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#between naxal and force सलवा जुड़ूम : कोया कमांडो का वह दौर और मुठभेड़, हत्याएं… बाहरी बनाम स्थानीय मीडिया की वह दास्तां…

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  • सुरेश महापात्र।

इस तरह से धीरे—धीरे समूचा दक्षिण बस्तर युद्ध क्षेत्र में तब्दील होता चला गया जहां वर्ग संघर्ष तो चल ही रहा था। पर बेशकीमती जान केवल एक ही वर्ग गवांता नजर आने लगा… से आगे (8)

सलवा जुड़ूम शुरू होने के बाद दक्षिण बस्तर के बीजापुर से लेकर कोंटा तक वारदातों का दौर शुरू हो गया। पुलिस रिकार्ड में अकेले 2006 में करीब 50 और 2007 में करीब दो दर्जन से ज्यादा घटनाओं में सैकड़ों की तादात में मौतें दर्ज हैं। इन मौतों में दोनों तरफ से 99 फीसद केवल आदिवासी ही मारे गए हैं। माओवादियों ने सलवा जुड़ूम का समर्थक कहकर और मुखबिरी के आरोप में मारा तो… सलवा जुड़ूम की प्रतिहिंसा का शिकार भी ज्यादातर आदिवासी ही हुए। कई ऐसे मामले दर्ज किए गए जिसमें मुठभेड़ के नाम पर ग्रामीणों की मौतें दर्ज कर ली गईं और उन्हें माओवादी घोषित भी कर दिया गया। सैकड़ों घर फूंक दिए गए। यह बताने वाला कोई नहीं कि जिन झोपड़ियों को फूंका गया उस सलवा जुड़ूम विरोधी माओवादियों की नजर लगी या माओवादी विरोधी अभियान सलवा जुड़ूम की…

शुरूआती रैलियों के बाद सलवा जुड़ूम का आकार और प्रकार दोनों साफ तरह से बदल गया। अब यह पूरी तरह से सरकार के संरक्षण में संचालित होने वाले अभियान का हिस्सा बन चुका था। जिसमें अब पर्दे के पीछे सरकार खड़ी थी। सलवा जुड़ूम की सुरक्षा के लिए बड़ी संख्या में फोर्स साथ चलती। सलवा जुड़ूम जिड़िता—जिड़िता के नारों के अनुगूंज के साथ भीड़ चलती… इस भीड़ में महेंद्र कर्मा के करीबी स​मर्थक बेहद उत्साहित नजर आते… साथ में राहत शिविरों में रह रहे आदिवासी अपने परंपरागत हथियार गंडासा, टंगिया और तीर—धनुष के साथ उसे इस उम्मीद से हवा में लहराते मानों अब आजादी का नया दौर शुरू हो रहा हो…

दक्षिण बस्तर में सलवा जुड़ूम के बाद एसपीओ बनने वाले ज्यादातर युवा आदिवासी ही रहे। इसी में से तेज आदिवासी युवा कोया कमांडो के तौर पर काम करने लगे। यानी अब इन इलाकों में दोनों तरफ से हथियार बंद एक तरह के युद्ध का हिस्सा बन चुके थे।

सलवा जुड़ूम के दुष्प्रभाओं में यह सबसे बड़ा रहा कि अब अंदरूनी इलाकों में प्रशासन की दखल कम होने लगी। पंचायतें जनपद मुख्यालयों में शिफ्ट कर दी गईं। राशन दुकान और स्कूल का संचालन कैंप स्तर पर कर दिया गया। अंदर के गांवों में संचालित स्कूल बंद कर दिए गए। इसके बाद उन स्कूलों की दीवारों पर माओवादियों ने अपना नारा चस्पा कर दिया… पक्के भवन ढहा दिए गए… इससे साफ तौर पर दो बस्तर दिखने लगे। अंदर काम पर जाने से लोग कतराने लगे। जो इसके बाद भी अंदरूनी इलाकों में सहज थे वे पुलिस और माओवादी दोनों के निशाने पर रहे।

हर जगह पर हादसों की नई इबारत दर्ज होने लगी। हर कोई अपने हिस्से का सच जानना और सुनना चाहता। कोई भी दूसरे पक्ष के हिस्से के किसी भी सच से इत्तेफाक रखना ही नहीं चाहता। पुलिस ने सलवा जुड़ूम की ओर से होने वाले अपराधों पर आंखे मूंद ली… हत्या और प्रतिशोध का फसाना गढ़ा जाने लगा। पर ऐसे मामलों पर अब एनजीओ की नजर तेज होने लगी। वे बाहरी मीडिया को बुलाकर दिखाते और बताते… अब तक राष्ट्रीय मीडिया में सलवा जुड़ूम को लेकर आने वाली हेड लाइन बदलने लगी… जुड़ूम की हिंसा ने इस मीडिया पर अपनी जगह बना ली… माओवादियों की ओर से प्रेस विज्ञप्ति जारी होते ही उसे बड़ा स्पेस मिलने लगा।

अब बस्तर में मीडिया के भी हिस्से हो गए। माओवादी समर्थक और सलवा जुड़ूम सम​र्थक! इन सबके बीच भी कई ऐसे पत्रकार रहे जो चाहते थे कि अंदर की खबरें भी पूरी ईमानदारी के साथ बाहर आए। मीडिया को अपने हिस्से का काम करने दिया जाए। इसमें सबसे बड़ी बाधा पुलिस ने खड़ी करना शुरू कर दी। पत्रकारों के फोन टेप किए जाने लगे।

मीडिया के लिए यह दौर सबसे ज्यादा भयाक्रांत करने वाला रहा। मीडिया साफ देख रही थी कि एसपीओ हथियार मिलने के बाद बेहद आक्रामक हो गए थे। बीजापुर और कोंटा इलाके के प्रवेशद्वार पर एसपीओ का नाका लग चुका था। पहरेदारी की आड़ में एसपीओ अब इन रास्तों से चलने वाले यात्रियों का सामान चैक करने के बहाने बद्तमीजी करने लग गए। वे किसी भी यात्री पर कभी भी किसी भी बात को लेकर बंदूकें तान देते… जिलों में बैठे पुलिस के आला अधिकारी से उनका सीधा संपर्क होने लगा… कई बार तो एसपीओ ने सीधे एसपी से बात कर किसी भी वाहन को जांच के नाम पर घंटों फंसाए रखा। यात्रियों के साथ इस तरह की घटनाएं होने लगी कि राष्ट्रीय राजमार्ग के एक ही सड़क पर कुछ फासले में एसपीओ और माओवादियों के नाकों की जांच प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ा।

यदा—कदा इस मार्ग पर रात के समय माओवादी पेड़ काटकर रास्ता बाधित कर देते और कई बार यात्री बसों को सुबह तक बस में इंतजार करना पड़ा… बुलंद हौसलों से लैस एसपीओ अब इस अतिसंवेदनशील इलाके में प्रथम पंक्ति के योद्धा बन चुके थे। पेड़ काटकर डालने की सूचना के बाद एसपीओ का दल उसके पीछे अर्धसैनिक बल की एक टुकड़ी और जिला पुलिस के एक—दो सदस्य रोड ओपनिंग के लिए निकलते। तब तक माओवादियों का काम हो चुका होता था। इस टुकड़ी के पहुंचते तक माओवादी जंगल के भीतर गुम हो चुके होते… अब वे ग्रामीण बनकर अपना काम करने लगते…! यानी यह लुका—छिपी का खेल चल रहा था…

अब एसपीओ के कुछ चिन्हित ग्रुप बना दिए गए। इन समूहों को अलग—अलग नाम दिया गया। नेतृत्व करने वाले एसपीओ के नाम पर बनाए गए ग्रुप से एसपी अब सीधे बात करते थे। उन्हें सीधे गाइड करते और उनसे सीधी सूचनाएं हासिल करते… एसपीओ के इन टुकड़ियों को कोया कमांडो का नाम दे दिया गया। कोंटा इलाके के दुर्गम स्थानों से आत्मसमर्पित माओवादी और तेज तर्रार आदिवासी युवा इन कमांडों के तौर पर दर्ज किए गए। एक प्रकार से इन्हें अपनी तरह से सर्चिंग आपरेशन आपरेट करने के लिए स्वतंत्र भी कर दिया गया…

ये आपरेशन में निकलते और मुठभेड़ का दावा करते। माओवा​दी भी इन कोया कमांडो से भय खाने लगे। उनके अपने इलाके के वे युवा जो चप्पे—चप्पे से वाकिफ थे और माओवादियों की टेक्टिस की गहरी समझ रखते थे वे अब सीधे युद्ध के लिए ललकारने लगे।

ऐसा नहीं है कि कोया कमांडों की सारी कार्रवाई गलत ही रही हो। क्योंकि एसपी को भी जवाब देना ही होता था। ऐसी ही एक घटना 8 जनवरी 2009 की है जब कोंटा इलाके के अधीन सिंगारम गांव में कथित तौर पर एक मुठभेड़ में 19 माओवादियों के मारे जाने का दावा कोया कमांडो के कहने पर पुलिस ने किया।

इस दौरान भी वही राहुल शर्मा पुलिस अधीक्षक थे जिनके दौर में ताड़मेटला और उर्पलमेटा में करीब 40 जवान एंबुश का शिकार हो गए थे। उर्पलमेटा के बाद एसपी राहुल शर्मा ने ही कोया कमांडो की तीन टीमें बना दी। जिसमें एक का नेतृत्व इस्माइल और दूसरे का सूर्या एसपीओ कर रहे थे। ऐसे ही एक कोया कमांडो समूह का आपरेशन सिंगारम इलाके में संचालित किया गया।

सर्चिंग टीम दो—तीन दिनों तक जंगल के भीतर कांबिंग आपरेशन में रही। इसके बाद बाहर खबर आई कि सिंगारम गांव के करीब एक माओवादियों के कैंप पर अटैक किया गया। जिसमें 19 माओवादी मारे गए। इस घटना के तत्काल बाद मुठभेड़ के फर्जी होने की बातें बाहर आईं। तब कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया हाउसेस ने इस मामले को उठाया। जिसमें न्यूयार्क टाइम्स ने भी 19 ग्रामीणों की मुठभेड़ के नाम पर हत्या की खबर उठाई।

इसी मामले को लेकर स्थानीय मीडिया और राष्ट्रीय मीडिया में भी खबरें आने लगीं। एसपी राहुल शर्मा ने तब तहलका से चर्चा करते दावा किया ‘दंतेवाड़ा में 40 फीसदी नक्सलियों का कब्जा है और 20 फीसदी पर कब्जा करने के लिए कड़ा संघर्ष कर रहे हैं। सरकारी अनुमान मानते हैं कि 2005 में सलवा जुडूम के गठन के बाद से नक्सलियों की संख्या 20 गुना बढ़ गई है। 2007 में नक्सलियों ने 300 को जेल से छुड़ाया था. उन्होंने उस वर्ष 52 पुलिसकर्मियों और 30 एसपीओ को भी मार डाला।’

न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित रिपोर्ट में इसी गांव के 20 साल के देवा कहते हैं,’मुझे डर है कि वे अब मेरे पीछे आएंगे।’ उनका कहना है कि ‘बैराज से भागते समय एक गोली उनके दाहिने हाथ में लगी।’

इस रिपोर्ट में लिखा है कि ‘8 जनवरी को जो कुछ हुआ उसके बारे में देवा का कहना है: पुलिस ने 24 आदिवासी ग्रामीणों को घेर लिया, उन्हें बताया कि वे पूछताछ के लिए एक स्टेशन जा रहे हैं, फिर उन्हें रास्ते में फांसी के लिए लाइन में खड़ा किया गया। देवा समेत पांच फरार हो गए। देवा के मुताबिक उसके दाएं हाथ में गोली लगी थी।’

इसी रिपोर्ट में पुलिस अधीक्षक राहुल शर्मा ने दावा किया ‘यह एक बहुत ही वास्तविक मुठभेड़ थी, कोई पुलिसकर्मी नहीं मारा गया, उन्होंने कहा, देवा का नाम लिए बगैर कहा ‘लेकिन एक ने ग्रेनेड से छर्रे अपने हाथ में ले लिए।’

इस मामले ने तूल पकड़ना शुरू किया। बहुत तेजी से कथित तौर पर सिंगारम मुठभेड़ की मौतों ने हत्या के आरोप का शक्ल ले लिया। सरकार और पुलिस प्रशासन पूरी तरह घिर गया। इस दौर में बस्तर की मीडिया का हाल एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई जैसा ही रहा। सच जानना बेहद कठिन और इस मसले पर बाहरी ​मीडिया की खबरों के बाद ही स्थानीय मीडिया ने खबरें उठानी शुरू की।

इस घटना के बाद कोंटा विधायक कवासी लखमा सीधे सलवा जुड़ूम के खिलाफत में उठ खड़े हुए। उन्होंने सिंगारम का मोटर साइकिल से दौरा किया और इस मामले में साफ कहा कि मारे गए लोग आम नागरिक हैं। इसकी जांच की मांग भी उन्होंने उठाई।

इसी मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट की वकील वृंदा ग्रोवर ने याचिका दायर की। वनवासी चेतना आश्रम कंवलनार इस मामले को लेकर सीधे सामने खड़ा हो गया। इसके कर्ताधर्ता हिमांशु कुमार जिनका संबंध दिल्ली के साथ देश के प्रमुख स्वयं सेवी संगठनों से है उन्होंने इस मामले को लेकर बाहरी मीडिया को स्थानीय हकीकत की जानकारी दी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एफआईआर के आदेश दिए।

माओवादियों ने 10 अप्रैल 2009 को दंतेवाड़ा जिले के चिंतागुफा में सीआरपीएफ की टुकड़ी पर घात लगाकर हमला किया। इस हमले में  एक एसआई और 10 सुरक्षाकर्मी मारे गए। इसके बाद राहुल शर्मा का तबादला कर दिया गया।

जेएनयू में पढ़े लिखे राहुल शर्मा काफी सुलझे हुए अफसर रहे। पर वे सिंगारम मामले में पूरी तरह घिर चुके थे। वे आखिर तक यह दावा करते रहे कि मारे गए ग्रामीण माओवादी ही थे। पर मुठभेड़ के हालात को देखते हुए यह साफ होने लगा था कि इसमें सीधे लाइन में खड़ाकरने के बाद कोया कमांडो ने गोलियां चलाकर हत्या कर दी थी।

इसी तरह के कई मामले होते रहे। बाहरी दखल से मामला भले ही दर्ज हो गया हो पर न्याय मिला हो यह देखना व समझना कठिन ही है। इस इलाके में मुठभेड़ और मौतों की कई कहानियां लोगों की जुबां पर है। पर कुछ ऐसी घटनाएं भी हैं जिन्होंने सिक्योरिटी फोर्सेस की काबिलियत पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया।

राहुल शर्मा की जगह अब तेज तर्रार युवा पुलिस अधिकारी अमरेश मिश्रा की पदस्थापना दंतेवाड़ा में हो गई। सलवा जुड़ूम के बाद बिगड़ी हुई परिस्थितियों में किसी पुलिस अफसर का तेज तर्रार होना… दोनों ही तरह से खतरे का संकेत साबित हुआ। (9) …आगे पढ़ें

क्रमश:

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