D-Bastar DivisionEditorial

अरविंद नेताम : बस्तर में आदिवासी जनआंदोलन… उद्योग विरोध और जल—जंगल—जमीन का बुनियादी सवाल उठाने वाला सबसे बड़ा चेहरा…

Getting your Trinity Audio player ready...
  • सुरेश महापात्र।

आखिर क्यों हैं निशाने पर बस्तर के सबसे बुजुर्ग कांग्रेसी नेता अरविंद नेताम… से आगे

अरविंद नेताम के साथ कांग्रेस के नए विवाद को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाने की जरूरत है। 1990 में मध्य प्रदेश में सुंदर लाल पटवा के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। वर्ष 1991 में बस्तर में औद्योगिकरण को लेकर पहली निजी कंपनी एसएम डायकेम के लिए रास्ता खोला गया। यहां मावलीभाटा में बिना किसी तैयारी के सीधे भूमि पूजन की प्रक्रिया पूरी की गई। इसके बाद जमीन अधिग्रहण को लेकर जब मैदानी अमला पहुंचा तो विवाद खड़ा हो गया। इस विवाद के पीछे बस्तर के पूर्व कलेक्टर डा. ब्रम्हदेव शर्मा की मुख्य भूमिका थी। मावलीभाटा के आस—पास के सात गांवों से भूमि का ​अधिग्रहण किया जाना था। तब मावलीभाटा के सरपंच गागड़ा और बुरूंगपाल के सरपंच सोमारू कर्मा ने इसका नेतृत्व किया।

विरोध का स्वर उठने के बाद बस्तर में एक प्रकार से उद्योग समर्थक और उद्योग विरोधी को लेकर दो धाराएं आमने—सामने खड़ी हो गईं। उद्योग समर्थकों ने औद्योगिक विकास के बाधक के तौर पर डा. ब्रम्हदेव शर्मा के खिलाफ जमकर उपद्रव किया। रायकोट के करीब एक भीड़ ने ब्रम्हदेव शर्मा को घेर लिया। उनके कपड़े फाड़ दिए। धक्का—मुक्की की गई। उसी हालत में उन्हें जगदलपुर लाया गया। इसके बाद सब कुछ बदल गया। ज्यादातर लोगों को यह पता ही नहीं था कि वे किसके साथ किस तरह की हरकत कर रहे हैं। घटना की खबर मिलने के बाद बस्तर कलेक्टर जेपी व्यास डा. ब्रम्हदेव शर्मा से मिलने कोतवाली पहुंचे। इसके बाद जेपी व्यास कहां गए और किन पदों पर रहे किसी को नहीं पता। पर डा. ब्रम्हदेव शर्मा ने मावलीभाटा में अपना स्थाई ठिकाना बना लिया।

भले ही सुंदरलाल पटवा सरकार 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद बर्खास्त कर दी गई। पर औद्योगिकरण के मसले के साथ् मावलीभाटा से भारत जन आंदोलन की बुनियाद पड़ गई। ‘मावा नाटे मावा राज’ यानि हमारे गांव में हमारा राज और जल, जंगल और जमीन पर हक को लेकर पहली सीधी लड़ाई शुरू हुई।

किसी को पता ही नहीं था कि डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा का जन्म 16 जून, 1931 को उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था। वे 1956 में आईएएस बने। उन्हें मध्य प्रदेश काडर मिला था। गणित से पीएचडी ब्रह्मदेव शर्मा 1968 से लेकर 1970 तक बस्तर में पदस्थापित रहे और यहीं आदिवासी समाज से उनका इतना गहरा नाता जुड़ा कि वे उनके दिलों में बस गए। सन 1973-1974 में वे केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी रहे।

16 जून 1931 को जन्मे डा. ब्रम्हदेव शर्मा 1956 बैच के आईएएस रहे। गणित में पीएचडी की और कई पुस्तकें लिखीं। 1966 में वे बस्तर के कलेक्टर के तौर पर पदस्थ हुए। इसके बाद वे कई केंद्रीय पदों पर रहे। 1986-1991 तक वो अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के आयुक्त रहे। इस पद पर रहने वाले वो आख़िरी आयुक्त थे क्योंकि इसके बाद एससीएसटी राष्ट्रीय आयोग का गठन कर दिया गया था।

लेकिन अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के आयुक्त के तौर जो रिपोर्ट उन्होंने तैयार की उसे देश के आदिवासियों की भयावह स्थिति बताने वाले और उनकी सिफ़ारिशों को आदिवसियों को न्याय दिलाने की ताक़त रखने वाले दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है। इसके लिए एक कमेटी गठित की गई थी जिसके अध्यक्ष दिलीप सिंह भूरिया थे। इस रिर्पोट को भूरिया कमेटी की रिपोर्ट भी कही जाती है। इसी रिपोर्ट में अनुसूचित क्षेत्रों के लिए जो व्यवस्थाएं लागू की जानी थी उसके लिए प्रस्ताव तैयार किया गया था। इसी प्रस्ताव के आधार पर ‘पेसा एक्ट’ पारित किया गया। जिसे ‘पंचायत एक्सटेंशन इन शिड्यूल एरिया’ में ग्राम सभा को अधिकार संपन्न किए जाने का उल्लेख है।

पहला अंक

आखिर क्यों हैं निशाने पर बस्तर के सबसे बुजुर्ग कांग्रेसी नेता अरविंद नेताम…

इसके तहत अनुसूचित इलाकों में ग्राम सभा की अनुमति के बगैर किसी भी तरह का काम किया जाना संभव नहीं है। भूमि अधिग्रहण तो किया ही नहीं जा सकता। पर इस कानून को बनाने की प्रक्रिया में मावलीभाटा का वह स्थान महत्वपूर्ण है जहां स्वयं डा. ब्रम्हदेव शर्मा ने पहली पत्थलगढ़ी की। इसमें साफ तौर पर कानून के मुताबिक ग्राम सभा के अधिकार लिख दिए गए हैं। इस पूरे अभियान के पीछे डा. ब्रम्हदेव शर्मा को कद्दावर आदिवासी नेता और केंद्र में कृषि राज्य मंत्री अरविंद नेताम का समर्थन हासिल था।

डा. ब्रम्हदेव शर्मा की पहल पर ही 1996 में बस्तर में छठवीं अनुसूचि लागू किए जाने का मुद्दा उठा। जिसे लेकर बस्तर में एक अघोषित विभाजन रेखा खिंच गई। बस्तर में इसके बाद उद्योग की राह बेहद कठिन हो गई पर एक लाभ यह भी रहा कि एनएमडीसी पर बस्तर का दबाव बढ़ने लगा।

1996 के बाद अरविंद नेताम का अस्ताचल शुरू हुआ और कांग्रेस में वे अलग—थलग कर दिए गए। इसके बाद अरविंद नेताम ने दो बार पार्टी बदली पर सफल नहीं हो सके। 2012 में यूपीए की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी के खिलाफ पूर्व लोक सभा अध्यक्ष और आदिवासी नेता पीए संगमा का समर्थन किया था। बाद में वे संगमा की पार्टी में शामिल हो गए। अपने राजनीतिक साथी पीए संगमा का राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन करने के कारण हटा दिए गए।

पर राजनीति में ना तो कोई स्थाई दोस्त होता और ना दुश्मन सो विधानसभा चुनाव से पहले बस्तर में फिर से बड़ी सुगबुगाहट शुरू हुई वह थी पत्थलगढ़ी ​अभियान की। जिसे लेकर भाजपा धर्म परिवर्तन के एजेंडे को लेकर खिलाफ खड़ी हो गई और कांग्रेस विकास के मसले पर सत्ता को घेरना शुरू किया। यह साफ दिखाई दे रहा था कि इस अभियान में पर्दे के पीछे अरविंद नेताम खड़े थे।

यह अभियान भले ही झारखंड के रास्ते उत्तरी छत्तीसगढ़ में आक्रामक तरीके से प्रवेश किया था। पर बस्तर में इसकी बुनियाद पहले से ही तैयार थी। बस उसे हवा देने का ही काम शेष था। बस्तर में सर्व आदिवासी समाज के नाम पर सभी आदिवासी समाजों को एकजुट किया जाने लगा। इसके बाद इनकी बैठकें शुरू हुईं। जिसमें एक बड़ा मसला हिंदु देवी—देवताओं की स्वीकारोक्ति को लेकर भी खड़ा हुआ। बस्तर में आदिवासियों के पूजा स्थल गुड़ी में आदिवासियों का केंद्र बनने लगा। इसी बीच अरविंद नेताम ने जनवरी 2017 में बीजेपी से निष्कासित पूर्व सांसद सोहन पोटाई के साथ जय छत्तीसगढ़ पार्टी का गठन किया। यह साफ दिखने लगा कि आदिवासियों के वोट बैंक पर नेताम एक तरह से दरार डालने की कोशिश कर रहे हैं। सो कांग्रेस ने अपने लिए लाभ का सौदा किया और अरविंद नेताम की एक प्रकार से घर वापसी संभव हो सकी।

क्या है पत्थलगड़ी?

असल में देश के कई आदिवासी बहुल इलाकों में ‘पत्थलगड़ी’ की सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा रही है। इस परंपरा में गांव की कब्रगाह से लेकर गांव की सीमा तक पत्थर गाड़ कर उसके सहारे संदेश देने की कोशिश होती थी। जब पंचायतों को अधिकार मिले और खासकर आदिवासी बहुल इलाकों को संविधान की पांचवी अनुसूची में रखते हुये पंचायत एक्सटेंशन इन शिड्यूल एरिया कानून में ग्राम सभा को सर्वोपरि अधिकार दिये गये, उससे पहले से बस्तर जैसे इलाकों में ‘मावा नाटे मावा राज’ यानी हमारा गांव, हमारा राज जैसे अभियान भी चले। बाद के दिनों में कई इलाकों में पत्थर गाड़ कर ग्राम सभा को मिले अधिकार उन पत्थरों पर अंकित कर दिए गए।

जशपुर के इलाके में अप्रैल के महीने में जब पत्थर गाड़ कर उनमें ग्राम सभा के अधिकार लिख दिए गए तो जैसे बवाल मच गया। आदिवासियों ने पत्थर गाड़ कर घोषणा कर दी कि अब पांचवीं अनुसूची वाले इन इलाकों में ग्राम सभा ही सारे नियम-कानून तय करेगी। यहां तक कि पुराने जमाने की कोटवार जैसी व्यवस्था की ही तरह गांव में प्रवेश से पहले भी अनुमति लेना भी अनिवार्य कर दिया गया। इस आंदोलन की कमान सेवानिवृत आईएएस अधिकारी हेरमोन किंडो और ओएनजीसी से सेवानिवृत्त आदिवासी नेता जोसेफ तिग्गा ने संभाली। (संदर्भ बीबीसी रिपोर्ट 16 मई 2018)

पत्थलगढ़ी अभियान और बस्तर

मई 2016 में, केंद्र सरकार ने दो अध्यादेश पेश किए, जो आदिवासी भूमि को सरकार के साथ-साथ व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए स्थानांतरित करने में सक्षम थे। इसके बाद आदिवासी जल-जंगल-जमीन (जल-जंगल-भूमि) के लिए लड़ने के लिए पत्थलगड़ी आंदोलन को प्रमुखता मिली और नए पत्थर खड़े किए गए। इस प्रथा को शुरू करने वाले पहले आदिवासी गांव बिरसा मुंडा के जन्मस्थान खूंटी जिले में थे। अध्यादेशों को वापस लेना पड़ा।

मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा “पत्थलगड़ी का कोई विरोध नहीं है। विरोध करता हूं उन ताकतों का, जो पत्थलगड़ी के नाम से विभाजन रेखा खींचना चाहती हैं। ये चुनाव की दृष्टि से षड़यंत्र है और एक प्रकार से ताकत है, जो धर्मांतरण को बढ़ावा देना चाहती है।” (जैसा उन्होंने बीबीसी से कहा था। 16 मई 2018)

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और विधायक भूपेश बघेल कहते हैं, “सरकार को बताना चाहिए कि अगर उसने विकास किया है तो आदिवासियों को क्यों सरकार के खिलाफ अभियान चलाने की जरुरत पड़ी? आदिवासियों का ‘पत्थलगड़ी’ अभियान पूरी तरह से संवैधानिक है।” (जैसा उन्होंने बीबीसी से कहा था। 16 मई 2018)

बस्तर के बड़े आदिवासी नेताओं में शुमार अरविंद नेताम का कहना है कि कानून ने ‘पंचायत एक्सटेंशन इन शिड्यूल एरिया’ में ग्राम सभा को सर्वोपरि अधिकार दिये हैं। नेताम कहते हैं, “संवैधानिक अधिकारों में कटौती होती जा रही है, उन्हें कमजोर किया जा रहा है। यह उसका ही उबाल है।” (जैसा उन्होंने बीबीसी से कहा था। 16 मई 2018)

कांग्रेस प्रवेश के बाद अरविंद नेताम ने मीडिया से बातचीत में कहा था ‘राजनीति में खट्‌टा-मीठा जैसा कोई अनुभव नहीं होता है यहां लंबे समय के लिए न तो कोई दोस्त होता है न कोई दुश्मन होता है। दो बार उन्होंने खुद पार्टी छोड़ी तो एक बार उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया।’ आदिवासी राजनीति के सवाल पर उनका कहना था ‘अब समय बदल गया है सिर्फ आदिवासी ही नहीं बल्कि हर वर्ग के लोगों को साथ में लेकर काम करने का समय आ गया है।’

कुल मिलाकर इन दिनों कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत अब अरविंद नेताम ही लग रहे हैं। वे पेसा एक्ट को लेकर आदिवासियों को एकजुट कर रहे हैं और इस मसले में कांग्रेस बुरी तरह फंसी हुई है। यदि सीधे तौर पर वह एक्ट के सारे प्रावधान लागू करने की दिशा में आगे बढ़ती है तो शहरी वोट बैंक में बड़ी खाई तैयार हो सकती है। जबकि आदिवासी वोट का बंटवारा होगा जिससे कांग्रेस को साफ नुकसान है। इस मामले में भाजपा वेट एंड वॉच की भूमिका में है। उनके नेता पेसा एक्ट को लेकर एक भी शब्द ना तो कह रहे हैं और ना ही उसे लेकर माहौल बनाने की कोई कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की जगदलपुर में पिछड़ा वर्ग सम्मेलन में पेसा एक्ट का जिक्र होते ही जिस तरह से भीड़ सभा से बाहर निकल गई उसने भूपेश बघेल को चेता दिया है। वे बीच का रास्ता निकालने की कोशिश में हैं।

बस्तर में होने वाले हर राजनीतिक अभियान में आने वाले दिनों में अरविंद नेताम की भूमिका अंदरूनी तौर पर तय है। यही वजह है कांग्रेस अब आदिवासी समाज के सम्मेलन के नाम पर अरविंद नेताम को टार्गेट में ले रही है। बड़ी बात यह है कि एक समय जिन चेहरों को कांग्रेस का टिकट देकर अरविंद नेताम ने विधायक बनने में सहायता की थी अब वे ही चेहरे आदिवासी समाज के सम्मेलन में नेताम को लेकर सीधी टिप्पणी करते दिख रहे हैं।

समाप्त

error: Content is protected !!