोश रहे। कुछ पल बाद उन्होंने कहा- ‘ याद नहीं। अब मेरी स्मृति कमजोर पड़ गई हैं। मैं घटनाओं को भूल जाता हूँ । बहुत सी तुरंत याद नहीं आती पर बाद में अकस्मात याद आ जाती हैं। किंतु कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें मैं कभी भूल नहीं सकता। मसलन नांदगांव। वहां बीता हुआ समय। वहां की स्मृतियां, अपने लोग, नाते रिश्तेदार। लेकिन मुझे सचमुच याद नहीं मैंने बच्चों के लिए लिखी गई कविताएं प्रथमतः कब और कहाँ सुनाई थीं। उनका पाठ किया था। ‘

मैंने कहा – दैनिक भास्कर में। करीब 15-17 बरस पहले। आप जानते ही हैं – उन दिनों मैं दैनिक भास्कर में था। हमारा प्रयोगधर्मी अखबार। हम समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों के नामचीन विशेषज्ञों को हमारे अखबार के कार्यालय में आमंत्रित करते थे और उनका आमंत्रित युवाओं , बच्चों से संवाद कराते थे। इस श्रृंखला कार्यक्रम के दौरान अनेक विद्वान आए। एक बार जब सैम पित्रोदा अपने परिजनों से मिलने रायपुर प्रवास पर थे तब हमने उन्हें भी दैनिक भास्कर कार्यालय आमंत्रित किया था। ऐसे ही एक दफे आपसे भी निवेदन किया गया। आप आए। सभा में आपने यह कहकर चौंका दिया था कि आप बच्चों के लिए भी कविताएं व उपन्यास लिख रहे हैं। आपने पहली बार बच्चों के लिए लिखी गई अपनी कविताएं सुनाईं। बहुत अच्छी कविताएं। आपने उनके सवालों का जवाब भी दिया। मैं इस बात को कभी भूल नहीं सकता।

विनोद जी आश्चर्यचकित थे। दिमाग पर जोर देकर याद करने की कोशिश कर रहे थे। पर वे भूल चुके थे।

मैंने मिठाई खाई, चाय पी और रवानगी डालने उठ खड़ा हुआ क्योंकि न्यूज चैनलों के मेरी बिरादरी के कुछ युवा पत्रकार उनका इंटरव्यू करने पहुंच गए थे।

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