safarnama

‘ललित जी’ और ‘देशबंधु’ सुनहरे अतीत से अब तक… पत्रकार का सफ़रनामा… दिवाकर मुक्तिबोध

छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक दिवाकर जी… ने पत्रकारिता का पढ़ा है जिया है और अब भी जी रहे हैं… वे अपना सफ़रनामा लिख रहे हैं… यह पहला अंक पत्रकारिता के छात्रों के लिए…

कुछ यादें कुछ बातें – 1

पदुम लाल पुन्ना लाल बख़्शी जी का प्रसिद्ध निबंध है, ‘ क्या लिखूँ ‘। निबंध के इस शीर्षक की याद अनायास हो आई। दरअसल आईपैड हाथ में था और सोच रहा था – क्या लिखूँ। दिमाग़ के घोड़े दौड़ा रहा था पर कुछ सूझ नहीं रहा था। हालाँकि रोज़मर्रा जिंदगी के आसपास इतनी घटनाएँ घटित होती हैं कि विषयों का अकाल नहीं पड़ सकता , कोई समस्या नहीं हो सकती पर अनेक दफे ऐसे क्षण भी आते हैं जब मनोनुकूल विषय नहीं मिलते और आप सोचते रह जाते हैं कि क्या लिखें ? ऐसे ही एक दिन इसी सवाल से जूझ रहा था। जब देर तक कोई सिरा पकड़ में नहीं आया , कुछ नहीं सूझा तो एकाएक ख़्याल आया कि ‘ दास्तानें-सफ़र ‘ तो लिखा ही जा सकता है जिसमें गुरूजन हो तो भी कोई हर्ज नहीं। इसलिए इसे कलमबद्ध करना प्रारंभ किया जिसमें सहकर्मी मित्रगण तो हैं ही , कुछ वरिष्ठ भी हैं । यादों की इस क़वायद का शीर्षक दिया है – ‘ कुछ यादें कुछ बातें ‘ । यादों और बातों का नया सिलसिला शुरू हो , इसके पूर्व यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि जिन संपादकों के मातहत मैंने अखबारनवीसी प्रारंभ की , उन पर मैंने समय-समय पर लिखा और उनमें से कुछ लेख प्रकाशित भी हुए। चूँकि ये पूर्व के है और व्यक्ति विशेष पर केन्द्रित है अत: यह पहिली कड़ी और पत्रकारिता की लगभग आधी सदी के सफ़र पर , यादगार लम्हों व चुनिंदा घटनाओं पर जितना कुछ स्मरण है , श्रृंखला की दूसरी कड़ी पहिली के तुरंत बाद। प्रारंभ ललित सुरजन जी से। प्रधान संपादक देशबंधु ..

#ललित_सुरजन -दिवाकर मुक्तिबोधदिनांक 25 जून, 2019।

आज फ़ेस बुक खोलते ही एक ग्रुप फ़ोटो पर नज़र पड़ी। इसे वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन ने पोस्ट किया था। चित्र, नागपुर में संपन्न हुए एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम का था जिसमे किताब लोकार्पित करते हुए ललित जी व अन्य लोग मंच पर मौजूद थे। यह साधारण सी चित्रमय ख़बर थी। इस तरह की ख़बरें सोशल मीडिया के सशक्त और लोकप्रिय माध्यम फ़ेस बुक पर आम तौर पर नज़र आती ही है। यों भी ललितजी साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक क्षेत्रों में भी काफी सक्रिय हैं फलत: उनसे संबंधित समाचार उनके अपने अखबार देशबन्धु में भी छपते ही रहते हैं। लेकिन फेसबुकी खबर से मुझे अनायास करीब साढ़े चार दशक पूर्व की कुछ बातों का स्मरण हो आया।

मैंने पत्रकारिता की शुरूआत देशबंधु (तब नई दुनिया) से की थी। ललित जी कार्यशैली , चीज़ों को देखने परखने का उनका नज़रिया , पत्रकारिता की ज़बरदस्त समझ और बहुत अच्छी भाषा मुझे रोमांचित करती थी और इस वजह से कई बार अपना बौनापन भी महसूस होता था। उनकी बातें मैँ ध्यान से सुनता था और कुछ ग्रहण करने की कोशिश भी करता। उनकी एक-दो बातें अच्छी तरह याद है जो अख़बार से संबंधित थी।

पहिली बात थी, पत्रकारों को किसी भी तरह की आवाभगत यानी दूसरों के द्वारा उपलब्ध कराई गई सुविधाएँ स्वीकार नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह किसी हद तक निष्पक्षता को प्रभावित करती है और यह बात आदर्श पत्रकारिता के सिद्धांतों के खिलाफ हैं। वे विदेशी अख़बारों का उदाहरण देते थे जहाँ के रिपोर्टर कोई भी हास्पीटिलिटी स्वीकार नहीं करते थे। ललितजी की यह सीख जीवनभर न भूलनेवाली थी। जिन्होंने इसे जिया, वे आज भी जी रहे हैं अलबत्ता अब पत्रकारिता का चेहरा बहुत बदल गया है। चार दशक पूर्व के मूल्यों को जीना या उस दौर की आदर्श स्थिति को प्राप्त करना आज की चकाचौंध वाली पत्रकारिता व पत्रकारों के लिए संभव नहीं।

दूसरी बात, ललितजी का यह भी मानना था कि हमें अपने अख़बार में स्वयं की फ़ोटो या ख़बर नहीं छापना चाहिए । यानी आप किसी कार्यक्रम में गए हों, अतिथि या मुख्य अतिथि हो, मंच पर बैठे हों, माइक पर बोल रहे हों या आपकी कोई व्यक्तिगत उपलब्धि हो तो उसका कवरेज उस समाचार पत्र में जहाँ आप बतौर पत्रकार काम कर रहे हैं, नहीं होना चाहिए। दूसरे अख़बार भले ही छाप लें , आपको अपने यहाँ नहीं छपना है।

यह आदर्श पत्रकारिता की एक और बानगी थी जिसका आशय आत्म-स्तुति से बचना व स्वयं को प्रचार से दूर रखना था। मतलब था हम अपने ही अख़बार में अपने बारे में क्यों छापे? क्या इससे हमें संकोच व हल्केपन का अहसास न होगा? और पाठकों तक मैसेज भी कैसा जाएगा? यक़ीनन अच्छा नहीं। अख़बार लोगों के लिए होता है, लोगों की ख़बरों के लिए। और आपका काम ख़बरें देना है, खुद खबर बनना नहीं।

इसलिए देशबन्धु में प्रबंधन व संपादकीय विभाग से जुड़े किसी व्यक्ति के लिए अपने पत्र में खुद से संबंधित खबर के छपने की कोई गुंजाइश नहीं थी। ललित जी की इस आदर्श व्यवस्था का देशबंधु में लंबी अवधि तक पालन होता रहा। हालाँकि 70 के उस दशक में पत्रकार सार्वजनिक समारोह या कार्यक्रमों में बतौर अतिथि कम ही आमंत्रित किए जाते थे और स्वयं पत्रकार भी इससे दूर ही रहते थे। आमंत्रण मिलते तो भी वे प्राय: ठुकरा दिये जाते थे।

…पर देशबंधु की यह परम्परा समय व पत्रकारिता के बदलते स्वरूप के सामने टिक नहीं सकी। दरअसल जब यह देखा गया कि अन्य पत्र अपने संपादकीय मुलाजिमों व संपादक से संबंधित फ़ोटो व उनके समाचार विस्तार से छापते हैं लेकिन अन्य के नहीं तो देशबन्धु को भी अपनी नीति त्यागनी पड़ी।

सो तमाम अख़बारों में अपनी ख़बरें व फ़ोटो छापने का सिलसिला शुरू हो गया और यह अब प्रचंड स्वरूप में है। हालाँकि इसमें अनैतिक कुछ भी नहीं है। आपका अपना अख़बार है, दूसरे आपको छापते नहीं है तो विकल्प क्या रह जाता है? फिर ख़बर तो ख़बर है, उसे पाठकों तक पहुँचाना फ़र्ज़ है। मज़े की बात यह कि यह कि यह कोई नीतिगत व्यवहार नहीं है। मालिकों की ओर से तो क़तई नहीं। यह डेस्क पर बैठे सहयोगी या संपादक तय कर लेते हैं, अपनी बिरादरी के ‘बाहरी’ लोगों को नहीं छापना है। फ़ोटो तो बिलकुल नहीं। कुछ मजबूरी में छापना ही है तो दो चार लाइनें काफी है।

इस संदर्भ में अपने ही एक अनुभव का संकोच के साथ उल्लेख करना अनुचित न होगा। चंद माह पूर्व रायपुर में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की विधायक पत्नी रेनू जोगी द्वारा लिखित किताब ‘अजीत जोगी : अनकहा कहानी’ के विमोचन समारोह में मंच पर मैं भी मौजूद था।

अमूमन मैं सार्वजनिक कार्यक्रमों में मंचीय सहभागिता से दूर ही रहता हूँ। पर इस बार मेज़बान के आग्रह को टाल नहीं सका। किताब पर मैंने भी कुछ कहा। चूँकि किताब राजनीतिक व्यक्ति से संबंधित थी और अब राजनीतिक समाचार उच्च प्राथमिकता में होते हैं इसलिए अख़बारों में विमोचन कार्यक्रम का अच्छा कवरेज हुआ। लेकिन जिस बड़े अखबार में मैं लंबे समय तक संपादक रहा, वहाँ इस कार्यक्रम के कवरेज के नाम पर बिना केप्शन का ग्रुप फ़ोटो व नेताओं के भाषण को छापा गया। उसमें मैं कहीं नहीं था।

अफ़सोस इस बात का नहीं है कि ख़बर में मैं क्यों नहीं था और अपने पूर्व संपादक की उपस्थिति का ज़िक्र करना क्यों मुनासिब नहीं समझा गया? रंज इस बात का है कि आजकल कैसी पत्रकारिता हम कर रहे हैं? हम सही-सही ख़बरें क्यों नहीं देते? क्यों अपनी मर्ज़ी के अनुसार ख़बरों से खिलवाड़ करते है? घटनाओं के महत्व के अनुसार क्यों कव्हरेज नहीं होता? क्यों खबर अंडर-प्ले या ओव्हर प्ले की जाती है? हम निष्पक्ष क्यों नहीं रहते? क्या यह रिपोर्टर या डेस्क पर काम करने वालों की नासमझी है या जानबूझकर की गई लापरवाही, ओछी मानसिकता, कुंठा या प्रोफ़ेशनल जेलसी?

क्यों नहीं अख़बारों में पत्रकारों से संबंधित समाचारों को, उनके आंदोलनों को, उनके सम्मेलनों, उनके विचारों को व उनसे संबंधित अन्य विषयों को समुचित महत्व दिया जाता? क्यों राजनीतिक व सरकारी तंत्र पत्रकारिता पर ख़बरों की दृष्टि से हावी रहते हैं। यक़ीनन ऐसा ही है, स्पष्ट है। राजनीतिक ख़बरें ज़्यादा महत्व पाती हैं। क्यों है ऐसा? जाहिर है, जिन ख़बरों से व्यावसायिक हित ज़्यादा सधते हों, प्राथमिकता भी उन्हें मिलती है। सभी अखबार ऐसा करते हैं, ऐसा नहीं हैं पर अधिकांश इसी दृष्टिकोण के हैं।

बहरहाल बात पत्रकारों की है। हमपेशेवरों की ख़बरों को दबाने या जरूरी हुआ तो अति संक्षिप्त मे छापने का चलन है। इसीलिए अब एक पत्रकार से संबंधित ख़बर उसके अपने पत्र में अवश्य मिलेगी, दूसरों के यहाँ कदाचित नहीं। इसलिए ललितजी मुख्यत: देशबंधु में ही छपते हैं, विस्तार से छपते हैं। इसी सिलसिले में पुरानी एक और बात है जो आज भी मौजूं है।

उन दिनों छत्तीसगढ में गिनती के अख़बार हुआ करते थे। उनमें प्रमुख थे देशबंधु व नवभारत। कुछ-कुछ युगधर्म भी। पत्रकारों में आपसी सामंजस्य व सद्भावना की कोई कमी नहीं थी लेकिन एक अजीब सी बात थी कि साथी पत्रकार एक दूसरे से मिलने-जुलने प्रतिद्वन्द्वी अख़बारों के दफ़्तरों में नहीं आते-जाते नहीं थे। पता नहीं ऐसा क्यों था? शायद एक वजह यह रही हो बाहर मुलाक़ात हो ही जाती है तो दफ़्तर जाने की क्या ज़रूरत? दूसरी बात थी अख़बार का काम चौबीस घंटे चलता है लिहाजा किसी की व्यस्तता में ख़लल क्यों डाले? और अंतिम बात नौकरी से जुड़ी हुई थी।

अगर आपके कही आने जाने की मीडिया बिरादरी में चर्चा शुरू हो गई तो मौजूदा प्रबंधन की नज़र में आप शक के दायरें में आ जाएँगे। हांलाकि ऐसी कोई बात नहीं थी। उन दिनों किसी को नौकरी से नहीं निकाला जाता था चाहे वह कितनी भी बडी ग़लती कर ले। मैं स्वयं का उदाहरण देता हूँ। बंदा ख़बरों की दुनिया में एकदम नया-नया था। अंग्रेज़ी भी कुछ ख़ास नहीं थी। रूस के तत्कालीन विदेश मंत्री आंद्रेई ग्रोमिको एक कार्यक्रम के दौरान मंच पर चक्कर आने से गिर पड़े। इसका अंग्रेज़ी में टेलीप्रिंटर पर समाचार आया। मैंने समझने ग़लती की और हिंदी में अनुवाद कर उनके मरने की ख़बर फ़्रंट पेज पर छाप दी। अगले दिन इस भारी भूल के लिए हंगामा मचना ही था। सो मचा , विशेषकर बिरादरी में। मैं आतंकित था। लगा भारी डाँट पड़ेगी और बाहर कर दिया जाऊँगा।

प्रधान संपादक और ललितजी के पिताश्री मायाराम सुरजन जी जिन्हें हम बाबूजी का संबोधन देते थे और जिनका प्रेम व ग़ुस्सा दोनों मशहूर था, माफ़ नहीं करेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। भरी मीटिंग में न डांट पड़ी और न नौकरी से निकाला गया। केवल समझाइश दी गई, अनुवाद ध्यानपूर्वक किया करें। लेकिन अब? अब तो नौकरियाँ मालिकों के मिजाज पर, मर्ज़ी पर है, उनके व्यावसायिक हितों पर और सत्ता पक्ष के नेताओं की पसंदगी-नापसंदगी पर निर्भर है।

बहरहाल चर्चा ललितजी। मुझे याद है उनसे हुई पहली मुलाक़ात।। वर्ष 1968 ।

मैं साइंस कालेज का छात्र था। भिलाई से आया था हायर सेंकेंडरी करके। रायपुर में अच्छे परिचितों में केवल रम्मू श्रीवास्तव थे। तब वे तत्कालीन नई दुनिया जो बाद में देशबंधु हुआ, में काम करते थे। अखबार का दफ़्तर सद्दानी चौक-बूढ़ा तालाब मार्ग पर हुआ करता था। एक दिन मैं रम्मू भैया से मिलने नई दुनिया कार्यालय गया। उनके पास बैठा ही था कि झक सफ़ेद पाजामा व कुर्ता पहने एक ख़ूबसूरत युवक रम्मू भैया के डेस्क के पास आया। भैया ने परिचय कराया- ‘ललित इससे मिलो, ये दिवाकर, मुक्तिबोध जी बेटा।’ पिताजी का नाम सुनकर ललितजी अभिभूत हो गए और मैं उन्हें देखकर।

परिचय के आगे कोई बातचीत नहीं हुई लेकिन उनके चेहरे पर प्रसन्नता का वह भाव जो मुझे उस समय नज़र आया वह मुझे आज भी नज़र आता है जब कभी उनसे मुलाक़ात होती है। कहना होगा पिताजी के प्रति आदर व श्रद्धा का प्रतिफल मुझे उनके स्नेह के रूप में हासिल है। अब वे उम्रदराज़ हैं और मैं भी। पर हम मन से युवा है। वे देशबंधु की लगभग समस्त ज़िम्मेदारियाँ से बरी हो चुके हैं और मैं भी अखबार की नियमित सेवा से स्वयं को तीन वर्ष पूर्व मुक्त कर चुका हूँ। ललितजी ख़ूब लिखते हैं, उनकी क़लम सतत चलती रहती है।

मैं कभी-कभार वाला हूँ। इतना कुछ लिखने का आशय ललितजी से तुलना करना क़तई नहीं है। सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि छत्तीसगढ में उनके जैसा ज़हीन, विवेकशील व क़लम का धनी पत्रकार कम से कम मेरे देखने में नहीं है। मैं करीब 45 बरसों से इस फ़ील्ड में ज़ोर-आज़माइश कर रहा हूँ। जिन संपादकों के मातहत मैंने काम किया, उनमें ललित जी निर्विवाद रूप से श्रेष्ठ हैं। वह इस दृष्टि से भी अग्रणी हैं कि उनकी भाषा-शैली मोहक है। इसके साथ ही घटनाओं को देखने , परखने व तह तक जाकर अपना दृष्टिकोण स्पष्टता के साथ रखने की क़ाबलियत है। इस कला में वे ख़ूब निपुण है।

आज के दौर की पत्रकारिता में लेखन की इन विशेषताओं पर ज्यादा ज़ोर नहीं दिया जाता। अखबारी भाषा, ख़ासकर हिंदी की कैसी दुर्गति हो रही हैं, हम देख ही रहे हैं।पत्रकारिता के दृष्टिकोण से आज व कल में जो बडा फ़र्क़ नज़र आता है, वह प्रशिक्षण, अध्ययन व फ़ालोअप का है। यहाँ फ़ालोअप का आशय घटनाओं के फ़ालोअप से नहीं, सुधार से है।

पहिले प्रशिक्षण पर विशेष ज़ोर दिया जाता था। अखबार का दफ़्तर ही वर्कशॉप हुआ करता था। जूनियरों की कोई अलग से क्लास नहीं ली जाती थी। उनके कामकाज पर सीनियरों की निगाह रहती थी। खबर में भाषा या तथ्य संबंधी जो ग़लतियाँ जूनियरों से होती थीं, वह पाइंट आउट की जाती थी, यह बताते हुए कि ऐसी त्रुटियाँ पुन: न हो। यह प्रशिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था। जाहिर है, इससे नींव मजबूत होती थी। ललितजी व सीनियर अपने सहकर्मी युवा पत्रकारों की नींव मजबूत करते थे।

प्रतिदिन सुबह की बैठक में उस दिन का लाल श्याही से गुदा हुआ अखबार हमारे सामने रख दिया जाता था। एक-एक खबर पर जगह-जगह गोले लगाकर गल्तियां चिन्हांकित की जाती थी। अखबार में खाली पड़ी जगह पर भी उनकी टिप्पणियाँ रहती थी। जब युवा साथियों को इस तरह सीखने को मिले तो जाहिर सी बात है नींव पर पक्की इमारत तो बननी ही है। इसीलिए देशबन्धु केवल अखबार ही नहीं, श्रेष्ठ, इमानदार व मूल्यपरक पत्रकारिता का स्कूल कहलाता था। समय की मार देखिए, स्कूल बहुत पीछे छूट गया अलबत्ता सौभाग्य से देशबंधु की यात्रा जारी है।

प्रोत्साहन। इस प्रोत्साहन का इन दिनों की पत्रकारिता में बडा टोटा है जबकि देशबंधु के उन दिनों में दूसरी ख़ासियत थी प्रोत्साहन, प्रेरणा। यह प्रेरणा ललितजी के माध्यम से निकलकर हमारे सीनियर्स से होते हुए हम तक पहुँचती थी। यानी जूनियरों को ज़िम्मेदारी और नया कुछ कर दिखाने की चुनौती। यही कारण है कि न केवल संपादकीय विभाग वरन ग्रामीण अंचलों के संवाददाताओं ने बड़ी-बडी स्टोरीज़ की जिनमें से कई राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत भी हुई। यह काम करते-करते सीखने के साथ-साथ दृष्टि सम्पन्नता का कमाल था।

छत्तीसगढ में कोई ऐसा अखबार नहीं था जो पत्रकारों के कौशल विकास पर ध्यान देता हो। हर खबर या स्टोरी जिसका व्यापक असर पड़ा हो, पर रिपोर्टर की पीठ थपथपाना व मीटिंग में तारीफ़ करना देशबंधु की एक और स्वस्थ परंपरा थी। पत्रकारों के लिए एक और नायाब तोहफ़ा था-लाइब्रेरी। देशबंधु लायब्रेरी। उस दौर में भी और छत्तीसगढ में आज भी ऐसी सुघड व समृद्ध लायब्रेरी किसी भी अखबार के दफ़्तर में नहीं है जबकि मीडिया पर कारपोरेट कल्चर हावी है। जाहिर देशबंधु लायब्रेरी का बहुत फ़ायदा मिला, इससे साथियों में अध्ययन के प्रति रूचि बढ़ी जो कि बेहतर अखबारनवीसी के लिए जरूरी शर्त है।

ललित जी की प्रतिभा बहुमुखी है। वे विचारों से साम्यवादी हैं। कवि हैं , लेखक व यात्रा-वृत्तांती। उनकी कई किताबें हैं , यात्रा संस्मरण हैं पर उनकी मूल पहिचान पत्रकार की है। राष्ट्रीय , अंतर्राष्ट्रीय , प्रादेशिक तथा स्थानीय मुद्दों पर उनकी क़लम निरंतर चलती रही है। उनके लिखे को ध्यानपूर्वक पढा जाता है। उनकी मंचीय अभिव्यक्ति भी कमाल की है। देशबंधु को उन्होंने सजाया, सँवारा, बढ़ाया। पर वे उसकी गिरावट के भी गवाह बने।

आज यह आधी सदी से अधिक पुराना अखबार किसी के लिए कोई चुनौती नहीं है। वह एक ऐसी भीड़ का हिस्सा बन गया है जहाँ सिर ही सिर नज़र आते हैं। लिहाजा किसी एक पर उँगली रखकर बताना मुश्किल है कि यह देशबंधु है। इतिहास गवाह है कि अन्यान्य कारणों से दैनिक समाचार पत्रों के जीवन में ऐसी घड़ी आती है जब वह गौरवशाली अतीत के सहारे सांसे लेता है और ज़िंदा रहता है। देशबंधु के साथ यही स्थिति है।

उसकी प्रसार संख्या भले ही बहुत घट गई हो पर मीडिया में उसका महत्व कम नहीं हुआ है। हम, देशबंधु स्कूल से निकले विद्दार्थी, गौरवान्वित भी है और व्यथित भी। जब हमारी यह स्थिति है तो कल्पना की जा सकती है कि अखबार को पिछड़ते देखकर ललितजी की क्या दशा होगी। यद्दपि उन्होंने स्वयम् को ज़िम्मेदारी से मुक्त कर लिया है लेकिन जिसमें प्राण बसते हो, उससे क्या वाकई दूर हुआ जा सकता है? देशबंधु यदि आज भी पाठकों के मन में बसा हुआ है तो वह इसलिए क्यों कि उसमें ललित जी है। उनके विचारपूर्ण लेख हैं, स्तम्भ हैं व यात्राएँ जिसके जरिए वे पाठकों को अपने साथ ले चलते हैं, बहुत ख़ूबसूरती के साथ।// 25 जुलाई 2020 /

(अगला भाग बुधवार 29 जुलाई 2020 को)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!