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between naxal and force जब शुरू कर दी गई हिमांशु की घेराबंदी, ढहा दिया गया कंवलनार का आश्रम… सोढ़ी संभो मामला और माओवादियों से रिश्ते पर रार…

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  • सुरेश महापात्र।

सलवा जुड़ूम के बाद बिगड़ी हुई परिस्थितियों में किसी पुलिस अफसर का तेज तर्रार होना… दोनों ही तरह से खतरे का संकेत साबित हुआ। (9) …आगे पढ़ें  

अपने तबादले से ठीक पहले राहुल शर्मा ने हिमांशु कुमार के कंवलनार आश्रम को तोड़ने में बड़ी भूमिका का निर्वाह किया। करीब 17 बरस तक दंतेवाड़ा जिले में एक एनजीओ के तौर पर काम करते हुए हिमांशु ने गोंडी बोली पर अपनी पकड़ बना ली थी। वे शुरूआती दौर में महेंद्र कर्मा के काफी नजदीकी माने जाते रहे।

दंतेवाड़ा जिला के कुछ इलाकों में वाटर शेड मिशन का काफी काम किया। उनकी एनजीओ के सदस्य अंदरूनी गांवों तक पहुंचते और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे विषयों पर भी काम करने लगे। जिला प्रशासन के साथ बेहद करीबी संबंध रखते हुए हिमांशु ने अपनी छवि अलग ही बना ली थी।

उन्होंने दंतेवाड़ा से फरसपाल मार्ग के मध्य में स्थित कंवलनार में अपने आश्रम का मुख्यालय बनाया। जिसमें उनका कार्यालय और आवास दोनों संचालित होता था। चूंकि इस इलाके में कभी प्रशासन को इस बात की जरूरत ही नहीं पड़ी कि जिस भूमि पर यह सब चल रहा था वह किसका है? यानी जिला प्रशासन की मौन सहमति से ही सब संचालित हो रहा होगा।

दरअसल सलवा जुडूम के बाद बदली हुई परिस्थितियों में एक लकीर साफ तौर पर खींच दी गई थी। वक्त की इबारत थी कि ‘या तो तुम हमारे साथ हो या हमारे खिलाफ हो…!’ 17 मई 2009 को यह पहली कार्रवाई तब की गई जब रविवार का दिन था। सारे कोर्ट बंद थे और यह सुबह—सुबह का समय था। 16 मई की देर शाम तक सारी तैयारियों को प्रशासनिक तौर पर अंजाम दिया गया। अल सुबह इससे पहले कि हिमांशु कुछ समझ पाते उनके आश्रम का सामान बाहर निकालकर आश्रम की भूमि खाली कर दी गई। तब कलेक्टर शिशुपाल सोरी हुआ करते थे। हिमांशु कुमार ने अपने लोगों तक बात पहुंचाई। उन्होंने राज्यपाल को घटना की जानकारी दी। राजभवन ने कलेक्टर से चर्चा की कोशिश की पर सफल नहीं हुए। हटाने की पूरी कार्रवाई तक राजभवन से कलेक्टर का संपर्क स्थापित नहीं हो पाया।

17 मई 2009 को वनवासी चेतना आश्रम के कंवलनार स्थित मुख्यालय को बुलडोजर से हटा दिया गया। यहां वनक्षेत्र पर अवैध कब्जा का भले ही आरोप लगाया गया हो। पर इस आश्रम व हिमांशु कुमार के निवास स्थान को हटाने के पीछे राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन के साथ पुलिस भी जिम्मेदार थी। पुलिस को शिकायत थी कि वनवासी चेतना आश्रम की आड़ में हिमांशु कुमार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और शहरी माओवादी समर्थकों को स्थानीय स्तर पर जानकारी दे तो रहे हैं साथ ही इस इलाके के लोगों को सरकार के खिलाफ उकसा भी रहे हैं।

यह भी माना जा सकता है कि सलवा जुड़ूम अभियान के बाद दक्षिण बस्तर जिस तेजी से बदल रहा था, जिससे हर तरह की तस्वीर बदलने लगी थी, हर किसी की शिनाख्त होने लगी थी, हर किसी को परखा जाने लगा था। इसमें मीडिया भी शामिल थी जिसके बारे में यह कहा जाने लगा था कि पुलिस सबकी फाइल तैयार करवा रही है। हर किसी का फोन टेप किया जा रहा है।

हिमांशु कुमार सलवा जुड़ूम अभियान को लेकर स्पष्ट रहे वे इसके सीधे विरोध में खड़े थे। स्वाभाविक था उनका यह विरोध ना तो प्रशासन को पसंद आने वाला था और ना ही पुलिस को। उल्टे सलवा जुड़ूम के प्रखर समर्थकों की नजर में हिमांशु माओवादियों के समर्थक के तौर पर चिन्हाए गए। महेंद्र कर्मा भी अब उनके खिलाफ हो चुके थे। दंतेवाड़ा में यह चर्चा आम रही कि महेंद्र कर्मा ने ही हिमांशु कुमार को मजबूत बनाने का काम किया। होली, दिवाली के दौर में भी महेंद्र कर्मा के साथ त्योहारी संगत बनी रहती अब यह सब पुरानी बातें थीं। महेंद्र कर्मा सलवा जुड़ूम का नेतृत्व कर रहे थे और हिमांशु इसका विरोध!

2008 के विधानसभा चुनाव में महेंद्र कर्मा पराजित हो गए। तो यह भी कहा जाने लगा कि हिमांशु कुमार ने सलवा जुड़ूम के खिलाफ महेंद्र कर्मा को पराजित करने में बड़ी भूमिका निभाई। अब दंतेवाड़ा में विधायक के तौर पर भाजपा के भीमा मंडावी थे। जिनका हिमांशु कुमार के साथ किसी तरह का कोई संबंध कभी रहा ही नहीं। पर जिन्होंने भीमा मंडावी को विधायक चुनने में भूमिका निभाई थी ऐसे भाजपा के कई बड़े पदाधिकारियों की नजर में हिमांशु कुमार सफेदपोश माओवादी के तौर पर प्रदर्शित किए जाते रहे। तो ऐसे में तमाम विरोधों के बाद भी अब दक्षिण बस्तर की हर नब्ज जानने वाले हिमांशु कुमार अपनी मुस्कुराहट के साथ चलते…

जून 2005 से अप्रेल 2009 के बीच में बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसका प्रभाव अब हिमांशु पर पड़ने लगा। अंदरुनी इलाकों की फर्जी मुठभेड़ों और सलवा जुड़ूम के अत्याचार को लेकर खबरें दंतेवाड़ा से दिल्ली तक परोसी जाने लगीं। सिंगारम मुठभेड़ के विवाद के बाद यह लड़ाई सीधी हो गई। इस मामले को लेकर हिमांशु कुमार ने पीड़ित देवा और हिड़मे को राष्ट्रीय—अंतरराष्ट्रीय मीडिया से मिलाने का काम किया था।

हिमांशु विरान हुए गांवों को फिर से बसाने की पैरवी कर रहे थे। इस प्रयास को लेकर एक बार मीडिया की एक टीम को लेकर वे गगन पल्ली को बसाने के प्रदर्शन की कोशिश की। उनके साथ हमारे एक रिपोर्टर भी थे। जिसने लौटने के बाद जो जानकारी दी वह चौंकाने वाली थी। हमारे रिपोर्टर ने बताया ‘…भैय्या वह तो पूरी तरह मिला हुआ है!’

उसने जो जानकारी दी उसे भले ही प्रकाशित नहीं किया पर वह यह थी। अपनी बोलेरों में हिमांशु तीन—चार मीडियाकर्मियों को लेकर अंदरूनी गांव पहुंचे। वहां उनके पहुंचने के बाद कुछ ग्रामीण पूछताछ करने लगे। ग्रामीणों को उन्होंने अपना परिचय दिया। उस दौरान ग्रामीण लुंगी, बनियान आदि पहने हुए थे। वहां से कुछ ग्रामीण वापस लौटे। थोड़ी ही देर बाद उन ग्रामीणों के साथ वर्दीधारी हथियार बंद माओवादी भी पहुंचे। वे ग्रामीण भी अपनी पोशाक बदल चुके थे। वे अब नक्सली वर्दी में हथियार लेकर साथ खड़े थे। इन माओवादियों के आते ही हिमांशु कुमार ने लाल सलाम कहते हुए अभिवादन किया। उन्होंने भी लाल सलाम कहते जवाब दिया… इस दौरान मीडिया कर्मियों के कैमरे और माइक बंद करने की हिदायत थी फिर भी आड़ा तिरछा कुछ रिकार्ड हो ही गया था…

पर ऐसा नहीं है कि अंदर तक पहुंचने वाले हिमांशु ही ऐसा करते थे। बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार का भी जब माओवादियों के साथ आमना—सामना हुआ वे भी लाल सलाम ही कहते हैं। जवाब में उन्हें भी लाल सलाम ही मिलता…। अंदर के गांवों में कौन आम ग्रामीण है और कौन माओवादी कमांडर इसकी पहचान कर पाना नामुमकिन!

इसका साफ मतलब था अंदर की खबरें माओवादियों के मार्फत हिमांशु तक सीधे पहुंच रही थी। इन्हीं खबरों के आधार पर हिमांशु अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। जिसे पुलिस और प्रशासन भी साफ समझ रहा था। संभवत: हिमांशु कुमार के वनवासी चेतना आश्रम यानी वीसीए पर बुलडोजर से प्रहार का यह भी एक बड़ा कारण रहा हो। पर एक बात और है कि यदि हिमांशु तक अंदर की सारी घटनाएं नहीं पहुंचती तो कई सारे मामलों में जिनमें साफ तौर पर बेगुनाहों के साथ अत्याचार हुआ उसका मसला कौन उठाता?

वैसे रायुपर, दिल्ली समेत दक्षिण बस्तर में सक्रिय कुछ मीडियाकर्मियों तक भी माओवादियों के पर्चे सीधे पहुंचते। जिस पर बहुत सी खबरें भी बनीं हैं और बनती रही हैं। इसका तो यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि ये सारे लोग माओवादियों के समर्थक या सफेदपोश माओवादी हों? पर सलवा जुड़ूम ने यह धारणा बदल दी थी। जिसका खामियाजा बस्तर में काम करने वाले बहुत से मीडियाकर्मियों को भोगना भी पड़ा। कुछ मीडिया कर्मी माओवादियों के निशाने पर रहे तो कुछ पुलिस के… यह क्रम फिलहाल बंद नहीं हुआ है।

वैसे माओवादियों के सारे आरोप हमेशा सही नहीं रहते। वे अपने टेक्टिस के तहत नकारात्मक प्रपोगंडा के माहिर हैं। उन्हें अपना विरोध प्रदर्शित करने के लिए कई ऐसी घटनाओं का भी आरोप लगाया जिसे अब तक प्रमाणित नहीं किया जा सका। कुल मिलाकर हिमांशु कुमार अब दंतेवाड़ा से फरसपाल के बीच कंवलनार के आश्रम से हटाए जा चुके थे।

इसके बाद वीसीए के दफ्तर को एकतरफा कार्रवाई से हटाने को लेकर एनजीओ की एक फैक्ट फाइडिंग टीम दंतेवाड़ा पहुंची। इस दल के सदस्य थे मैगसेसे पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. संदीप पाण्डेय, लखनऊ; अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (सीएमएम), पूर्व विधायक जनक लाल ठाकुर, दल्ली-राजहरा से मुख्यधारा के पत्रकार और संपादक सुमित चक्रवर्ती, नई दिल्ली से मानवाधिकार वकील और महिला अधिकार कार्यकर्ता, एडवोकेट कामायनी बाली महाबल, मुंबई से कॉम्बैट लॉ के संपादक डॉ हर्ष डोभाल, पीयूसीएल रायपुर छत्तीसगढ़ के विजेंद्र पहुंचे।

29 मई से 31 मई तक फैक्ट फाइंडिंग करने वाली टीम ने वीसीए चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, भाकपा के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम और दंतेवाड़ा के एसपी राहुल शर्मा से मुलाकात की। टीम ने हटाए गए आश्रम स्थल का दौरा किया। दल 17 मई को दंतेवाड़ा के निकट कंवलनार में वनवासी चेतना आश्रम के संदर्भ में, क्षेत्र में माओवादी गतिविधियों और स्थानीय अधिकारियों द्वारा लोगों की समस्याओं की प्रकृति का अध्ययन करने के बाद राज्यपाल ईएस नरसिम्हन से 1 जून को मुलाकात की। टीम के सदस्यों ने कंवलनार, दंतेवाड़ा और बीजापुर जिलों के कई आंतरिक क्षेत्रों के अपने दौरे के आधार पर ज्ञापन सौंपा। राज्यपाल ने आश्वासन दिया कि वह ज्ञापन में किए गए बिंदुओं पर गौर करेंगे।

इसके बाद 19 जून को राहुल शर्मा का तबादला कर दिया गया। हिमांशु अब दंतेवाड़ा के कतियाररास में एक भवन को किराए पर लेकर वहां से आश्रम का संचालन शुरू कर दिया। इस आश्रम में अब लगातार बाहरी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का जमावाड़ा होने लगा। पुलिस व प्रशासन की निगाह अब इस वनवासी चेतना आश्रम यानी VCA की हर गतिविधि पर रहने लगी। 10 आगे पढ़ें…

क्रमश:

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