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तेज बाजारवाद व तरह-तरह के दबाव के बीच मूल्यपरक पत्रकारिता के लिए रास्ता बनाना अत्यधिक कठिन… दिवाकर मुक्तिबोध। कुछ यादें कुछ बातें-18

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छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक दिवाकर जी… ने पत्रकारिता को पढ़ा है, जिया है और अब भी जी रहे हैं… वे अपना सफ़रनामा लिख रहे हैं… कुछ यादें कुछ बातें-18

-दिवाकर मुक्तिबोध।

ललित सुरजन मुझसे उम्र में कुछ वर्ष ही बड़े थे। मैं बीएससी कर रहा था, वे एमए। लेकिन उनका बौद्धिक स्तर बहुत ऊंचा था। जबकि मैं इस मामले में उनसे बहुत बौना। क्या हिंदी, क्या अंग्रेजी, दोनों पर उनकी पकड़ जबरदस्त थी। चूंकि कालेज की पढाई के साथ साथ उन्होंने देशबंधु का काम भी देखना शुरू कर दिया था लिहाजा पत्रकार के बतौर उनकी दृष्टि तीक्ष्ण होती चली गई। भाषा शैली अच्छी थी ही, विचारों से प्रगतिशील। उनका झुकाव वामपंथ की ओर था। जीवन के पूर्वार्ध की तुलना में उत्तरार्द्ध में उनका लेखन विपुल मात्रा में हुआ। वह विविध था। राजनीतिक टिप्पणीकार के अलावा एक लेखक के रूप में उनकी विशिष्ट पहचान है। दो काव्य संग्रह, चार किताबें निबंध व यात्रा वृत्तांत पर तथा मीडिया पर दो किताबें प्रकाशित हैं। लेकिन उनका देशबन्धु का सफरनामा जो बेहद दिलचस्प व जानकारीमूलक है, अधूरा रह गया। उन्होंने इसकी तीस से अधिक कडियां लिखीं किंतु गंभीर बीमारी ने आगे लिखने का वक्त नहीं दिया। 02 दिसंबर 2020 को वे इस दुनिया से दूर , बहुत दूर चले गए।

ललित जी थे स्नेहिल थे, मिलनसार लेकिन कुछ गरम मिजाज के। किसी की कही कोई बात पसंद नहीं आने पर तुरंत फटकार देते थे। उनसे बडी संख्या में लोग जुडे भी तो बहुतेरे अलग भी हुए पर स्नेह का दामन किसी ने नहीं छोडा। इसमे संदेह नहीं छत्तीसगढ़ में विचारशील पत्रकारिता के आधार स्तम्भ थे ललित सुरजन। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। सच्ची पत्रकारिता क्या होती है, इसे जाना। इससे मुझे अपना रास्ता तय करने में अपार मदद मिली।

देशबंधु में ललित जी हम लोगों की क्लास लेते थे। क्लास कभी मीटिंग के रूप में होती थी या गलतियां मार्क किया हुआ अखबार संपादकीय कक्ष में पहुंच जाता था। हम लोग उसे देखते थे और इससे सीख मिलती थी। सीनियर भी देखते थे। जिनसे गलतियां होती थी ,चाहे वे अनुवाद की हों या कंटेंट की या प्रूफ की अथवा भाषा की, उनके साथ अलग बैठकर बात की जाती थी। यानी काम करते-करते प्रशिक्षण की इस पद्धति से कच्ची मिट्टी को सुआकार मिलना तय रहता था। युवा पत्रकारों के लिए ऐसे प्रशिक्षण की व्यवस्था किसी और अखबार में नहीं थी। इसीलिए देशबन्धु को मीडिया स्कूल कहा जाता था। अब तो खैर परिस्थितियां बदल गई हैं। देशबन्धु, देशबन्धु न रहा और न मायाराम जी रहे न ललित जी। साठ वर्ष पुराना अखबार बस अब किसी तरह चल रहा है। अपने अस्तित्व की रक्षा कर रहा है।

बूढापारा कार्यालय के समय अखबार का देशबन्धु नामकरण नहीं हुआ था। वह ‘ नई दुनिया ‘ था जिसके व्यवसायिक तार नई दुनिया इंदौर से जुड़े हुए थे। नई दुनिया इंदौर यानी मध्यप्रदेश का 70-80 के दशक का शानदार, सर्वाधिक लोकप्रिय व सर्वाधिक प्रचारित अखबार जो दो दिन बाद रायपुर पहुंचता था और वैसी ही ताजगी देता था मानो वह उसी दिन का अखबार हो। इससे उसकी लोकप्रियता का अंदाज लगा सकते हैं। दफ्तर में डाक से आने वाले हिंदी -अंग्रेजी अखबारों के ढेर के बीच से सबसे पहले नई दुनिया ही हाथ में आता था।

बहरहाल नई दुनिया रायपुर बूढापारा से उठकर पहले स्टेशन रोड व बाद में वहां से खुद की इमारत रामसागर पारा पहुंचा और फिर इसका अवतरण देशबन्धु के रूप में हुआ। मुझे इस बात का अपार संतोष है कि मेरे सफर की शुरुआत नई दुनिया व देशबंधु से हुई। नई दुनिया-देशबन्धु के चार आधार स्तम्भ थे- संपादक रामाश्रय उपाध्याय, राजनारायण मिश्र, रम्मू श्रीवास्तव, व सत्येन्द्र गुमाश्ता। और भी वरिष्ठ थे जो कुछ वर्ष, कुछ महीने बिताकर आगे बढ गये यानी दूसरी नौकरियां पकड लीं। जिन्हें मैं जानता था उनमें कुछ नाम हैं गंगाप्रसाद ठाकुर, कुमार आनंद वाजपेयी, राघवेन्द्र गुमाश्ता , मदन शर्मा व डा.रामदास शर्मा। मेरे समकालीन युवा साथी करीब दर्जन भर थे। सोहन अग्रवाल, भरत अग्रवाल, गिरिजा शंकर, लियाकत अली, दीपक पाचपोर, दाऊलाल छंगाणी, जगदीश यादव, सतीश वर्मा, मुजफ्फर खान, सुनील कुमार, निर्भीक वर्मा, नईम शीरो, परमानंद वर्मा आदि आदि। बाद में विवेक तिवारी, प्रदीप जैन, सुरेश तिवारी व त्रिराज साहू।

देशबन्धु की इस युवा टीम को ललित सुरजन जैसा नेतृत्व मिला, वैसा शायद ही किसी अखबार की टीम को नसीब हुआ होगा। मेरे समकालीन व बाद के साथियों में से बहुतों ने आगे चलकर काफी नाम कमाया व राष्ट्रीय पहचान बनाई। समय के साथ अवसर मिलने पर वे अन्य अखबारों या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चले गए पर अपनी पत्रकारीय समझ के निर्माण में देशबन्धु विशेषकर ललित जी के अवदान को वे कभी भूल नहीं सकते। इसलिए इस स्कूल से निकले तमाम विद्यार्थी खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं जिनमें मैं भी शामिल हूँ।

ललित जी की कार्य शैली, आसपास घटित घटनाओं को देखने का तीक्ष्ण नजरिया, पत्रकारिता की गहरी समझ और बहुत अच्छी भाषा मुझे मुग्ध करती थी। उनकी बातें, उनके विचार मुझे प्रेरणा देते थे। आदर्श व मूल्यपरक पत्रकारिता के संबंध में उनकी बातें सतत ध्यान में रहती हैं। मसलन पत्रकारों को किसी भी प्रकार की आवाभगत खासकर सुख सुविधाएं स्वीकार नहीं करना चाहिए। इससे कलम के प्रभावित होने की आशंका रहती है। वे विदेशी समाचार पत्रों का उदाहरण देते थे जहाँ कंपनियां अपने रिपोर्टरों को तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं ताकि वे अपने कार्यों के दौरान किसी से प्रभावित न हो सकें तथा प्रलोभन में न आएं। ललित जी की यह सीख जीवन भर न भूलने वाली थी। जिन्होंने इसे जिया, वे आज भी जी रहे हैं अलबत्ता अब पत्रकारिता का चेहरा बहुत बदल गया है।

चार दशक पूर्व के मूल्यों को जीना या उस कालखंड की आदर्श स्थिति को प्राप्त करना आज की चकाचौंध वाली मूल्यविहीन पत्रकारिता व पत्रकारों के लिए चाहकर भी संभव नहीं है। दरअसल तेज बाजारवाद व तरह-तरह के दबाव के बीच मूल्यपरक पत्रकारिता के लिए रास्ता बनाना अत्यधिक कठिन है। अखबार के संबंध में ललित जी की एक और बात याद रहती है। उनका मानना था कि हमें अपने अखबार में स्वयं से संबंधित समाचार या फोटो नहीं छापना चाहिए। यानि आप किसी कार्यक्रम में बतौर अतिथि या मुख्य अतिथि हों, मंच पर आसानहो या माइक पर बोल रहे हो अथवा आपकी कोई व्यक्तिगत उपलब्धि हो तो उसका कवरेज उस समाचारपत्र में जहां आप कार्यरत हो, नहीं होना चाहिए।

दूसरे अखबार छापे तो ठीक न छापे तो उनकी मर्जी। यह आदर्श पत्रकारिता की एक और बानगी थी जिसका मकसद आत्मस्तुति से बचना व प्रचार से दूर रहना था। उनका कहना था अखबार लोगों के लिए होता है, पाठकों के लिए, उनकी खबरों के लिए अत: यदि आप अपने अखबार में अपनी ही खबर छापे तो यह ठीक न होगा, पाठक वर्ग इसे अच्छी दृष्टि से नहीं देखेगा। पत्रकारों का काम खबरें देना है, खुद खबर बनना नहीं। ललित जी की इस सोच के अनुसार देशबन्धु में इसका पालन होता रहा। लेकिन यह आदर्श स्थिति समय के साथ क्षरित होती गई। क्योंकि पत्रकारिता का स्वरूप बदल रहा था।

यकीनन बदलते परिदृश्य में उन्हें भी अंततः इस विचार के साथ समझौता करना पडा। चूंकि वे साहित्यिक थे तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक सभा समारोह में उनकी उपस्थिति रहती थी अतः स्वाभाविक रूप से उसका कव्हरेज अखबारों में अपेक्षित रहता था लेकिन स्थानीय समाचार पत्र इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे और न ही सम्मानजनक स्थान देते थे। तब एक ही उपाय शेष रहता था, अपने ही अखबार में यथोचित खबर छापी जाए। देशबंधु भी यही करने लगा।

ऐसे कार्यक्रमों में जिसमें ललित जी भी उपस्थित रहते थे, विस्तार से कव्हरेज किया जाने लगा। जबकि अन्य पत्र इसकी जरूरत नहीं समझते थे। केवल ललित जी ही नहीं खबरों में पत्रकारों की सामाजिक उपस्थिति की उपेक्षा का चलन शुरू हो गया। मजे की बात यह है कि मीडिया में यह स्थिति मालिकों या संचालकों की ओर से निर्मित नहीं है। खुद पत्रकार ही तय करते हैं कि बिरादरी के किसी माणुस से संबंधित समाचार को अपने अखबार में स्थान देना है या नहीं , या देना भी है तो औपचारिकता निभाने जैसा ताकि सनद रहे कि समाचार कवर किया गया है।

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