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बस्तर की सभा में ‘भरोसा’ जताने के लिए पहुंची भीड़ के ‘भरोसे’ की बात…

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दबी जुबां से / सुरेश महापात्र।

‘भरोसे का सम्मेलन’ तो ठीक है। यदि कांग्रेस के लोग जमीन पर भरोसा नहीं करेंगे तो नेताओं को उनकी करनी का ‘हश्र दिखाने का हुनर’ बस्तर को बेहतर आता है…

आज से पांच बरस पहले की बात है जब 9 नवंबर 2018 को विधानसभा चुनाव के मतदान से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल बाग में एक ऐतिहासिक सभा को संबोधित किया था। इस सभा में तब के बस्तर के सभी भाजपा विधायक और मंत्री मंच पर थे। मोदी ने भाई दूज का हवाला देकर भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करने की अपील की थी। इस चुनाव का परिणाम मोदी और भाजपा की सोच से विपरित रहा। बस्तर की 12 में 11 सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी हार गए।

बस्तर का मिजाज दअसल ऐसी ही कुछ है। यहां बाहर से देखकर भीतर का अंदाजा लगाना बेहद कठिन है। आदिवासी सौम्य और शांत रहते हैं पर बाजी ऐसी पलटते हैं कि राजधानी के सत्ताधीश चारों खाने चित्त हो जाएं। छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद मुख्यमंत्री अजित जोगी थी तब भी बस्तर में जोगी की सभा होती तो भीड़ उन्हें सुनने के लिए आती। उन्होंने समझ लिया था कि बस्तर की अराध्य देवी माता दंतेश्वरी के प्रति बस्तर की जनता की आस्था सबसे ज्यादा है तो उन्होंने एक शिगुफा हर सभा में कहना शुरू किया था कि ‘उन्हें माता दंतेश्वरी सपने में आई थी!’

बस्तर की जनता ने बाजी पलट दी ​थी। भाजपा ने जनमानस में 2003 में सेंधमारी की इसकी कल्पना भी करना कठिन था। केंद्रीय मंत्री का पद छोड़कर भाजपा संगठन की जिम्मेदारी संभालने वाले डा. रमन सिंह ने परिवर्तन यात्रा निकाली थी। उनकी सभा में तो छोड़िए मंच पर भी गिनती के लोग हुआ करते थे। पर 2003 में बाजी इस कदर पलटी की सभी भौचक थे। इसका मतलब साफ है कि सभाओं में भीड़ के सामने नहीं आने के बावजूद बस्तर की जनता ने भाजपा को वोट किया था।

और यही बात 2018 के चुनावों के बाद कांग्रेस के लिए साबित हो चुकी है। दो मंत्री केदार कश्यप, महेश गागड़ा केबिनेट मंत्री रहे। पूर्व मंत्री और कोंडागांव की पूर्व विधायक लता उसेंडी को नागरिक आपूर्ति निगम में अध्यक्ष का पद और केबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल था। जगदलपुर विधायक संतोष बाफना को बस्तर में पर्यटन मंडल अध्यक्ष, भाजपा संगठन के प्रभावशाली नेता श्रीनिवास मद्दी को वन विकास निगम अध्यक्ष समेत अनेक नेताओं को लालबत्ती का जलवा हासिल था। यानी सत्ता और संगठन में बस्तर के हिस्से में भागीदारी को लेकर कहीं कोई कमी जैसी बात रही ही नहीं। इन नेताओं में श्रीनिवास मद्दी को छोड़ सभी को भाजपा ने अपना प्रत्याशी बनाया था। और सभी पराजित हो गए।

विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस सभा से करीब छह से आठ माह पहले मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने प्रदेश के सभी जिलों में विकास यात्राएं निकाली और हर छोटे—बड़े कस्बों में सभाएं कीं थी। विकास यात्रा के दौरा सड़क पर उमड़ती भीड़ को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि भाजपा की बुरी गत होने वाली है। यानी सत्तारूढ़ दल के नेता मुगालते में थे और बस्तर की जनता मजे में…!

इस बार बस्तर में कांग्रेस के पास खोने के लिए बहुत कुछ है और बचाने की सबसे बड़ी चुनौती। पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम, मंत्री कवासी लखमा, संसदीय सचिव रेखचंद जैन, शिशुपाल सोरी, क्रेडा अध्यक्ष मिथिलेश स्वर्णकार, इंद्रावती प्राधिकरण अध्यक्ष राजीव शर्मा, बस्तर प्राधिकरण अध्यक्ष लखेश्वर बघेल, उपाध्यक्ष विक्रम मंडावी, संतराम नेताम जैसे नाम हैं।

भाजपा के पास खोने का भय ही नहीं है पर पाने के लिए बहुत कुछ है। सो कांग्रेस ने ‘भरोसे का सम्मेलन’ के साथ अपनी चुनावी तैयारी का प्रदर्शन बस्तर से किया है। कांग्रेस के पास जवाहर लाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक सभी बस्तर में पहुंच चुके हैं। बस प्रियंका गांधी वाड्रा पहली बार पहुंचीं।

जगदलपुर में लालबाग के उसी मैदान में यह सभा हुई जहां नवंबर 2018 में नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया था। तब मोदी की सभा में सारे नेता व प्रत्याशी मंच पर थे। इस बार प्रियंका की सभा में भी बस्तर के सारे नेता और मंत्री मंच पर थे। प्रियंका ने बस्तर में खुद को अपनी दादी इंदिरा, नाना जवाहर लाल नेहरू, पिता राजीव गांधी के साथ कनेक्ट करते हुए प्रभावित तो किया ही है। बस्तर की इस सभा में भीड़ की मौजूदगी को देखकर नेताओं के भीतर चल रहा अंतरद्वंद थोड़ा स्थिर हुआ।

प्रियंका की सभा में विधानसभा चुनाव के लिए भूपेश बघेल ने अपनी तरफ से ‘भरोसा’ जनता के प्रति अपनी नीतियों के क्रियान्वयन को लेकर स्थापित करने की कोशिश की। प्रियंका के भाषण में कांग्रेस के लिहाज से ताजगी की झलक ने कांग्रेसियों की उम्मीद बढ़ाई है। इस सभा में करीब 15 मिनट का भाषण उन्होंने दिया। इस भाषण में हल्बी से संबोधन की शुरूआत से अंत तक प्रियंका लोगों को बांधने में कामयाब रहीं। यही वजह थी कि मंच पर सीएम भूपेश बघेल काफी प्रसन्न रहे। और खुश भी क्यों ना हों जब 2023 के चुनावी अभियान की इस पहली सभा से वे अपने आलाकमान का भरोसा बनाए रखने के लिए ‘भीड़’ पेश कर चुके हों।

इस सभा के बाद बस्तर से कांग्रेस की अगली पीढ़ी की नेता के तौर पर प्रियंका को लांच करने के साफ संकेत दिखाई दिए। अब यह तो स्पष्ट है कि बस्तर में चुनावी वैतरणी के लिए सीएम भूपेश बघेल ने जिस ‘भरोसा’ को परोसा है। उसे लेकर बस्तर की जनता कितना महसूस करेगी। क्योंकि बस्तर का यह इतिहास रहा है कि सभाओं में भारी भीड़ आने के बाद भी किसी को भी मुगालता पालने का मौका नहीं दिया है।

इसका प्रमाण वर्तमान में भाजपा के सबसे बड़े नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। जिनकी सभा की बाद ना केवल बस्तर से सूपड़ा साफ हो गया बल्कि सांसद की सीट भी नहीं जीत पाए। दरअसल बस्तर में जब भी भीड़ खुद से इकठ्ठी होती है तो उसका मतलब लोगों के मन में नेता के प्रति अपनापन काम करता है। यदि भीड़ इकठ्ठा करने के लिए सरकारें सिस्टम का उपयोग करती हैं तो भीड़ तो दिखती है पर परिणाम सिफर रहता है।

यह आंकलन 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा की समीक्षा में निकला। भाजपा सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में पूरी तरह सरकार के सिस्टम के भरोसे खड़ी रही। डा. रमन के सलाहकार यह सोचते रहे कि जिले के कलेक्टर से लेकर पंचायत स्तर का सिस्टम कब काम में आएगा? उन्होंने संगठन की जगह सिस्टम को जिम्मेदारी सौंपना शुरू कर दिया। सिस्टम में तो यह ताकत होती है कि वह किसी सोते को भी सड़क पर खड़ा करके दिखा दे और उसे यंत्रवत वैसा ही करने को विवश कर दे जैसा उपर से निर्देश है।

यानी तमाम तामझाम गाड़ी से लेकर खाना तक में सिस्टम और गांव से लोगों को निकालने में भी सिस्टम का सक्रिय होना। आंतरिक तौर पर स्थनीय संगठन के नेताओं को कमजोर करता है। जनता समझती है​ कि जब उन्हें सिस्टम से ही अपनी समस्या का हल निकलाना है तो नेता का क्या काम?

बस्तर में होने वाली हर सभा में यही तरकीब काम में लाई जाती है। जिससे भीड़ तो दिखती है पर भीड़ की मौजूदगी से ‘भरोसा’ पालने वाले नेता धोखे के शिकार हो जाते हैं। यह भीड़ दिल्ली से पहुंचे किसी भी नेता को आपकी जमीनी पकड़ का एहसास तो करा सकती है पर उस जमीन पर पार्टी को उतना फायदा नहीं पहुंचाती है। इस बार प्रियंका गांधी की सभा के लिए बड़े पैमाने में तैयारी की गई। हर जिले से गाड़ी भर—भर कर लोगों को लाया गया। उन्हें वापस पहुंचाया भी गया।

इस ‘भीड़ के भरोसे’ में भूपेश रहेंगे तो धोखा हो सकता है। क्योंकि हमने देखा है इस तरह की आयतीत भीड़ जिसे सिस्टम ढोकर लाती है उससे तस्वीर तो बढ़िया बनती है पर इसकी तासीर खराब है। यह मोदी जी भी जान गए हैं। कहने का मतलब यही है कि ‘भरोसे का सम्मेलन’ तो ठीक है। यदि कांग्रेस के लोग जमीन पर भरोसा नहीं करेंगे तो नेताओं को उनकी करनी का ‘हश्र दिखाने का हुनर’ बस्तर को बेहतर आता है।

और अंत में…

प्रियंका गांधी ने अपने भाषण में एक बात का जिक्र किया जिसके सियासी मायने तलाशें जा रहे हैं ‘भूपेश बघेल कभी नकारात्मक बातें नहीं करते, कभी किसी की चुगली नहीं करते…!’ मंच पर टीएस सिंहदेव भी बैठे थे। दो सवाल हैं क्या निशाने पर बाबा थे? उनके सिवाए कोई दूसरा प्रियंका तक चुगली कर सके इतनी ताकत क्या किसी और के पास भी है? खैर आप ‘राजेश तिवारी और मोहन मरकाम भी सोच सकते हैं!’

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