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#between naxal and force राहत शिविर और फोर्स पर ताबड़तोड़ हमलों से सलवा जुड़ूम को लगने लगा झटका…

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  • सुरेश महापात्र।

वे हमले के दौरान चढ़ाई में उपयोग करते और हमले में किसी साथी की मौत होती तो उसे उसी सीढ़ी में उठाकर चले जाते। (7) आगे पढ़ें…  

बीजापुर इलाके में सलवा जुड़ूम के प्रभाव को देखते हुए इसके सुकमा—कोंटा इलाके में विस्तार की घोषणा नेतृत्वकर्ता महेंद्र कर्मा ने कर दी। उनकी घोषणा के बाद कर्मा समर्थकों ने सबसे पहले दोरनापाल से कोंटा तक रैली निकाली। इस रैली में राष्ट्रीय राजमार्ग से सटे गांवों के लोगों को माओवादियों का साथ छोड़ने और शांति का पक्ष लेने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया।

वहां भी बीजापुर जैसे हालात बनने लगे। जिन गांवों से सलवा जुडूम की रैली गुजरती या तो वहां पहले से ही सन्नाटा पसर जाता या जो लोग रह जाते उन्हें मजबूरी वश रैली का साथ देना होता। यहां बीजापुर से ज्यादा तेजी से गांव विरान होने लगे। सड़क के एक ओर सबरी का प्रवाह और दूसरी ओर माओवादियों का केंद्रीय इलाका। यहां दोरनापाल से कोंटा के बीच चार शिविर बनाए गए। लोगों को बीजापुर जैसे हालात का सामना करना पड़ा।

माओवादियों ने 6 फरवरी 2006 को छत्तीसगढ़ में दो अलग-अलग हमलों में नागालैंड सशस्त्र पुलिस (एनएपी) के 10 सहित 13 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी। कोंटा से गोलापल्ली मार्ग में बारुदी विस्फोट कर माओवादियों ने नागा जवानों से भरे इस वाहन को उड़ा दिया था। यह इसक इलाके में यह पहला अटैक था। जिसमें सीआरपीएफ से इतर किसी दूसरी फोर्स को माओवादियों ने निशाने पर लिया था। बस्तर में सलवा जुड़ूम के बाद बदल हुए हालात में नागालैंड की नागा बटालियन और मिजोरम की मिजो बटालियन को बीजापुर और कोंटा के अंदरूनी इलाकों में तैनात किया गया था।

इसी बीच 16—17 जुलाई 2006 की दरमियानी रात को माओवादियों ने सुकमा इलाके के एर्राबोर राहत शिविर में हमला कर दिया। सुनियोजित तरीके से उन्होंने राहत शिविर के चप्पे—चप्पे को आग में झोंक दिया। इससे पहले माओवादियों ने चिन्हांकित लोगों को निकाला और गोलियों से भून दिया। इस हमले के बाद माओवादी 20 ग्रामीणों को बंधक बनाकर अपने साथ ले गए। साथ ही  वो सुबह जब भी जहन में आती है, रूह कांप जाती है। 

नक्सलियों ने एर्राबोर शिविर के घरों में आग लगा दी थी। लोगों को दौड़ा-दौड़ाकर मारा। कुल 33 लोगों की हत्या इस घटना में दर्ज हैं। तब सलवा जुडूम मिशन के तहत एर्राबोर में लेन्ड्रा, मरईगुड़ा, कोत्तरव आदि अंदरुनी गांव से लोगों को शिविर में सुरक्षा के दृष्टिकोण से रखा गया था। पहले लोग गांव छोड़कर निकले जिससे वहां भीड़ बढ़ गई। इसे कैम्प बना दिया गया। इस घटना में ज्यादातर लोगों के घर जलकर राख हो चुके थे।

यह हमला भी सलवा जुड़ूम के खिलाफ माओवादियों का प्रतिरोध रहा। जिसमें उन्होंने उनका साथ छोड़ने वालों को सीधे तौर पर निशाना बनाया। बीजापुर जिले के बाद सलवा जुड़ूम के नेता के तौर पर महेंद्र कर्मा ने कोंटा इलाके में इस अभियान को शुरू कर दिया था। इससे बस्तर का दक्षिण हिस्सा कोंटा और पश्चिम हिस्सा बीजापुर पूरी तरह से युद्धग्रस्त क्षेत्र में तब्दील हो गया।

जगरगुंडा थानेदार हेमंत मंडावी की ट्रेपिंग

इसी दौरान दोरनापाल से जगरगुंडा तक रास्ता को खोलने के लिए जगरगुंडा के थानेदार हेमंत मंडावी ने तेजी से प्रयास किया। ग्रामीणों को लेकर वे चिंतलनार के करीब तक पहुंच चुके थे। रास्ते के गढ्ढों का पाटने और बड़े वाहनों के आवाजाही के लिए रास्ता बनाने का काम कर रहे थे। दरअसल जुलाई 2004 के बाद माओवादियों ने इस इलाके को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया था।

दंतेवाड़ा जिले का अरनपुर से जगरगुंडा मार्ग घाट के सामने से ही बंद कर दिया। अरनपुर के मुहाने में सीआरपीएफ का कैंप लगा दिया गया। ताकि माओवादी नीचे से उपर ना आ सकें। यही वजह थी कि दोरनापाल से जगरगुंडा के रास्ते को जल्द से जल्द अपने कब्जे में लेना जरूरी था। 

चूंकि सलवा जुडूम के बाद साप्ताहिक बाजार बंद कर दिए गए। कैंप में लोगों के लिए राशन पहुंचाने के लिए रास्ते का ठीक होना जरूरी था। हेमंत मंडावी और उनके साथ सात जवानों को चिंतलनार से पहले लक्ष्मीपुरम मार्ग के तिराहे के पास माओवादियों ने एंबुश में फंसा ही दिया। यह इलाका भी ताड़मेटला से सटा ही हुआ है।

माओवादियों के कोर इस ठिकाने में आम आदमी और माओवादी पर अपना फैसला कर पाना असंभव है। चूंकि इसी इलाके चिंतलनार को माओवादियों ने अपनी दंडकारण्य राज की राजधानी घोषित कर रखी थी। सो इसकी चुनौति को सरल तरीके से समझा जा सकता है। यहां भी देर शाम तक लापता जवानों की कोई जानकारी नहीं मिल सकी। दूसरे दिन फोर्स के साथ सर्चिंग अभियान में हेमंत मंडावी समेत 10 जवानों के शव बरामद किए गए।

2004 में वह छत्तीसगढ़ पुलिस में सब-इंस्पेक्टर बने हेमंत मंडावी की पहली पोस्टिंग कोरबा में हुई। 2006 में उनका तबादला बस्तर रेंज में हो गया। दंतेवाड़ा में तैनात होने के बाद हेमंत मंडावी के नेतृत्व में एक माओवादी शिविर पर जबरदस्त हमला किया गया। इसमें तीन माओवादी मारे गए थे। माओवादियों के कैंप से भारी मात्रा में दैनिक जरूरत का सामान फोर्स ने बरामद किया था। तब दंतेवाड़ा में ओपी पॉल एसपी के तौर पर पदस्थ थे। इसके बाद 6 अप्रेल 2007 को एसपी के तौर पर राहुल शर्मा पदस्थ हुए।

हेमंत मंडावी को प्रमोशन देकर जगरगुंडा पुलिस स्टेशन में इंस्पेक्टर बना दिया गया। कथित तौर पर अगस्त 2007 में हेमंत ने एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और जगदलपुर रेंज के प्रमुख से अपने तबादले के अनुरोध के संबंध में मुलाकात की। लेकिन हेमंत अपनी कार्यशैली के चलते टापू में तब्दील हो चुके जगरगुंडा के लोगों लिए वे उम्मीद बन चुके थे। इसलिए गांववालों ने उनसे अनुरोध किया कि वह अपना तबादला न कराएं।

हेमंत मंडावी लगातार जगरगुंडा को दोरनापाल से सड़क संपर्क के लिए क्रियाशील रहे। वे चाहते थे कि अगली बारिश से पहले जगरगुंडा का सीधा और सतत संपर्क दोरनापाल से हो जाए। करीब दो हफ्ते तक इस मार्ग पर वे लगातार ग्रामीणों को लेकर पहुंचते और सुरक्षा बलों के साथ सड़क का काम करवाते रहे। 29 अगस्त 2007 को हेमंत के नेतृत्व में एसपीओ और ग्रामीणों के साथ सुरक्षा कर्मियों का एक समूह चिंतलनार और दोरनापाल के बीच सड़क के निर्माण की देखरेख कर रहे थे। इसी बीच ताड़मेटला के पास उन्होंने दो संदिग्ध ग्रामीणों को देखा। वापस लौटने की बजाय वे उनका पीछा करने के लिए अंदर की ओर चले गए।

देर शाम दंतेवाड़ा में खबर पहुंची कि जगरगुंडा थानेदार हेमंत मंडावी के साथ 10 अन्य सुरक्षाकर्मी चिंतलनार से पहले माओवादियों का पीछा करते हुए लापता हो गए हैं। दूसरे दिन सुबह एसपी राहुल शर्मा के साथ मैं भी स्पाट रिपोर्टिंग के लिए निकल गया। हम सुबह करीब 10 बजे चिंतलनार से ताड़मेटला की ओर जाने वाले तिराहे के पास पहुंचे। वहां से अंदर की ओर घना जंगल था। एरिया ट्रेस करने के लिए कुछ उपकरण लाए गए थे। राहुल शर्मा अपने साथ सैटेलाइट फोन लेकर चल रहे थे।

सुरक्षाबल जंगल के भीतर सर्चिंग आपरेशन चल रहे थे। हम सभी को वहीं सड़क पर रोके रखा गया था। इस दौरान सुकमा के भी मीडियाकर्मी वहां पहुंचे हुए थे। करीब दो घंटे के बाद बाहर जानकारी आई कि जंगल के अंदर थोड़ी ही दूरी पर हेमंत मंडावी समेत सारे जवान माओवादियों के हाथों ट्रेप हो गए थे। इसे ताड़मेटला 01 के नाम से दर्ज किया गया है।

हम सभी अंदर पहुंचे दृश्य देखकर दिल दहल उठा था। माओवादियों ने हेमंत मंडावी के लिए सड़क की ओर जाल बुनने के बाद चारा भेजा था। जिन दो संदिग्ध का पीछा करते अतिउत्साहित हेमंत मंडावी जंगल के भीतर घुसे थे वे अंदाजा ही नहीं लगा सके कि अंदर एक भयंकर चक्रव्यूह बुना गया है जहां से बचकर निकल पाना असंभव है। जंगल के भीतर एक खाली जगह के किनारे मचान बना हुआ था। जैसा किसान अपने खेतों में पकी फसल को बचाने के लिए तैयार करते हैं।

इसके सामने एक करीब पांच फीट गहरा और तीन फीट चौड़ी नाली नुमा जगह जिसकी लंबाई करीब 35 फीट रही होगी। यह भी तैयार की गई थी। मैदान के चारों तरफ बड़े—बड़े पेड़ जिसमें ट्रेप में फंसते ही गोलियां बरसाने की पूरी तैयारी की गई थी। साफ समझ में आ रहा था जैसे ही हेमंत मंडावी के साथ सारे जवान भीतर पहुंचे ताबडतोड़ फायरिंग खोल दी गई। यकायक फायरिंग में फंसी पुलिस पार्टी ने जान बचाने के लिए सीधे उसी नाली का सहारा लिया। इसके बाद वहां से उन्होंने मोर्चा संभालकर फायरिंग भी की… पर यह नाली भी तो उसी ट्रेप का हिस्सा रही… हेमंत मंडावी समेत करीब आठ जवान इसी गहरी नाली में मृत पाए गए। घटना स्थल पर कई पेड़ों पर जिनमें हथियारबंद माओवादी मोर्चा संभाले हुए थे वहां गोलियों के निशान यह भिड़ंत की कहानी बयां करते दिखे… घटना के बाद करीब 20 घंटे बीत चुके थे सो डेड बॉडी फूलने लगी थी।

अब सबसे बड़ी चिंता यह रही कि कहीं माओवादियों ने मृत जवानों के देह के नीचे प्रेशर बम प्लांट ना कर दिया हो! इसके लिए थोड़ी देर तक बाहर से ही देखा गया। इसके बाद मृत जवानों के शरीर को मोटी रस्सी बांधकर खिसकाया गया। ताकि यह स्पष्ट हो सके कि अब कोई खतरा नहीं है। फिर जवानों के शव निकाले गए। इस तरह की यह पहली एंबुश थी जिसमें हेमंत और उसकी टीम शिकार हो गई।

अर्पलमेटा में माओवादियों के हेमंत वाली ट्रेपिंग से फंसे सीआरपीएफ के जवान

इसी इलाके में अर्पलमेटा (गगनपल्ली का अंदरूनी इलाका) यहां 2007 में कोयाकमांडो और सीआरपीएफ के जवान सर्चिंग आपरेशन में माओवादियों के एंबुश का शिकार हो गए। देर शाम तक यह पता नहीं चल सका कि जवान किस हालत में हैं।

देर शाम खबर आई कि सीआरपीएफ के जवान सर्चिंग पर निकले थे जो मिसिंग हैं। इसके बाद देर रात तक जवानों की पता साजी करने की कोशिश की गई। इन जवानों के साथ एसपीओ का दल भी चल रहा था जिसमें इस्माइल और सूर्या भी शामिल थे। इन दल ने बाद में बताया कि माओवादियों के इस झांसे में बचने की सलाह उन्होंने दी थी जिसे नहीं माना गया।

इस इलाके में सलवा जुड़ूम के बाद जो युवा एसपीओ नियुक्त किए गए थे। उनमें इस्माइल और सूर्या काफी तेज थे। ये इलाके के चप्पे—चप्पे से वाकिफ थे। माओवादियों की टेक्सिस भी समझते थे। पर उनके बैक सपोर्ट के बाद भी 28 जवान मारे जा चुके थे। एसपीओ का दल जैसे—तैसे अपनी जान बचाकर जंगल के रास्ते सुरक्षित लौट सका था। देर रात एसपीओ का दल लौटने के बाद जंगल के अंदर के हालात की जो जानकारी बाहर आई उसने पूरी सरकार को सकते में डाल दिया था। एसपीओ के दल ने दावा किया कि इस मुठभेड़ में 12 से ज्यादा माओवादी मारे गए हैं। सुरक्षा के तमाम दावे झूठे साबित हुए। इस एंबुश में सीआरपीएफ के 28 जवान शहीद हो गए। 

मुठभेड़ के दूसरे दिन अलसुबह वृहत सर्चिंग आपरेशन चलाया गया। जिसका नेतृत्व स्वयं एसपी राहुल शर्मा कर रहे थे। पत्रकारों का दल भी इस दौरान सर्चिंग पार्टी के साथ मुख्यमार्ग से करीब 5 किलोमीटर अंदर गगनपल्ली तक पहुंचा था। उसके आगे फोर्स ने सुरक्षा कारणों से मीडिया को रोक दिया।

सर्चिंग आपरेशन के दौरान भी माओवादियों द्वारा फायरिंग की गई। पर वे फायरिंग करते हुए जंगल के भीतर लौट गए थे। माओवादी उनका हथियार और सामान लूटकर ले गए। इस हमले में मारे गए जवानों के जूते, बेल्ट और वर्दी समेत घड़ी व पर्स जैसे सामान नक्सली निकाल कर ले गए थे।

देर रात को बड़ी कठिनाई से शहीद जवानों का शव बरामद कर लाया जा सका। शहीद जवानों के शवों को करीब 10 किलोमीटर पैदल कांधे पर लेकर आधी रात के करीब एसपी राहुल शर्मा के साथ दल वापस लौट सका था। इस मुठभेड़ में भी माओवादियों की वही टेक्टिस दिखी जिसमें उन्होंने अपने लिए चारा डालकर सर्चिंग में निकले जवानों को घेरे में फंसा लिया।

इन घटनाओं का प्रभाव यह रहा  कि कोंटा के अंदरूनी हिस्से में रहने वाले लोगों का संपर्क पूरी तरह से कटने लगा। सलवा जुड़ूम के विस्तार के बाद सबसे बड़ा दुष्प्रभाव कोंटा इलाके को झेलना पड़ा है। बीजापुर से ज्यादा खतरनाक परिस्थितियों से लोगों को जुझने की मजबूरी उत्पन्न हुई। आज भी हजारों की तादात में यहां के आदिवासी निकट के तेलंगाना में विस्थापित जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं।

जिस तरह से बीजापुर विधायक राजेंद्र पामभोई ने अपने इलाके में सलवा जुड़ूम का पक्ष नहीं लिया था बिल्कुल इसी तरह कोंटा विधायक कवासी लखमा मुखर होकर इस अभियान का विरोध में रहे। वे कभी भी ऐसे अभियानों ओर रैलियों के साथ खड़े ही नहीं हुए। (8)

इस तरह से धीरे—धीरे समूचा दक्षिण बस्तर युद्ध क्षेत्र में तब्दील होता चला गया जहां वर्ग संघर्ष तो चल ही रहा था। पर बेशकीमती जान केवल एक ही वर्ग गवांता नजर आने लगा… आगे पढ़ें

क्रमश:

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