जब अक्टूबर 1984 में गोविंद लाल वोरा ने ‘अमृत संदेश’ का प्रकाशन शुरू किया… सफरनामा दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक दिवाकर जी… ने पत्रकारिता का पढ़ा है जिया है और अब भी जी रहे हैं… वे अपना सफ़रनामा लिख रहे हैं… कुछ यादें कुछ बातें- 5
गोविंदलाल वोरा : 1932 में नागौर , राजस्थान में जन्में गोविंद लाल वोरा जी ने मात्र 18 वर्ष का उम्र में स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अपने करियर की शुरूआत की। प्रारंभ में नवभारत नागपुर के लिए ख़बरें लिखने के अलावा बाद के समय में वोरा जी अनेक दैनिकों मसलन हिंदुस्तान टाइम्स, नवभारत टाइम्स,द स्टेट्समैन , इलसट्रेटेड वीकली, टेलीग्राफ़ , जयहिंद आदि के लिए काम करते रहे। 1959 में जब रायपुर से नवभारत का प्रकाशन शुरू हुआ, वे इसके संपादक नियुक्त हुए। 1984 में उनके स्वामित्व में रायपुर से एक नए समाचार पत्र अमृत संदेश प्रारंभ हुआ। करीब सात दशक की पत्रकारिता में वोरा जी सामाजिक , राजनीतिक व शैक्षणिक क्षेत्रों में भी सक्रिय रहे। बक़ौल परितोष चक्रवर्ती वे मानते थे कि पत्रकारिता में दो रास्ते स्पष्ट हैं-एक निर्भीक रहते हुए स्वयं को जोखिम में डालकर पत्रकारिता और दूसरा चाटुकारिता की पत्रकारिता। वोरा जी ने ताउम्र पहिला रास्ता अपनाया। छत्तीसगढ में पत्रकारिता को शैक्षणिक पाठ्यक्रम के रूप में स्थापित करने का बहुत कुछ श्रेय वोरा जी को है।
- दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ की पत्रकारिता में गोविंद लाल वोरा जी को किस रूप में याद किया जाना चाहिए ? यह सवाल यदि कोई मुझसे करें तो मेरा जवाब होगा -एक अच्छे प्रबंध संपादक के रूप में जिनका प्रबंधकीय कौशल ज़बरदस्त था और जिसके बल पर उन्होंने नवभारत रायपुर संस्करण को राज्य का सर्वाधिक प्रसार वाला समाचार पत्र बना दिया था।
लेकिन क्या केवल इतना ही? नहीं। हरगिज़ नहीं। वोरा जी केवल प्रबंधक के रूप मे ही बेजोड़ नहीं थे बल्कि निर्भीक , दृष्टि सम्पन्न, सिध्दांतवादी व पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों को जीने वाले पत्रकार थे अलबत्ता भाषा शैली के मामले वे कमज़ोर थे। वह प्रवाहमय नहीं थी, बाँधकर नहीं रखती थी इसलिए उनका लेखन चर्चित नहीं था। फिर भी इसमें दो राय नहीं कि पत्रकारिता की उन्हें गहरी समझ थी, सत्ता प्रतिष्ठानों का कोई दबाव बर्दाश्त नहीं करते थे तथा पत्रकारों की हितों की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे।
इस मायने में वे अपने समकालीन पत्रकारों से अलग थे। वे इस अखबार से इस क़दर जुड़े हुए थे कि यह आम ख़्याल था कि गोविंद लाल वोरा ही सर्वेसर्वा हैं, अखबार के मालिक है। वे पर्याय बन गए थे। नवभारत यानी गोविंद लाल वोरा। यह भ्रम करीब दो ढाई दशक तक कायम रहा और तब टूटा जब अक्टूबर 1984 में उन्होंने अपने दैनिक अखबार ‘अमृत संदेश’ का प्रकाशन शुरू किया।
गोविंद लाल वोरा जी को सत्तर के दशक से जानने लगा था जब मैं स्टेशन रोड, नहरपारा के इलाक़े में स्थित नई दुनिया (देशबंधु ) के संपादकीय विभाग में कार्य करने लग गया था लेकिन औपचारिक मुलाक़ात किस पत्रकार वार्ता में हुई, याद नहीं। मैं नवागंतुक था अत: परिचय का दायरा आगे नहीं बढ़ा।
वे नवभारत के संपादक के रूप में मशहूर थे अौर वैसे भी वरिष्ठों के साथ एक सम्मानजनक दूरी स्वंयमेव स्थापित हो जाती थी। एक और वजह थी। देशबंधु व नवभारत चूँकि प्रतिस्पर्धी अखबार थे इसलिए पत्रकारों का मेल-मुलाक़ात की दृष्टि से एक दूसरे के दफ़्तर में आना-जाना भी बहुत कम था। इसलिए भी वोरा जी से अलग मुलाक़ात व बातचीत नहीं हुई। और जब बातचीत हुई तो ऐसी कि नवभारत में मेरी एंट्री हो गई जबकि फ़ौरी तौर पर दिल से मैं यह चाहता नहीं था। लेकिन कुछ घटनाएँ अनायास घट जाती हैं । मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ। दरअसल वोरा जी और उनके परम मित्र मधुकर खेर नवरात्रि के दिनों में पुरानी बस्ती के महामाया मंदिर में देवी के दर्शनार्थ आया करते थे।
हम मंदिर परिसर में किराए के घर में रहते थे। ऐसे ही एक दिन उन्होंने मुझे घर के दरवाज़े पर देखा। औपचारिक बातचीत के बाद मेरे आग्रह पर दोनों वरिष्ठ भीतर आए। आगे की कहानी यह है कि उन्होंने अगले दिन दफ़्तर में मिलने का फ़रमान सुना दिया। और उसी दिन नवभारत में मेरा प्रवेश हो गया।
नवभारत में वोरा जी के मातहत काम करने की अवधि बमुश्किल डेढ़ साल रही। इस दरमियान उन्हें व उनकी पत्रकारिता को जानने, समझने व उनसे सीखने का अवसर मिला। संभवत: प्रबंधकीय व्यस्तता की वजह से उन्होंने संपादकीय लिखने का दायित्व वरिष्ठ सहयोगी कुमार साहू को सौंप रखा था। कभी-कभार लिखते भी होंगे तो मुझे ज्ञात नहीं। वोरा जी संपादकीय कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते थे।
उन्होंने पूरी स्वतंत्रता दे रखी थी लेकिन सभी के कामकाज पर बारीक नज़र रखते थे और ज़रूरत महसूस होने पर अपने कक्ष में बुलाकर गलतियों की ओर इशारा करते हुए नसीहत देते थे। उनमें ग़ज़ब का धैर्य था। बहुत शांत स्वभाव। मैंने कभी उन्हें ज़ोर -ज़ोर से बोलते हुए , किसी को डाँटते हुए नहीं देखा। वे संपादकीय सहकर्मियों का ही नहीं अखबार में कार्यरत छोटे से छोटे कर्मचारी के भी सम्मान का ध्यान रखते थे। उनमे यह बडी विशेषता थी।
अक्टूबर 84 में ‘अमृत संदेश’ का प्रकाशन शुरू हुआ। वोरा जी करीब 6 माह पूर्व ही नवभारत से मुक्त हो गए थे। मैं भी उनके साथ हो लिया। धीरे-धीरे और भी साथी आ गए और एक अच्छी टीम बन गई। यह संपादकीय टीम का ही कमाल था कि एक वर्ष के भीतर अमृत संदेश प्रसार संख्या की दृष्टि से नवभारत, देशबंधु के बाद तीसरे नंबर पर आ गया। अमृत संदेश में उनका लिखा काफी कम है लेकिन साप्ताहिक सह-पत्रिका ‘आमंत्रण’ में अपने वैचारिक स्तम्भ ‘सोच’ में सम सामयिक घटनाक्रमों पर वे अपने विचार रखते थे। प्रबंधकीय व्यस्तता के बावजूद वे नियमित रूप से शाम के समय एक चक्कर संपादकीय विभाग में लगाते थे और डेस्क पर जाकर सहकर्मियों से महत्वपूर्ण ख़बरों पर चर्चा के साथ ही उनके विचार भी लेते थे। फिर वे अपनी बात रखते थे। यह उन्होंने सहसपांदकों के विवेक पर छोड़ रखा कि किस खबर के साथ कैसा ट्रीटमेंट होना चाहिए। जाहिर हैं उन्हें अपनी टीम पर पूरा भरोसा था जो साथियों ने कभी टूटने नहीं दिया।
इन्हीं दिनों वोरा जी कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय हो गए और कालांतर मे प्रदेश कांग्रेस के पदाधिकारी भी बने। यह महत्वपूर्ण है कि उनके बडे भाई मोतीलाल वोरा कांग्रेस की राजनीति में प्राय: बडे-बडे पदों पर रहे । उनके लिए अपने अनुज को लोकसभा , राज्यसभा या विधानसभा चुनाव की टिकिट दिलाना क़तई मुश्किल नहीं था किंतु दोनों ने इस सहज स्थिति का कभी फ़ायदा नहीं उठाया। गोविंद लाल वोरा जी की राजनीति में दिलचस्पी पार्टी की विचारधारा का समर्थक होने की वजह से थी इसलिए उन्होंने स्वयं को प्रदेश संगठन तक सीमित रखा। वे कांग्रेस कमेटी की बैठकों में भी शामिल होते थे पर अपने अखबार को उन्होंने कांग्रेस का मुखपत्र नही बनने दिया।
उन्होंने उसे ‘ओपन’ रखा जिसकी वजह से ख़बरों के साथ-साथ विचारों के स्तर पर भी अखबार की साख कायम रही। ख़बरों की विश्वसनीयता अखबार की सबसे बडी शर्त होती है। वोरा जी ने नवभारत में इसका भरपूर ध्यान रखा था और अमृत संदेश में भी। मुझे याद है किसी अखबार में छपी खबर को पाठक समुदाय तब तक सच नहीं मानता था जब तक कि वह उसे नवभारत में देख नहीं लेता था।
वोरा जी के इस्तीफ़े के बाद नवभारत में बिखराव तय था, वह हुआ पर एक स्थिति में पहुँचने के बाद। किंतु वोरा जी की मौजूदगी के बावजूद अमृत संदेश का भी ग्राफ़ एक सीमा के बाद उपर नहीं उठ पाया बल्कि गिरना शुरू हो गया। इसकी वजहें थीं, रायपुर में दैनिक भास्कर का पदार्पण , उसकी आक्रामक बाज़ारी रणनीति, एक क्लासिक टीम का टूटना तथा समयानुसार अखबार में बदलाव न करना। इसकी क़ीमत यह पत्र अभी भी चुका रहा है जबकि उसे सहारा देने वोरा जी अब दुनिया में मौजूद नहीं हैं।
वोरा जी का व्यक्तित्व प्रभावशाली था। वे सुदर्शन थे। सहज ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे। वे राजनीति में ज़रूर थे पर उनकी प्राथमिकता पत्रकारिता थी, वह भी सुघड, सुलझी हुई व मूल्यपरक। अंत तक पत्रकार के रूप में इस दायित्व को निभाते रहे। 13 मई 2018 को 86 वर्ष की आयु में नई दिल्ली में उनका निधन छत्तीसगढ की पत्रकारिता के लिए सर्वाधिक बुरी खबर थी। उनके निधन से छत्तीसगढ के अखबार जगत में उपजी शून्यता अभी भी कायम है। बार-बार यह ख़्याल आता है कि जन्म व मृत्यु की तारीखें अपने समय पर आती हैं, याद दिलाती हैं व अधिकांशत: हताश होकर यों ही गुज़र जाती है। 13 मई भी ऐसी ही एक तिथि है जो इस बार भी गुपचुप निकल गई और बिरादरी को खबर तक न हुई।
// 03 अगस्त 2020
(अगला भाग बुधवार 12 अगस्त को )