between naxal and forceImpact OriginalState News

between naxal and force हिमांशु कुमार ने इस तरह छोड़ा दंतेवाड़ा… सोढ़ी संभो प्रकरण के साथ VCA का 18 बरस का सफर ठहर गया… 

Getting your Trinity Audio player ready...
  • सुरेश महापात्र।

पुलिस व प्रशासन की निगाह अब इस आश्रम की हर गतिविधि पर रहने लगी…  10 से आगे पढ़ें…

कोंटा इलाके के गोमपाड़ में 1 अक्टूबर 2009 को सोढ़ी संभो के बताए मुताबिक एक मामला सामने आया। जिसकी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई। दावे के मुताबिक इस महिला के साथ सुरक्षा बलों ने ना केवल दुर्व्यवहार किया बल्कि गोली भी चलाई जिससे उसके दाएं पैर में गोली लगी। याचिका में कथित तौर पर सोढ़ी संभो की ओर से बताया गया कि ‘घटना वाले दिन इंजरम कोंटा कैंप से माड़वी बुच्चा के साथ कुछ और सुरक्षाबलों के हथियारबंद जवानों ने घर में दबिश दी।

उस समय उसके दो बच्चे सोढ़ी राजू 3 वर्ष और सोढ़ी नागो 5 साल भी मौजूद थे। उस दौरान पड़ोसी सोयम सेंसा की पत्नी सोयम बाली भी वहां अपने नवजात शिशु को गोद में लेकर मौजूद थी के सामने रायफल तान दिया। ‘छोटे बच्चे का देखकर साथी सुरक्षा बलों के गोली चलाने से मना करने पर उसने देखा कि मैं अपने सहमे हुए बच्चों के साथ खड़ी हूं तो मेरे पैर में गोली मार दी जिससे मैं गिर गई। मेरे बच्चे रोने लगे।’ सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका अन्य 12 याचिकाओं के साथ दाखिल की गई थी। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिकाकर्ता में हिमांशु कुमार भी शामिल थे।

इस मामले के बाद बहुत तेजी से घटनाक्रम बदलने लगा। यह आरोप लगाया गया कि पुलिस ने जानबूझकर कार्रवाई नहीं की। 13 अक्टूबर 2009 को हिमांशु कुमार ने इस आशय का पत्र एसपी दंतेवाड़ा को भेजा जो उन्हें 15 अक्टूबर को प्राप्त भी हो गया। पुलिस अधीक्षक दंतेवाड़ा द्वारा इस अनुरोध के साथ प्राप्त की गईं कि सभी मामलों में एक प्राथमिकी दर्ज की जाए, फिर भी पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई।

हिमांशु कमार ने आरोप लगाया कि ‘याचिकाकर्ता और अन्य चश्मदीद गवाह कुछ आरोपियों की पहचान कर सकते थे, फिर भी किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया था। कोई जांच नहीं हुई। एक भी चश्मदीद को अपना बयान दर्ज कराने के लिए नहीं बुलाया गया है। इसीलिए ‘रिट याचिका में उपरोक्त सभी शिकायतों को जांच के लिए सीबीआई को स्थानांतरित करने और छत्तीसगढ़ सरकार को पीड़ितों या उनके रिश्तेदारों को मुआवजा देने का निर्देश देने की मांग की गई है।’

अमरेश मिश्रा के 19 जून 2009 से 16 जून 2010 करीब 13 महीने के अल्प कार्यकाल में बेहद चर्चित अफसर रहे। इधर सिंगारम मुठभेड़ के बाद हिमांशु कुमार के साथ शुरू हुई वैधानिक लड़ाई काफी आगे बढ़ चुकी थी। अमरेश मिश्रा ने अपनी पदस्थापना के शुरूवाती दिनों में ही पुरानी सारी टेक्टिस बदल दी। अब दंतेवाड़ा में सौम्य और सभ्य राहुल शर्मा की जगह पर बेहद आक्रामक और बद्जुबान पुलिस अफसर के तौर पर अपनी पहचान बनाई। जिसका खामियाजा भी उन्हें भोगना पड़ा।

इनके दौर में दो बड़े बदलाव हुए पहला पब्लिक को साथ लेकर माओवादियों के समर्थकों खिलाफ सीधी कार्रवाई करना और दूसरा कोया कमांडो के तौर पर बदनाम हो चुके एसपीओ को अपने कंट्रोल में रखना। मिश्रा ने आने के बाद सबसे पहले सुकमा से कोंटा तक का इलाका अपने काबू में किया। जांच के नाम पर बनाए गए नाकों में एसपीओ द्वारा बद्तमीजी को बंद करवाया। साथ ही बाहर से आने वाले माओवादी समर्थकों एनजीओ के नाम पर माओवादियों का समर्थन करे वाले लोगों के साथ मीडिया के चिन्हित चेहरे भी शामिल थे उन पर निगरानी रखना।

सोढ़ी संभो मामले ने एक प्रकार से सीधी लड़ाई छेड़ दी थी। इस मामले के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने एसपी अमरेश मिश्रा की घेराबंदी तेज कर दी और पुलिस ने हिमांशु कुमार को राडार पर ले लिया। इधर बाहर से बुलाई गई मीडिया के सामने हिमांशु पुलिस व प्रशासन के साथ स्थानीय मीडिया कर्मियों को भी निशाने पर ले रहे थे। माहौल लगातार बदलने लगा। सोढ़ी संभो हिमांशु कुमार के पास आश्रम में ही रही। पर पुलिस का जवाब था उसे पूछताछ के लिए सोढ़ी संभो मिल नहीं रही है। जबकि हिमांशु कुमार के मुताबिक सोढ़ी संभो से पूछताछ तो दूर उसकी जानकारी लेने की कोशिश भी नहीं की गई।

सोढ़ी संभो के मामले के बाद हिमांशु और उनके समर्थक सीधे टारगेट में रहे। सर्चलाइट इज आन ब्लॉगस्पाट में (searchlight-is-on.blogspot.com) satyen k. bordoloi ने सोढ़ी संभो प्रकरण की विस्तार से जानकारी दी है… इसमें कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जिस दौरान उन्होंने स्वयं को रिपोर्ट में उपस्थित दर्ज किया है। इसी रिपोर्ट की शुरूआत में लिखा है…

अंग्रेजी में लिखे इस रिपोर्ट का यह अंश हिंदी ट्रांसलेशन है…

‘4 जनवरी 2010 की सुबह की बात है जब मैंने हिमांशु कुमार को मोबाइल पर किसी से हिंदी में कहते सुना था “मैं फंस गया हूं, मुझे समय पर जबाब नहीं मिला” (मैं मुश्किल में पड़ गया क्योंकि मुझे समय पर सलाह नहीं मिली)। वह टिप्पणी अचानक मेरे दिमाग में एक और आदान-प्रदान लेकर आई जो उसने 1 जनवरी की सुबह की थी जिसे मैंने फिर से सुना था। “मुझे एसपी दंतेवाड़ा स्टेटमेंट के लिए बुला रहा है। मैं ने वकील से सलाह मांगी है, क्या मैं बयान दूं या ना दूं, और दूं तो कहां दूं? (एसपी दंतेवाड़ा ने मुझे बयान दर्ज करने के लिए बुलाया है। मैंने वकील से पूछा है कि मुझे बयान दर्ज करना चाहिए या नहीं, और यदि हां, तो कहां?)” मैं किसी भी अवसर पर उनसे बात नहीं कर रहा था। वह उपवास (सत्याग्रह) पर था और सुबह के स्नान के बाद वह उन लोगों से घिरे एक पेड़ के नीचे खुले में बैठता था, जो उसके लिए लड़ रहे थे और 6/7 पुलिस गार्डों में से कुछ के द्वारा एकजुटता व्यक्त करने आए थे कि एसपी- दंतेवाड़ा ने हिमांशु कुमार की सुरक्षा के लिए अपनी मर्जी से इंतजाम किया था। 3 दिनों के दौरान बोले गए इन दो बयानों के बीच सोदी संभो के आसपास का सारा ड्रामा भरा हुआ है जैसा कि हम अभी देखेंगे।’

दरअसल सोढ़ी संभो का केस बेहद मजबूत तरीके से उठा दिया गया था जिसे लेकर दंतेवाड़ा में बैठकर यह तय करना कठिन हो गया था कि इस मामले में सच कौन कह रहा है? पुलिस अपनी थ्योरी के साथ दावा करती नजर आ रही थी और हिमांशु कुमार अपने तरीके से इसे साबित करने के लिए जी जान से जुटे थे। पर हकीकत तो यही था कि यह केस पुलिस के लिए जितनी मुसीबत पैदा कर रहा था उतनी ही परेशानी में हिमांशु कुमार भी घेरे जा रहे थे।

14 दिसंबर 2009 को हिमांशु कुमार ने सलवा जुड़ूम के खिलाफ एक पदयात्रा आयोजित की। इसके बाद इनका विरोध होने लगा। कथित तौर पर ‘आदिवासी स्वाभिमान मंच’ के बैनर लेकर उन्हें घेर लिया और उन्हें वापस जाने के लिए कहा। ‘वापस जाओ, वापस जाओ’ जैसे नारे लगाते हुए आदिवासियों ने आरोप लगाया कि एनजीओ ‘मानवाधिकारों के बहाने नक्सलियों का समर्थन करते हैं।’ इसके बाद भीड़ बेकाबू होकर ​कतियाररास स्थित आश्रम की ओर जाने लगी। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए एसपी अमरेश मिश्रा स्वयं तमाम सुरक्षा प्रबंधों के साथ वहां पहुंचे। पहले लाउड स्पीकर से भीड़ को आश्रम से दूर रहने की हिदायत दी गई। बावजूद इसके भीड़ वहां हिमांशु कुमार के खिलाफ नारे लगाते करीब पहुंचती चली गई। जिसके बाद पथराव जैसी स्थिति निर्मित होने के बाद लाठी चार्ज किया गया।

इस घटना के बाद उनके आश्रम के सामने फोर्स तैनात कर दी गई। जो हिमांशु कुमार की सुरक्षा के लिए भले ही बताई जा रही हो पर हिमांशु कुमार को यह पता था कि यह सब कुछ सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया जा रहा था। यानी उन्हें घेरने की रणनीति पर पुलिस व प्रशासन काम कर रहा था। हिमांशु यदि दंतेवाड़ा बस्ती में निजी काम के लिए भी निकलते तो सुरक्षा में तैनात जवान अपने वाहन के साथ आगे—पीछे चलते… यानी एक तरह से हिमांशु नजरबंद कर दिए गए।

इसके बाद लगातार यह घटनाक्रम चलता रहा। दरअसल यह सब कुछ सोढ़ी संभो मामले को लेकर संचालित हो रहा था। जिसकी जानकारी मिलने के बाद दूर—दराज से मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर काम करने वाले बड़े चेहरे समर्थन के लिए पहुंच रहे थे। यही वजह थी कि मेघा पाटकर और संदीप पांडे भी यहां पहुंचे थे।

पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट में दर्ज वह याचिका थी जिसमें पुलिस पर सीधा आरोप लगा था और उसके प्रत्यक्ष साक्षी सोढ़ी संभो फिलहाल हिमांशु कुमार के साथ थी। पुलिस यह बताना नहीं चाहती थी ​कि घटना के बाद भी सोढ़ी संभो दंतेवाड़ा में रही बावजूद इसके उसने तकनीकी तौर पर उसकी मौजूदगी से अ​नमिज्ञता जता रही थी। 3 जनवरी को पुलिस ने कांकेर में हिमांशु कुमार के साथ सोढ़ी संभो को अपनी हिरासत में लिया। सिर्फ यह बताने के लिए कि हिमांशु उसे छिपाते हुए अपने साथ लेकर कहीं जा रहा था।

इससे पहले कतियाररास स्थित किराए में लिए गए दफ्तर को किराए पर देने वाले प्रमोद जोध ने घर खाली करने के लिए कह दिया। उसके घर के सामने जिसकी भूमि थी उसने यह कहते आपत्ति जताई कि उसकी जमीन पर बिना वजह बहुत सी गाड़ियां आ—जा रही हैं। इस दौरान बहुत से सामाजिक कार्यकर्ता और बाहरी मीडिया हिमांशु कुमार के इस आश्रम में मौजूद थे। माहौल लगातार तनावपूर्ण बनता जा रहा था। इसी बाहरी मीडिया के सामने अमरेश मिश्रा ने यह दावा किया था ​कि पुलिस लगातार सोढ़ी संभो की पता साजी में जुटी है। उसके घर पर तीन बार बयान दर्ज करने के लिए पुलिस पहुंची थी पर वह नहीं मिली। वहीं सोढ़ी संभो हिमांशु कुमार के आश्रम में रहते हुए नियमित तौर पर स्थानीय हास्पिटल में उपचार के लिए पहुंच रही थी।

7 जनवरी 2010 को नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुआ मेघा पाटकर और संदीप पांडे हिमांशु कुमार से मिलने के लिए दंतेवाड़ा पहुंचे। इस दौरान पाटकर और पांडे एक मोटरबाइक पर थे। इनका भी विरोध किया गया। यह साफ दिखाई दे रहा था कि सब कुछ पुलिस के इशारे से संचालित हुआ था।

इस घटनाक्रम के बाद पता चला कि जनवरी 2010 की किसी रात को हिमांशु कुमार ने दंतेवाड़ा छोड़ दिया। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों ने दावा किया कि हिमांशु ने जिंस और जैकेट के साथ कैप लगाई थी। उन्होंने अपनी मूछें मुंडवा ली थी। यह सब कुछ पहचान छिपाने की कोशिश भी हो सकती थी। एक तरह से 18 बरस का वीसीए का सफर दंतेवाड़ा में इस तरह से बाधित हो गया।

दंतेवाड़ा की मीडिया के बड़े हिस्से में यह शुरू से ही सोच बनी रही कि हिमांशु एक तरह से माओवादियों के शहरी नेटवर्क का हिस्सा हैं। सलवा जुड़ूम की परिस्थितियों में मीडिया अपना काम तो कर रही थी पर उसे बहुत ज्यादा सर्तकता बरतने की स्थिति रही। इसकी बहुत सी वजहें रहीं… (11) आगे पढ़ें…

क्रमश:

error: Content is protected !!