Editorial

बंद नहीं हो रहा बस्तर में मौतों का सिलसिला… सरकार सिरे से सिस्टम को खंगाले…

विशेष टिप्पणी/ सुरेश महापात्र

छत्तीसगढ़ में सरकार बदली तो थोड़ी उम्मीद जागी कि जमीन में बहुत कुछ बदलाव दिखने लगेगा। विशेषकर नक्सल मोर्चे पर जहां हर बरस सैकड़ों मौतें चाहो या ना चाहो गिनती में आ ही जाती हैं। शुरूआती कुछ दिनों बाद फिर से यही लगने लगा है कि जमीन पर ज्यादा कुछ नहीं बदला है। बेगुनाह मौतें अब भी बस्तर का भाग्य लिख रही हैं।

सरकार की रणनीति का अब तक कोई अता—पता नहीं है। ना तो ठोस तैयारी दिख रही है और ना ही जमीन पर उसका अमली जामा।

विशेषकर बस्तर जैसे इलाकों में जहां सशस्त्र बलों की संख्या हर साल बढ़ाई जा रही हैं। बस्तर में सीआरपीएफ के ही करीब 50 हजार जवान तैनात हैं। इसके अलावा एसटीएफ, डीआरजी और अब बस्तर बटालियन के हजारों जवान बस्तर में अपनी सेवा दे रहे हैं।

1990 में बस्तर जिला के तर्रेम के पहले माओवादी हमले के बाद बीते 21 बरस में ताड़मेटला, जगरगुंडा, उर्पलमेटा, बासागुड़ा, मिरतूर, दरबागुड़ा, झीरम घाट, चिंतलनार, चिंगावरम, एर्राबोर, रानीबोदली इस तरह के ना जाने कितने नाम दक्षिण—पश्चिम बस्तर में दर्ज हैं। जहां इन दो दशकों में रक्त का खेला हुआ है।

सैकड़ों हादसे, हजारों मौतें और हर मौत की अपनी इबारत… आज सुकमा के एक पत्रकार से बात हो रही थी उनका एक सवाल था ‘हम कब तक मौतें देखते और गिनते रहेंगे?’

दर्जनों घटना स्थल पर जाकर रिपोर्टिंग करने के बाद अब मन लरजने लगता है। बस्तर की सुरक्षा के लिए तैनात जवानों की रक्त रंजित लाशें अब सवाल करती हैं ‘इसका जिम्मेदार कौन है?’

पत्रकार को तो बस खबर चाहिए। अब ब्रेकिंग न्यूज का जमाना है मुठभेड़ की खबर तीन हिस्सों में बंट गई है। जब आती है तब लगता है कुछ ऐसा ही हो गया होगा! पर जब देर शाम जवानों के लापता होने का संदेश आता है तो यह साफ हो जाता है कि कुछ बहुत बड़ा हो गया है। जिसे सरकार और पुलिस छिपा रही है।

क्योंकि लापता होने की प्रारंभिक सूचना के साथ ही आला अफसर और सरकार के लोग चुप्पी साध लेते हैं। शनिवार 3 अप्रेल को हुई घटना के बाद भी ऐसा ही हुआ।

देर शाम तक कोई स्पष्ट तौर पर बताने को तैयार नहीं था कि आखिर हुआ क्या है? तर्रेम तो बहुत दूर की बात है एनएच पर स्थित झिरम घाट के हादस के बाद भी पहली खबर तो मीडिया ने ही दुनिया को बताई थी। तब भी सरकार, सिस्टम दोनों मौन थे।

बीजापुर जिले के तर्रेम थाना क्षेत्र में 3 अप्रेल को दोपहर में मुठभेड़ शुरू हुई। घटना की पहली सूचना के बाद यह जानना कठिन हो गया कि आखिरकार हुआ क्या है? पूरे 24 घंटे बाद मौके से शहीद जवानों के शव बरामद किए जा सके।

रणनीतिक तौर पर देखा जाए तो साफ तौर पर दिखाई दे रहा है कि बस्तर में माओवादियों की मौजूदगी को अब तक गंभीरता से नहीं लिया गया है। सरकार की ओर से नक्सल आपरेशन के डीआईजी ओपी पाल ने साफ तौर पर यह बताया कि करीब दो हजार जवान आपरेशन के लिए विभिन्न थाना क्षेत्रों से निकाले गए थे।

यह सब कुछ कोई एक दिन का फैसला तो हो ही नहीं सकता। पर यह विचारणीय है कि माओवादियों ने इस हमले की प्री प्लानिंग कर ली थी जिसकी भनक तक नहीं लग सकी।
जिस तरह की सूचनाएं बाहर आ रही हैं यह बेहद चिंताजनक हैं।

माओवादियों ने अपनी मौजूदगी का ऐहसास स्वयं होकर करवाया। ताकि भारी पैमाने पर हमले की रणनीति को फोर्स अंजाम देने की तैयारी कर सके, हुआ भी यही। जिन इलाकों से फोर्स को हमले के लिए पहुंचना था वहां पहले से ही माओवादियों ने एंबुश किया हुआ था।

आज मौके से जो तस्वीरें बाहर आई हैं यह साफ दिखाई दे रहा है कि रणनीतिक चूक के चलते फोर्स को यह बड़ा नुकसान पहुंचा है। दूर—दूर तक छितराई हुई लाशें इस बात की चुगली कर रही हैं कि हमले के बाद छिपने के सारे ठिकानों पर माओवादियों ने पहले से ही कब्जा कर रखा था।

जुलाई 2007 में सुकमा इलाके के उर्पलमेटा में भी बिल्कुल इसी तर्ज पर हमले की रणनीति को माओवादियों ने अंजाम दिया था। पहले जवानों के लापता होने की सूचना बाहर आई। दूसरे दिन 23 जवानों की लाशें बरामद की जा सकीं थी। तब रिपोर्टिंग करने पहुंचे पत्रकारों ने भी शहीद जवानों को करीब 5 किलोमीटर तक कंधा देकर एनएच तक पहुंचाने में सहायता की थी। बिल्कुल यही तस्वीर थी। रणनीति के तौर पर बीते 14 बरसों में कुछ भी नहीं बदला है यही दिखाई दे रहा है।

मार्च 2010 में ताड़मेटला में 76 जवानों की शहादत की खबर भी इसी तरह टुकड़ों में आई थी। जंगल के भीतर से जब पूरी एक कंपनी की शहादत का दृश्य बाहर आया तो हर कोई कलप गया था।

ऐसा नहीं है कि बस्तर में मुठभ़ेड़ों के बाद आए मौतों के आंकड़ों से बस्तरिया को सिहरन नहीं होती है। बस्तरिया मौतों की हर खबर पर सिहर उठता है। उसके भीतर भय का पैमाना भी यही मौत के आंकड़ें हैं। जब लंबे समय तक मौतों की खबरें बाहर नहीं आती हैं तो लगता है पूरी बस्तर धरा धन्य हो गई है। पर मौतों की सूचना के साथ ही परिदृश्य बदलते देर नहीं लगता है।

पहले बस्तर में होने वाली मौतों में अधिकतर देश के अन्य हिस्सों के हुआ करते थे। अब यह उलट होता जा रहा है। रोजगार की तलाश में बस्तर के युवाओं को माओवादियों से लड़ने के लिए तैयार किया जा रहा है। एसटीएफ, डीआरजी अब बस्तर बटालियन जैसे नामों के साथ बस्तर के बेटे ही हथियार लेकर जंगल का फासला तय कर रहे हैं।

अब जब मुठभेड़ों में मौतों की सूचना आती है तो बस्तर से चित्कार की आवाजें सुनाई देेने लगी हैं। बीते एक दशक में कभी एसपीओ, सहायक आरक्षक व बटालियन में आरक्षक के रूप में भर्ती होने वाले सैकड़ों युवाओं ने अपनी शहादत दी है। 3 अप्रेल की घटना में बस्तर के करीब 12 युवाओं ने शहादत दर्ज की है।

माओवादी मोर्चे पर बीते दो दशक से यह कहा जा रहा है कि बिना किसी रणनीति के मैदान पर केवल हथियारों के साथ जवानों की भीड़ लेकर उतरना फलदायक कतई नहीं है। इससे रक्त ही बहेगा पर परिणाम सही नहीं निकलेगा। पर सरकारें इस बात को समझने में देरी कर रही हैं। सुरक्षा बलों की सफलता उनकी सुरक्षा में सन्निहित है। जब सुरक्षा बल माओवादी मोर्चे पर जाएं तो कम से कम खुद सुरक्षित लौटें इससे भी बस्तर की आबोहवा में बड़ा बदलाव आएगा। यही सिस्टम की जीत का प्रतिबिंब बनेगा।

बस्तर में विकास के नाम पर जमकर हो रही कमीशन खोरी को कोई सरकार रोक ही नहीं सकती। ऐसा आरोप बस्तर की जनता ही लगा रही है। सड़क, पुल, भवन जैसे समस्त निर्माण में भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार को भी रोकना होगा। आज के दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा तीनों ही क्षेत्र में भारी पैमान पर भ्रष्टाचार बस्तर का पर्याय बना हुआ है।
सड़क व पुल निर्माण के लिए सुरक्षा में तैनात जवानों की शहादत के बावजूद घटिया निर्माण से बस्तर का नुकसान हो रहा है। यह कहने का आशय यही है कि बस्तर को माओवादियों के चंगुल से निकालने के लिए केवल हथियार बंद जवानों की तैनाती की जगह सिस्टम की खामियों पर भी पुनर्विचार करना चाहिए।

यह तत्काल सुधारने की दरकार है कि कम से कम बस्तर में होने वाले विकास की राशि का बंदरबांट ना हो। मीडिया की दमक में चमकते नक्सल विरोधी अभियानों की चमक से बाहर निकलकर सरकार जमीनी हकीकत को भी खंगाले। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके सिस्टम के अफसर ही आपसे सच्चाई छिपा रहे हैं।

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