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ब्रांडिंग, बॉन्डिंग और ब्रेनमेपिंग में भाजपा का कोई मुकाबला है ही नहीं… 2024 के बाद असल लड़ाई इ​तिहास बदलने की ही है…!

सुरेश महापात्र।

कहा ही जाता है प्यार और जंग में सब जायज़ है तो ऐसे में राजनीति को भी जंग के हिस्से मान लिया जाना ही सही होगा। राजनीति के जंग में अब राजनीतिक दल के हर पहलू का प्रभाव जनता पर पड़ता है। इसके लिए चाणक्य ने सूत्र वाक्य सदियों पहले ही दे दिया था। साम, दाम, दंड और भेद ये चार तत्व राजनीति के मौलिक हथियार हैं।

इसका उपयोग और दुरूपयोग ही राजनीति में परिणाम को प्रभावित कर सकता है। भारतीय जनता पार्टी को लेकर अब स्पष्ट तौर पर एक धारणा स्थापित हो गई है। इस पार्टी में अनुशासन का डंडा सर्वोच्च प्रभावकारी है। इस दल से निकलने वाला और शामिल होने वाला दोनों को इसका परिणाम पता है।

इस अनुशासन को बनाए रखने के लिए शक्ति के केंद्र की स्थापना 2014 के बाद नए रूप से की गई। इसी का परिणाम है कि अब यह तय करना कठिन है कि भाजपा ने राष्ट्रवाद के नाम पर छलावा किया या राष्ट्रवाद ही इसका पूर्ण सत्य है! भाजपा एक हिंदुधर्म प्रधान राजनीतिक दल है अथवा राजनीतिक लाभ के लिए हिंदुत्व का धार्मिक इस्तेमाल करती है!

भाजपा ने अपने इन तो तत्वों के सहारे राजनीति की एक धुरी गढ़ ली है। इस धुरी के भीतर किसी दूसरे राजनीतिक दल के लिए फिलहाल स्थान नहीं है। यदि कोई दल या व्यक्ति इस धुरी के भीतर रहकर राजनीति करना चाहता है तो उसे स्वत: भाजपा के पीछे खड़ा होना होगा! क्योंकि भाजपा के तत्वों के साथ राजनीति करने के लिए उसके पास फ्री स्पेस है ही नहीं!

यही वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की असली ताकत है। राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के आधार पर भाजपा ने बहुसंख्य जनमानस को अपने पक्ष में मनोवैज्ञानिक तौर पर जोड़ लिया है। अब इसे विरोधी राजनीतिक दल का छल कहें या प्रपंच, जो भी विशेषण दें इससे भाजपा के मनोविज्ञान से जुड़े लोगों को कोई फर्क पड़ता ही नहीं। इसमें स्पष्ट दृष्टिकोण है कि यदि उनके पक्ष का व्यक्ति है तो उसके लिए सहज स्वीकार्यता की मानसिकता बुनियादी तौर पर मजबूत कर दी गई है।

मसलन कल तक भाजपा के खिलाफ खुलकर बयानबाजी करने वाला यदि भाजपा में शामिल हो जाए तो उसके द्वारा अतीत में किए गए सारे उपक्रमों के लिए किसी भी तरह का विरोध समाप्त कर दिया गया है। इस समय में भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने वाले ज्यादातर लोगों के पुराने बयानों को देख लें तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि उनके पुराने बयानों का कोई मायने ही नहीं है। क्योंकि उन बयानों को लेकर भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि अब उनकी राजनीतिक विचारधारा ही बदल चुकी है तो अतीत के बयानों का अस्तित्व स्वत: समाप्त हो जाता है।

इसके बाद आप उनके भाजपा विरोधी बयानों को लाख सोशल मीडिया पर परोस दें भाजपा के समर्थकों को कोई फर्क ही नहीं पड़ता! इसके लिए भाजपा ने सबसे पहले संगठन स्तर पर काफी मेहनत किया। पार्टी में अनुशासन के लिए बुनियादी तौर पर जितनी मेहनत भाजपा ने की है उतना फिलहाज विपक्ष के प्रमुख दलों ने सोचा भी नहीं।

इस दौर पर संगठन के अनुशासन की बुनियाद पर भाजपा के पास सबसे बड़ी जनसेना है। ये सोशल मीडिया में बिना लाभ हासिल किए भी पार्टी का झंडा थामकर विपक्ष के लिए खुलकर अपनी बात कहने को भी तत्पर है। विपक्ष के ज्यादातर लोग इस बात से घबराए हुए हैं और वे भाजपा के खिलाफ खुलकर लिखने, बोलने से भी कतरा रहे हैं। यही भाजपा की मौजूदा दौर में सबसे बड़ी ताकत है।

इस समय जब चुनाव का बिगुल बज चुका है तब सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बाण्ड के बारे में ऐतिहासिक फैसला सुना दिया। सारे आंकड़े बाहर हैं। भाजपा की ओर से इलेक्टोरल बाण्ड को लेकर इंडिया टूडे के कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह का बयान ही सारे सोशल मीडिया प्लेटफार्म में तैर रहा है। जिसमें वे दावा कर रहे हैं कि इलेक्टेरोल बाण्ड का केवल छह हजार करोड़ भाजपा को मिला और 14 हजार करोड़ रूपया विपक्ष के पास गया है तो धांधली कहां है? चुनाव आयोग के द्वारा जारी किए गए एसबीआई के आंकड़े और अमित शाह के बयान में जो अंतर है उसे आप किस तरह से समझा सकेंगे? जनसेना ने यह मान लिया है कि अमित शाह ही सही हैं। वे इसी आधार पर इलेक्टोरेल बाण्ड को डिफेंड भी कर रहे हैं।

विपक्ष ने लगातार बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाने की कोशिश की कांग्रेस के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा, न्याय यात्रा जैसी यात्राएं निकाली। हर वर्ग से मिले और अपनी बात रखने की कोशिश की है। बावजूद इसके मेन स्ट्रीम मीडिया में विपक्ष की इस यात्रा को कोई स्थान ही नहीं मिला। जबकि इस यात्रा के दौरान कर्नाटक और तेलंगाना में भ्रष्टाचार का मुद्दा खड़ा हुआ और कांग्रेस को जीत हासिल हुई।

इसके बावजूद आम जनता इन मुद्दों को लेकर वैसी बेचैन नहीं हो रही है जिस तरह से 2011 से 2014 के बीच में देखने को मिली थी। दरअसल उस दौर में भारतीय मीडिया केंद्र सरकार के खिलाफ चल रहे आंदोलनों को और विशेषकर विपक्ष को पूरा स्पेस दे रहा था। लोगों तक सारी बातें चाहे वे गलत हों या सही सीधे पहुंच रही थी। इसकी बड़ी वजह भी यही थी कि तब जनमानस उद्वेलित था। इस समय राजनीतिक दल उद्वेलित हैं जनमानस तटस्थ सा दिखाई दे रहा है। आम जनता किसी भी तरह का बखेड़ा अपनी जिंदगी में नहीं चाह रही है।

2014 में केंद्र में सत्ता संभालने के बाद भाजपा ने सबसे पहले संगठन के स्तर पर नाकेबंदी शुरू की। चुनाव से पहले जिस तरह की ब्रांडिंग तकनीक का उपयोग किया था उसे सलीके के साथ नीचे तक अपने अंतिम कार्यकर्ता तक उतारने का काम किया। सरकार बनाने के बाद भाजपा को यह पता था कि लोगों की उत्कंठा ज्यादा है लोग परिणाम की चाहत में सत्ता परिवर्तन के लिए तैयार हुए हैं तो परिणाममूलक निर्णयों के साथ भविष्य की ओर दिखाना ही सही माध्यम होगा। 

इसके लिए आम जनों को लगातार उलझाए रखने का भी बड़ा दायित्व संगठन के हिस्से था। आप अब जब अतीत की ओर देखेंगे तो 2014 में सत्ता हासिल होने के बाद नरेंद्र मोदी को ब्रांड बनाकर भाजपा से बड़ा चेहरा बनाने का काम किया गया। लोगों को 2025 और 2027 तक के लक्ष्यों के साथ सेट किया गया। जब तक राज्यों में भाजपा या एनडीए का बहुमत हासिल नहीं हो जाता तब तक संसद से भाजपा को अपने मन मुताबिक फैसले लेने की स्थिति थी ही नहीं। क्योंकि राज्यसभा में एनडीए के आंकड़े मजबूत नहीं थे।

सत्ता हासिल होने के बाद हिंदुस्तान की मीडिया यकायक सत्तापरस्त होने लगी। मीडिया में असली बदलाव 2016 के बाद सामने आया। नोटबंदी के बाद मीडिया का एक बड़ा खेमा तटस्थता के सिद्धांत की जगह सत्तास्थता की ओर होने लगा। न्यूज चैनलों के भीतर बड़े बदलाव होने लगे पर यह आम जनता के नज़रों से बाहर रहा। 

यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि 2014 से लेकर 2024 तक भारतीय जनता पार्टी ने कई राज्यों में रातों रात अपने मुख्यमंत्री बदल दिए। मंत्रियों के चेहरे बदल दिए। हालिया विधानसभा चुनाव के बाद सारे नए चेहरों को मुख्यमंत्री बना दिया। कोई पहली बार विधायक बना हो या किसी के पास विधायक समेटने की ताकत भी ना हो। पर संगठन ने जिसे बता दिया वह मुख्यमंत्री बन गया।

इस समय भाजपा ने 103 मौजूदा सांसदों की टिकट काट दी है। दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकट दे दी गई। दूसरे दलों से आए नेताओं को मंत्री पद सौंप दिया। दूसरे दलों से आए नेताओं को मुख्यमंत्री बना दिया। इस सब घटनाक्रम के बावजूद भाजपा के भीतर संगठन की ताकत देखने लायक है। कहीं से कोई विरोध का स्वर नहीं है। कहीं किसी ने शिकायत नहीं की। यह भी तो चमत्कार के तौर पर जनता के सामने ही है। वहीं विपक्ष में जिन दलों के नेताओं को टिकट नहीं मिल रही है वे पार्टी छोड़कर जा रहे हैं और उसी पार्टी की खुलकर आलोचना कर रहे हैं जिनके सहारे लंबे समय तक पदों में बने रहे।

भाजपा सरकार की खामियों के बारे में भले ही विपक्ष तमाम सवाल खड़ा कर रहा हो। सच्चाई यही है कि मौजूदा दौर में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जिस तरह की भाजपा संगठनात्मक तौर पर तमाम दुनिया के सामने चुनौती बनकर खड़ी है। उसका विकल्प तो विपक्ष दे ही नहीं पा रही है। यह तथ्य भी जनता देख ही रही है। रही बता मीडिया की तो खबरों की मंडी में मीडिया की औकात सत्ता के खिलाफ खड़े होने लायक बची ही नहीं। जो भी सत्ता में रहेगा मीडिया उसी सत्ता के हिसाब से अपने चेहरे को तैयार रखेगी।

8 नवंबर 2016 में जब नोटबंदी की घोषणा की गई तो उसके बाद न्यूज चैनलों से लोगों को देखने को मिला कि आम जनमानस में किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है? यही वह समय था जब बुनियादी तौर पर मीडिया मैनेजमेंट को लेकर संभवत: एक राय बनी होगी! उसी के बाद चैनलों का स्वर धीमा होने लगा और न्यूज चैनलों में राष्ट्रवाद के स्वर का अभ्युदय हुआ।

सोशल मीडिया पर असल में 2017 के बाद बड़ा बदलाव आया। इसी साल जीएसटी को लेकर संविधान में बड़ा संशोधन किया गया। नोटबंदी के बाद जीएसटी दो बड़े कदम उठाए गए। नोटबंदी के लाभ—हानि को लेकर विपक्ष की ओर से शुरू की गई बहस को जनमानस ने एक प्रकार से नकार दिया। 

इस बीच वाट्सएप पर यकायक सच—झूठ का सैलाब सूनामी की तरह विस्तारित होने लगा। इतिहास को लेकर नई बहस पूरे देश में शुरू हो गई। वामपंथी और दक्षिणपंथी दो विचारधारा के मध्य भारत विभाजित होने लगा। राइटविंग और लेफ्ट विंग के बीच वैचारिक लड़ाई सतह पर साफ तौर पर दिखाई देने लगी।

न्यूज़ चैनलों ने इस वैचारिक लड़ाई को हिंदुस्तान के हर घर तक पहुंचाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। इसका नतीजा साफ था कि अब एक ओर राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे के साथ भाजपा खड़ी थी उसके साथ हिंदुत्व विचारधारा के समर्थक दलों का एक समूह भी खड़ा था और दूसरी ओर समूचा विपक्ष जिसमें ज्यादातर दलों पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोप लगे थे। 

देश का माहौल 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सीएजी की रिपोर्ट, कोल और कामन वेल्थ खेलों में घोटालों के साथ दागदार था। निर्भया कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंता से सराबोर आम जनमानस के भीतर बड़े बदलाव की आकंठ इच्छा का परिणाम भाजपा के लिए आसान राह बन चुकी थी।

बावजूद इसके पहले पांच साल के कार्यकाल के बाद आम चुनाव से पहले पांच राज्यों के परिणाम ने केंद्र की सत्ता को चिंता में डाल दिया। 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार में वापसी, तमाम कोशिशों के बाद भी दिल्ली में भाजपा का बुरी तरह पराजित होना, पश्चिम बंगाल में टीएमसी के खिलाफ तमाम हथकंडों के बाद भी सफलता हासिल नहीं होना, उत्तरप्रदेश में सपा का मजबूत होना, बिहार में आरजेडी और जेडीयू का तालमेल, महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ संबंधों का बिगड़ना, गुजरात में भाजपा के खिलाफ एंटी इनकंबैंसी फैक्टर का मजबूत होना और पंजाब में बिगड़ती राजनीतिक स्थिति ने केंद्र को चिंता में डाल दिया था।

इसी बीच 14 फरवरी 2019 को जम्मू—कश्मीर के पुलवामा में हुए एक आतंकी हमले ने पूरे देश को झकझोर दिया। इस हमले के बाद जवाब में एयर स्ट्राइक से बालाकोट में आंतकी कैंप पर हिंदुस्तानी सेना के हमले ने पूरे देश में राष्ट्रवाद की लहर को इतना बड़ा कर दिया कि अब चुनाव से पहले ही यह स्पष्ट था कि आम चुनाव में नरेंद्र मोदी लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनेंगे।बस इस हवा को बनाकर और बचाकर रखने की कोशिश करनी थी। इसके लिए भाजपा के आईटी सेल ने तगड़ा इंतजाम कर दिया। लोगों के दिलों दिमाग पर किसी दूसरी सोच के लिए अब जगह थी ही नहीं।

कितनी सरकारे टूंटी और कितनी बिखरी अब सब कुछ इतिहास है। पर एक राजनीतिक दल जो इस दौर में टूटा नहीं बल्कि जुड़ता और जोड़ता रहा वह रही भारतीय जनता पार्टी। यदि राजनीति में संगठन का अनुशासन और वैचारिक सहमति की सर्वोच्चता ही स्वीकार्य है तो फिलहाल यह गुण केवल भाजपा के भीतर ही देखने को मिल सकता है। इसके लिए कठोर संगठन स्तर पर मेहनत का परिणाम भी दिखाई दे रहा है। भाजपा ने केंद्रीय स्तर पर ना केवल स्वयं को अटूट रखा है बल्कि दूसरों को लगतार टूटता दिखाकर जनता के बीच उनके प्रति अविश्वास को स्थापित करने का प्रयास भी किया है।

विपक्ष की ओर से लगाए जाने वाले आरोपों के जवाब में भाजपा का स्थापित आईटी सेल इतना सक्रिय है कि वह तर्क—कुतर्क के सहारे विपक्ष की आवाज़ को धीमा कर देता है। चाहे मामला नोटबंदी के फैसले का हो या जीएसटी से होने वाली परेशानी का… सीधे जनता तक मैसेज के लिए वाट्सएप तकनीक का सबसे ज्यादा और उम्दा इस्तेमाल भाजपा ने ही किया है। 

पुलवामा अटैक के बाद हमले को लेकर उठाए जा रहे सवालों का जवाब भी आईटी सेल ने राष्ट्रवाद की आड़ में दिया। सवाल करने वालों को देशद्रोही और भारतीय सेना के विरोधी के तौर पर स्थापित करने की कोशिश ने सवालों को दबा दिया। जब भी विपक्ष ने किसी भी बड़े मुद्दे पर घेरने की कोशिश की आईटी सेल और मेन स्ट्रीम मीडिया ने विपक्ष पर ही सवाल उठा दिया। इसका परिणाम साफ रहा कि सत्ता के खिलाफ संवाद के सारे रास्ते जिनसे जनता तक विपक्ष का एजेंडा पहुंच सके उसका सारा ताना—बाना उधेड़ दिया गया।

अब सारा मसला आकर ईवीएम के उपयोग पर अटक गया है। राजनीतिक दलों के द्वारा ईवीएम के उपयोग को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। दिल्ली विधानसभा में बकायदा ईवीएम के फाल्ट का प्रदर्शन किया गया। भाजपा फिलहाल ईवीएम के मसले पर विपक्ष को ही घेरे में लेती रही है। 

क्योंकि हिंदुस्तान में होने वाले चुनाव में पूरे देश में जनादेश अलग—अलग तरह का है। किसी एक पैटर्न को सही या गलत नहीं कहा जा सकता। इस मामले में भी ईवीएम पर आरोपों को लेकर आईटी सेल का वाट्सएप ज्ञान ही लोगों तक पहुंच रहा है। यही वजह है कि इस मामले को लेकर राजनीतिक दलों के आरोपों को जनता का समर्थन नहीं मिल रहा है।

निर्वाचन आयोग के अनुसार ईवीएम का पहली बार उपयोग मई, 1982 में केरल के आम चुनाव में हुआ। हालाँकि, इसके उपयोग को निर्धारित करने वाले एक विशिष्ट कानून की अनुपस्थिति के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने उस चुनाव को रद्द कर दिया। इसके बाद, 1989 में संसद ने चुनावों में ईवीएम के उपयोग के लिए प्रावधान बनाने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन किया (अध्याय 3)। इसकी शुरूआत पर आम सहमति 1998 में ही बन सकी और इनका उपयोग तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में फैले 25 विधान सभा क्षेत्रों में किया गया।

इसका उपयोग 1999 में 45 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में और बाद में फरवरी 2000 में हरियाणा विधानसभा चुनावों में 45 विधानसभा क्षेत्रों में विस्तारित किया गया। मई 2001 में तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी और पश्चिम बंगाल राज्यों में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में सभी विधानसभा क्षेत्रों में ईवीएम का उपयोग किया गया था। तब से प्रत्येक राज्य विधानसभा चुनाव के लिए आयोग ने ईवीएम का उपयोग किया है।

2004 में लोकसभा के आम चुनाव में देश के सभी 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में ईवीएम (दस लाख से अधिक) का उपयोग किया गया था। 2004 में आम चुनाव में केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद पहली बार ईव्हीएम को लेकर सवाल उठाया गया था। भाजपा के नेता सकते में थे। वे सवाल उठा रहे थे कि केंद्र में अटल जी की सरकार अच्छा काम कर रही थी तो जनता का मूड कैसे बदल गया?

इसके बाद बात सन् 2009 की है। तब सत्ता में कांग्रेस थी और भाजपा कई राज्यों में चुनाव हार रही थी। उस वक्त भाजपा के पुरोधा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव आयोग से लेकर ईवीएम पर तमाम सवाल खड़े कर दिए थे। यही नहीं भाजपा नेता और मौजूदा सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव ने तो बाकायदा ‘इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से लोकतंत्र को खतरे’ पर एक किताब तक लिख डाली थी।

वक्त बदला और भाजपा सत्ता में आई तो कांग्रेस के सुर बदल गए। अब कांग्रेस से लेकर सभी विरोधी पार्टियां ईवीएम का विरोध कर रही हैं। यानी जो चुनाव हारता है वह सबसे ज्यादा आरोप इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर ही लगाना शुरू कर देता है। असम में भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी की गाड़ी में बरामद हुई ईवीएम के बाद एक बार फिर से इस प्रणाली पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं कि क्या ईवीएम सुरक्षित है या नहीं।

विपक्ष इस समय लोकतंत्र पर खतरा मंडराने और संविधान की मूल भावना के खिलाफ सत्ता के चरित्र को लेकर जनता के बीच अपनी पैठ बनाने में लगा हुआ है। मामला चाहे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित किए गए इलेक्टोरोल बाण्ड को लेकर हो या ईडी द्वारा विपक्ष के नेताओं के खिलाफ लगातार दर्ज मामलों में गिरफ्तारी के बाद सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल कर ट्रायल शुरू नहीं किए जाने को लेकर उठाया गया हो। विपक्ष केंद्र सरकार पर इलेक्टोरोल बॉण्ड के माध्यम से भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगा रहा है। ईडी और इनकम टैक्स विभाग द्वारा छापों के बाद कई कंपनियों द्वारा बॉण्ड खरीदी कर सत्तारूढ़ भाजपा को दिए जाने से सवाल और भी गंभीर होता दिखाई दे रहा है।

एसबीआई द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी काफी ना नुकुर के साथ भारी दबाव में बॉण्ड की सच्चाई इलेक्शन कमीशन को सौंपी यह सर्वविदित है। एसबीआई ने इसके लिए 30 जून 2024 तक का समय मांगा था। पर कोर्ट के दबाव के कारण कई हिस्सों में जानकारी तत्काल सौंप दी। इसके बावजूद जिस तरह से हिंदुस्तान में बॉण्ड को लेकर आईटी सेल ने जानकारी फैलाई है उससे आम जनमानस में सत्ता के खिलाफ सीधा जनाक्रोश दिखाई ही नहीं दे रहा है। 

यह सही मायने में भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा ब्रांडिंग का नतीजा है। ब्रांड भाजपा के सबसे बड़े चेहरे के सामने विपक्ष का कोई भी आरोप खड़ा नहीं हो पा रहा है। मेन स्ट्रीम मीडिया में करवाई जाने वाली बहसों को देखा जाए तो वे सारे मुद्दे गायब ही हैं जिनसे सत्तारूढ़ भाजपा की साख को चोट पहुंच सके!

मीडिया की इस भूमिका के पीछे की कहानी तो जब सामने आएगी तब सामने आएगी पर इसका सीधा प्रभाव भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में पड़ रहा है। धार्मिक आधार पर विशुद्ध तौर पर वैचारिक बंटवारा साफ दिखाई देने लगा है। राजनीतिक दल का धार्मिक तौर पर केंद्रीय भूमिका में स्थापित होना और चुनाव की निष्पक्षता पर संदेह का वातावरण निर्मित होना इस समय की बड़ी चुनौती है।

सोशल मीडिया में स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे कई पत्रकारों द्वारा मौजूदा सरकार पर जिस तरह के सवाल ​किए जा रहे हैं। वे सारे सवाल मेन स्ट्रीम मीडिया से पूरी तरह से गायब हैं। ऐसे सारे विषय जिनका संबंध मौजूदा सरकार की छवि के खिलाफ हो सकता है। वे खबरों से बाहर ही हैं। 

मीडिया के लिए मंडी लोकसभा क्षेत्र से भाजपा की घोषित प्रत्याशी कंगना रनौत के खिलाफ कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रमुख सुप्रिया श्रीनेत के हैंडल से की गई टिप्पणी प्राइम टाइम डिबेट में शामिल है। महिला आयोग ने इस पर चुनाव आयोग को कार्रवाई के लिए लिखा है। वहीं एक लोकगायिका नेहा सिंह राठौर के खिलाफ अपमानजन​क टिप्पणियों पर महिला आयोग की चुप्पी और मेन स्ट्रीम मीडिया का मौन वर्तमान का यर्थात है। 

मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार पर महिला आयोग की बेबसी और विपक्ष के नेताओं के खिलाफ मुखर महिला आयोग भी इस दौर की सच्चाई है। यानी सवाल मौजूदा दौर के संवैधानिक प्रतिष्ठानों की कार्यशैली पर भी है। इन सभी तथ्यों को बताने के पीछे वजह यही है कि अब इस दौर को दूसरे तरीके से समझना होगा।

पूरी दुनिया में इस समय राष्ट्रवाद का दौर चल रहा है। दक्षिणपंथी विचारधारा के इस चरम दौर में अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की नीति और उनका जन समर्थन देखा जाना चाहिए। पहले के सोवियत संघ और अब के रूस में ब्लादिमीर पुतिन का एकछत्र राज है। सोवियत संघ के विघटन के लिए रूस के लोग मिखाईल गोर्बाच्यो की आलोचना करते हैं। (जिस तरह से हिंदुस्तान में दक्षिण पंथी महात्मा गांधी को हिंदुस्तान के विभाजन का दोषी मानते हैं।) जबकि वे 1982 से 1991 तक शासक रहे। उनके बाद बोरिस एल्तशीन और फिर अब ब्लादिमीर पुतिन 1999 से अब तक प्रधानमंत्री फिर राष्ट्रपति के तौर पर काम कर रहे हैं। हाल ही में हुए चुनाव में एक बार फिर पुतिन ने करीब 95 प्रतिशत जन समर्थन हासिल किया है। यानी करीब 25 साल से वे रूस का नेतृत्व कर रहे हैं। अफगानिस्तान में तालिबान ने कब्जा कर लिया है। तालिबान अपने देश में धर्म के आधार पर कानून के पालन के प्रति नागरिकों को बाध्य कर रहे हैं। यह बताने का आशय यही है कि पूरी दुनिया में फिलहाल एक तरह की विचारधारा को प्रमुखता हासिल है। बिल्कुल इसी तरह से 2014 के बाद हिंदुस्तान में भी यही क्रम संचालित हो रहा है।  

हाल ही में सीएए कानून को लागू किए जाने को लेकर यह स्पष्ट संकेत दे दिया गया है कि ​सत्तारूढ़ भाजपा अपनी बुनियादी विचारधारा से ना तो हट रही है और ना ही आने वाले समय में हटने का सवाल है। जम्मू कश्मीर में विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को 5 अगस्त 2019 को संसद ने संविधान संशोधन कर हटा दिया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी मुहर लगा चुकी है।

हिंदुस्तान में भी कमोबेश दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रभावित समर्थक हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग कर रहे हैं। ऐन चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक पर अधिसूचना जारी कर सीएए कानून लागू कर दिया है। इसके बाद मुसलमान समुदाय को छोड़कर हिंदू, फारसी, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्ख समुदाय के ऐसे नागरिकों को जो दिसंबर 2014 के पहले से या तो हिंदुस्तान में आ चुके हैं और रह रहे हैं और जो नागरिकता हासिल कर यहां लौटना चाहते हैं उनके लिए हिंदुस्तान में नागरिकता के लिए राह साफ कर दी गई है।

अब हिंदुस्तान के परिवर्तन के इस दौर में अयोध्या में राम मंदिर—बाबरी मस्जिद का न्यायलय से फैसला आने के बाद हाल ही में 22 जनवरी 2024 को श्रीराम मंदिर की स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम में संपन्न हो चुका है। इन सब तथ्यों के देखने के बाद ऐसा प्रतीत ही नहीं हो रहा है कि आने वाले समय में हिंदुस्तान की राजनीतिक हवा में कोई बड़ा बदलाव होगा।

इन तथ्यों के आधार पर देखें तो साफ दिखाई दे रहा है कि मौजूदा दौर में भाजपा के पास ब्रांडिंग के तौर पर फायर ब्रांड नेता नरेंद्र मोदी उपलब्ध हैं। एनडीए के घटक दलों को जोड़ने के लिए चाणक्य की नीति का हर तरह से प्रयोग कर सभी के साथ बांडिंग का प्रदर्शन किया है। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी के विखंडन से साफ है अपना हित साधने के लिए किसी भी स्तर तक जाने के लिए शीर्ष नेतृत्व तैयार है। बिहार में हाल ही में जदयू के साथ मिलकर एक बार फिर सत्ता में वापसी का गणित सफल हो गया है।

विपक्ष पर ईडी द्वारा भ्रष्टाचार के मामले दर्ज कर उनके नेताओं की गिरफ्तारी और मीडिया के माध्यम से किए जा रहे भ्रष्टाचार के सबूतों के दावों को तो जब न्यायालय से समर्थन मिलेगा तब मिलेगा। पर भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तारी के बाद आम जनमानस में भाजपा जिस तरह का संदेश भेजना चाह रही थी उसमें सफल हो चुकी है। पूरे देश में लोगों की ब्रेनमेपिंग का फार्मुला भाजपा ने इज़ाद कर लिया है।

सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ नोटबंदी के बाद जमकर आरोप लगाए गए। परिणाम सिफर रहा। जीएसटी कानून को लेकर पेचिदिगियों ने व्यापारियों को परेशान किया। नतीजा सिफर रहा। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में रूस के साथ परंपरागत दोस्ती के साथ—साथ अमेरिका के साथ खड़ा रहना विश्लेषकों को परेशान करता रहा। य​हां तक कि अमेरिका के चुनाव में हिंदुस्तानी प्रधानमंत्री का खुलकर कहना अब की बार ट्रंप सरकार… जन मानस को कोई फर्क नहीं पड़ा। कोविड के दौर में जिस तरह से मौतों को लेकर खबरें बाहर आईं पर लोगों ने भाजपा का साथ नहीं छोड़ा।

मौजूदा दौर में विपक्ष ने केंद्र सरकार पर अमीरों के लाखों करोड़ के कर्ज को बट्टा खाते में डालने का आरोप लगाया। उद्योगपति गौतम अडानी को लेकर एक रिपोर्ट आई जिसके बाद शेयर बाजार में उनकी हालत काफी नीचे चली गई। पर सरकार ने अडानी का साथ नहीं छोड़ा। देश के तमाम संसाधनों को व्यापारियों को देने का आरोप लगा पर जनता ने कोई आवाज़ नहीं उठाई। जिन मीडियाकर्मियों ने सरकार के खिलाफ आवाज़ बुलंद की उन्हें मुख्यधारा की मीडिया से बाहर निकलना पड़ा।

बीबीसी जैसी संस्था के खिलाफ आईटी एक्ट के तहत कार्यवाही की गई वह भी तब जब उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़ी किसी वि​वादित डाक्यूमेंट्री का सामने लाया। कई स्वतंत्र मीडिया संस्थानों और मीडिया कर्मियों के खिलाफ कार्यवाही की गई। रातों रात पर्दे के पीछे से मेन स्ट्रीम मीडिया में कई चैनलों के मालिक बदल गए। इन सभी बातों के बाहर आने के बाद भी आम जनों का खुलकर सामने ना आना यह स्पष्ट संदेश है कि वे मौजूदा सरकार की रीति, नीति और विधि से सहमत हैं। यही वर्तमान में भाजपा की असली ताकत है कि आम जनता उनके पक्ष में खड़ी है।

अंतरराष्ट्रीय ​कीमतों में गिरावट के बाद भी पेट्रोल—डीजल के दाम लगातार बढ़ाए गए लोग भाजपा के पक्ष में तैयार रहे। बेरोजगारी के मुद्दे पर, चीन के दखल के मुद्दे पर, पाकिस्तान के साथ रिश्तों के बारे में, किसान आंदोलन को लेकर, सीएए कानून को लेकर, सेना में अग्निवीर भर्ती को लेकर और तो और खुले तौर पर मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं के बाद विपक्ष के किसी भी आंदोलन में 2014 से पहले जैसा जनता का साथ हासिल नहीं होना यह दर्शा रहा है कि लोगों के भीतर फिलहाल किसी भी राजनीतिक मुद्दे के खिलाफ या समर्थन में खुलकर आंदोलन करने तैयार नहीं है। क्योंकि आइटी सेल ब्रेनमेपिंग घर बैठे कर रही है। झूठ के पहाड़ में छिपे सच को ढूंढने की ताकत मौजूदा दौर में अब किसी के पास शेष नहीं है। लग रहा है यही सबसे बड़ी राजनीतिक सफलता है जिसकी तलाश में हिंदुस्तान सदियों से छटपटा रहा था।

फिलहाल भाजपा के नेताओं ने लक्ष्य प्राप्ति के लिए पूर्व निर्धारित समय को 2025 से शिफ्ट कर 2047 कर दिया है। 2024 का आम चुनाव इसमें पहला कदम है। 2024 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद नरेंद्र मोदी निर्विवाद तौर पर आज़ाद हिंदुस्तान के सबसे बड़े नेता का दर्जा हासिल कर लेंगे। क्योंकि मौजूदा समय को देखें तो लग रहा है देश के राजनीतिक दल 2024 की तैयारी में जुटे हैं और भाजपा 2029 की तैयारी कर रही है।

संभव है भविष्य में जो निर्णय लिए जाएंगे उसके बाद मुगल और ब्रिटिश की तरह कांग्रेस का दौर भी इतिहास का ही एक हिस्सा रह जाएगा। इस समय देश में जिस तरह की राजनीति परिस्थितियां हैं उसे देखकर साफ लग रहा है कि ब्रांडिंग, बॉन्डिंग और ब्रेनमेपिंग में भाजपा का कोई मुकाबल है ही नहीं…! वैसे भी 2024 के बाद असल लड़ाई इतिहास बदलने की ही है…!

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