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सुशील की मौत की खबर ने स्तब्ध कर दिया… एक पत्रकार मित्र का इतना कारूणिक अंत! मन अभी भी उदास है… सफ़रनामा दिवाकार मुक्तिबोध

छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक दिवाकर जी… ने पत्रकारिता का पढ़ा है जिया है और अब भी जी रहे हैं… वे अपना सफ़रनामा लिख रहे हैं… कुछ यादें कुछ बातें-7

सुशील त्रिपाठी की यादें – बात कहां से शुरू करें ? कोई सिरा पकड़ में नहीं आ रहा। बहुत सोचा काफी माथापच्ची की। अतीत में कई डुबकियां लगाई। कई सिरे तलाशे। लेकिन हर सिरे को दूसरा खारिज करता चला गया। थक-हार कर सोचा, दिमाग खपाने से मतलब नही। कागज कलम एक तरफ रखें और चुपचाप आराम फरमाएं।

लेकिन क्या ऐसा संभव है? मन में कहां शांति? किस कदर बेचैनी होती है इसे हर शब्दकार बेहतर जानता-समझता है। सो शांति तभी मिलेगी, जब किसी एक सिरे को जबरिया पकड़कर लिखना शुरू कर दें। किन्तु यह भी क्या कम मुश्किल है। बात फिर घूम फिरकर वहीं आ जाती है, शुरूआत बढ़िया होनी चाहिए, तसल्लीबख्श होनी चाहिए। लिहाजा दिमाग के घोडे पूर्ववत दौड़ते रहे और उस पर सवार सैनिक गर्दन से लिपटा पड़ा रहा, सोच में डूबा हुआ, थका-हारा।

एक दिन एकाएक ख्याल आया सुशील त्रिपाठी से शुरूआत की जाए। उत्तर प्रदेश के इस प्रतिभाशाली पत्रकार की मौत की खबर स्तब्धकारी थी। कुल जमा लगभग 30 वर्षों के परिचय में मेरी उनसे केवल दो बार मुलाकात हुई थी। 1980 में उस समय जब मैं देशबंधु की ओर से एडवांस जर्नलिज्म का वर्कशाप अटैंड करने बनारस गया था। 15 दिन बीएचयू के गेस्ट हाऊस में रहा और इस दौरान तीन या चार दफा सुशील से मुलाकात हुई।

पहली मुलाकात हुई काशीनाथ जी के यहां। काशीनाथ सिंह प्रख्यात कथाकार। उनसे मिलने अस्सी स्थित उनके घर गया था। वे अभिभूत हुए, बेहद खुश। उन्होने प्रस्ताव रखा मैं दुबारा आऊं तथा छात्रों से पिताजी के संस्मरण सुनाऊं। मै गया और वहीं कईयों से परिचय हुआ, मित्रता हुई। सुशील उन्हीं में से एक थे।बनारस की मीठी यादें लेकर रायपुर लौटा। सुशील से कुछ समय तक चिट्ठी-पत्री हुई। इस बीच उन्होंने बहुत सारे रेखा चित्र इस उम्मीद के साथ भिजवाएं कि साहित्य विशेषांक में उनका इस्तेमाल करूं। वे रेखाचित्र ज्यों के त्यों पड़े रह गए।

दुर्भाग्य से उनका कहीं उपयोग नहीं किया जा सका। जैसा कि अमूमन होता है चिट्ठियां दूरियां घटाती जरूर हैं पर उनकी निरंतरता बनाए रखना प्राय: कठिन होता है। फिर यह टू वे प्रोसेस है। यदि दोनों पहिए ठीक से घुमते रहे तो सफर तय होता रहता है। पर एक की भी गति धीमी हुई या थम गई तो संबंधों पर पूर्ण विराम लगते देर नहीं लगती अलबत्ता उसकी उष्मा जिंदगी भर कायम रहती है। सुशील के साथ ऐसा ही हुआ। पत्र बंद हो गए। मेरा भी बनारस जाना कभी नहीं हुआ।

सुशील की खोज खबर नहीं मिली। अलबत्ता यादें तरोताजा रहीं। आत्मीयता के धागे टूटते नहीं हैं क्यों कि वे भावनाओं के रिश्ते में गुथे हुए रहते हैं। शायद अक्टूबर2008 की बात है सुशील का फोन आया ‘रायपुर में हूं मिलने आ रहा हूं’। दैनिक भास्कर के दफ्तर में वे आए। करीब 27 बरस बाद उन्हे देख रहा था। डील डौल एकदम बदल गया। आते ही गले मिले। यादों को बांटने का सिलसिला शुरू हो गया।

सुशील ने बताया नामवर जी रायपुर आए थे, ‘इस राह से गुजरते हुए’ का विमोचन करने। उन्होने कहा था रायपुर में मिलना और उससे किताब ले लेना।मैंने अपनी किताब उन्हें भेंट की। पन्ने पलटते हुए उन्होंने बताया नामवर जी एवं काशीनाथ जी से मुलाकातें होती रहती है। बनारस-बनारस है। उस जैसा शहर कहां? उस जैसे लोग कहां? सारी मित्र मंडली रोज इकट्ठी होती है। वामपंथ की दुर्दशा को लेकर दुनिया जहान की बातें। खूब मजा।

इस छोटी सी मुलाकात में सुशील ने अपनी निजी जिंदगी के बारे में कुछ नहीं बताया। अलबत्ता कॉफी हाउस से लौटते हुए उन्होने कहा- भास्कर में या कहीं और नौकरी की अच्छी गुंजाइश बने तो जरूर इत्तला करें, कोशिश करें। उन्होने बताया बनारस में वे दैनिक हिन्दुस्तान के लिए काम कर रहे हैं। साहित्य एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को कव्हर करते हैं। जिंदगी चल रही है। परिवार में जिम्मेदारियां अभी कम नहीं हुई है।

करीब डेढ़ दो घंटे साथ बिताने के बाद सुशील चले गए। दूसरे दिन मिलने के वादा करके। पर नहीं आए। अलबत्ता काशी के लिए रवाना होने के पूर्व उन्होने फोन किया। आश्वासन दिया दुबारा रायपुर समय लेकर आएंगे। पर वह समय नहीं आया। हालांकि इस बीच उनका फोन आया, बातें हुई। मैं निश्चिंत था। सुशील मजे में होंगे। उनकी बात याद थी। उनके लिए बेहतर जगह तलाशने की पर आजकल अखबारों में प्राय: गुंजाइशें उन्हीं के लिए बनती हैं जो सबंधों को भुनाना जानते हैं तथा इसके लिए सायास प्रयास करते हैं।

मैं इसमें कच्चा हूं, सुशील भी निश्चय ही कच्चे होंगे। वरना उनके जैसे प्रतिभाशाली पत्रकार एवं चित्रकार के लिए अच्छी नौकरी मुश्किल नहीं होनी चाहिए थी।सुशील को गए तीन चार महीने हो गए। सन 2008 बीता।

जनवरी 2009 में इप्टा के अभा. मुक्तिबोध नाट्य समारोह में काशीनाथ जी से मुलाकात हुई। उनसे सहज पूछा- सुशील कैसे हैं?- ‘मर गए। रिपोर्टिंग के लिए किसी पहाड़ पर चढ गए थे। पैर फिसला, गिर गए। तीन चार दिन अस्पताल में बेहोश पड़े रहे। नहीं न बच पाए।’काशीनाथ जी से उनके निधन की खबर सुनकर स्तब्ध रह गया। फिर मन नहीं लगा। बीच कार्यक्रम से लौट आया। सारी रात सुशील सपने में आए और बातें करते रहे।

एक पत्रकार मित्र का इतना कारूणिक अंत! मन अभी भी उदास है। उनके रेखाचित्र मैंने सहेजकर अलग रख दिए हैं। मैं नहीं जानता था कि उनके चित्र याद बनकर रह जाएंगे। उन्हें देखता हूं तो मन भर आता है।//06 अक्टूबर 2014//

(अगला अंक 19 अगस्त बुधवार को)

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