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70-80 के दशक में क्षेत्रीय मीडिया को खंगालने का काम कोई युवा पत्रकार कर सकेगा, ऐसा सोचना भी कठिन था लेकिन तेज़िंदर ने वह कर दिखाया… सफरनामा दिवाकर मुक्तिबोध

छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक दिवाकर जी… ने पत्रकारिता को पढ़ा है, जिया है और अब भी जी रहे हैं… वे अपना सफ़रनामा लिख रहे हैं… कुछ यादें कुछ बातें-10

#तेज़िंदर_गगन : प्रख्यात उपन्यासकार, कथाकार, कवि व पत्रकार। आकाशवाणी व दूरदर्शन का एक ऐसा मस्तमौला अधिकारी जिसने नौकरी के सिलसिले में देश के तमाम बड़े शहरों की ख़ाक छानी और अंतत: अपने घर-शहर रायपुर में आकर रिटायर हुआ। तब मुलाकातों व बातचीत का दौर तेज़ हुआ और जैसा कि मैंने कहा मोबाइल पर हमारी बातचीत पुरज़ोर ठहाकों के बाद शुरू होती थी। – दिवाकर मुक्तिबोध

हेलो,
उधर से ठहाका गूंजा।
जवाब में इधर से भी जोरदार।
मोबाइल पर एक हेलो ने कम से कम दो मिनट तक दो दोस्तों को कुछ भी बोलने से रोक दिया। केवल हँसी की फुलझड़ियाँ छूटती रहीं। जब हँसते-हँसते मन भर गया तो बातचीत शुरू हुई । कहाँ हो , कैसे हो, क्या चल रहा है। इत्यादि -इत्यादि । प्रेम की बातें, उलाहने की बातें, लिखाई-पढ़ाई की बातें। वो दोस्त अब इस दुनिया में नहीं है पर उसकी वह हँसी, वे ठहाके और वह दमकता चेहरा आँखों के सामने रह -रह कर आता है और खिलखिलाने के बाद पूछता है – ‘ यार भाई कैसे हो।’
नाम है तेज़िंदर गगन।

प्रख्यात उपन्यासकार, कथाकार, कवि व पत्रकार। आकाशवाणी व दूरदर्शन का एक ऐसा मस्तमौला अधिकारी जिसने नौकरी के सिलसिले में देश के तमाम बड़े शहरों की ख़ाक छानी और अंतत: अपने घर-शहर रायपुर में आकर रिटायर हुआ। तब मुलाकातों व बातचीत का दौर तेज़ हुआ और जैसा कि मैंने कहा मोबाइल पर हमारी बातचीत पुरज़ोर ठहाकों के बाद शुरू होती थी।

दोस्तों में केवल तेज़िंदर ही ऐसे थे जिनकी ज़िंदादिली जीवन में अनोखा आनंद भर देती थी। नतीजतन मोबाइल पर हो या आमने -सामने , हास्य अनायास प्रस्फुटित होता था। वह हास्य तो अब लुप्त हो गया पर ह्रदय पर उसकी छाप बहुत गहरी है और उसके इस भौतिक संसार में न रहने के बावजूद हर पल उसकी उपस्थिति का अहसास कराती है।

तेज़िंदर से लगभग चार दशक पुरानी मित्रता। हमारे देशबन्धु के ज़माने से। वह भी देशबन्धु में रहे और मैं भी। हालाँकि हमने कभी एक साथ काम नहीं किया लेकिन मैं उन्हें अपने एक मित्र की वजह से पहले से जानता था। शायद तब वे एग्रीकल्चर कालेज के छात्र थे तथा देशबंधु के दफ़्तर में उनका आना-जाना था। उनसे मेरी कोई गाढ़ी पहिचान नहीं हुई।

दफ़्तर में वे और भी लोगों से मिलते थे, उनके पास बैठते थे पर मेरी वाक़फियत केवल दुआ-सलाम तक सीमित थी। कृषि विज्ञान में डिग्री लेने के बाद वे अखबार की नौकरी में आए और तब मेरा उनसे वास्तविक परिचय हुआ और कुछ-कुछ दोस्ती भी। उनकी पत्रकारीय दृष्टि कितनी पैनी थी , इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मीडिया पर उनका पहिला उपन्यास ‘ फिसलते हुए’ हाथ लगा।

70-80 के दशक में क्षेत्रीय मीडिया को खंगालने का काम कोई युवा पत्रकार कर सकेगा , ऐसा सोचना भी कठिन था लेकिन तेज़िंदर ने वह कर दिखाया हालाँकि इस लघु उपन्यास की कोई ख़ास चर्चा नहीं हुई। इस घटना से मैने जाना कि वे क़लम के धनी हैं , असाधारण हैं और उनका सानिंध्य हर किसी के लिए लाभप्रद है।

सो , हमारे बीच बातचीत शुरू हुई लेकिन दोस्ती गाढ़े में तब्दील हो , इसके पूर्व ही वे नौकरी के चक्कर में यहां-वहाँ यानी इस शहर से उस शहर , होते रहे और रायपुर से निकल भी गए। किंतु बीच-बीच में फोन पर बातचीत होती रही और छुट्टियों में रायपुर आने पर यदा-कदा मुलाक़ात भी।
दशक पर दशक बीत गए और इस बीच तेज़िंदर हिंदी साहित्य की दुनिया में एक बडा नाम बन गए। मुझे यह कहने दीजिए कि हमारी मित्रता में गहरी आत्मीयता का पुट तेज़िंदर की घर वापसी के बाद ही आया।

यानी उनके जीवन के अंतिम सात-आठ वर्षों मे हमने एक-दूसरे को बेहतर तरीक़े से जाना-समझा। चूँकि मैं ख़ालिस पत्रकार था लिहाजा हमारी चर्चा के केन्द्र में साहित्य कम मीडिया ज्यादा रहता। जाहिर है बीते हुए दिनों व साथियों को याद करते हुए आज की पत्रकारिता की दुरावस्था पर अफ़सोस व्यक्त करने के साथ बातचीत का पटाक्षेप होता था।

जब कभी मुझे अतिरिक्त ऊर्जा की ज़रूरत महसूस होती, मैं तेज़िंदर को फोन लगाता और दिल को सुकून देने वाले ठहाके सुनकर ख़ुश होता। एक दिन उन्हे तब बेहद ख़ुशी हुई जब मैंने किताबों की अपनी रैंक से उनका नावेल निकाला और उन्हे भेंट कर आया। उनके पास ‘फिसलते हुए ‘ की कोई प्रति नहीं थी। अपनी पहली किताब पाकर वे भाव-विभोर हो गए। तेज़िंदर को ख़ुश देखकर मुझे अपार संतोष हुआ क्योंकि किताब बहुत सही जगह पहुँच गई, मुझसे कहीं अधिक उन्हें इसकी ज़रूरत थी।

तेज़िंदर हाँ में हाँ मिलाने व्यक्ति नहीं थे। वैचारिक विमर्श के दौरान तार्किकता के साथ असहमति भी जाहिर करते। वे सच्चे दोस्त थे अत: सलाह लेने-देने में उन्हे हिचक नहीं होती थी।दो वर्ष पूर्व तत्कालीन भाजपा सरकार ने साहित्य के राज्य स्तरीय पुरस्कार के लिए उन्हें चुना। वे सोच में पड़ गए। यहाँ विचारधारा का सवाल था। दक्षिणपंथी सरकार से पुरस्कार स्वीकार करें अथवा नहीं। उन्होंने मेरी राय ली। संभवत: अन्य मित्रों से भी पूछा होगा।

मैंने स्पष्ट शब्दों कहा कि पुरस्कार लेने में कोई हर्ज नहीं। अंतत: यह जनता का पुरस्कार है, जनता द्वारा निर्वाचित सरकार का। यह सुनकर वे किसी नतीजे पर पहुँचे। उन्होंने राज्य सम्मान स्वीकार किया। ऐसे ही एक बार मैंने उनसे कहा कि छत्तीसगढ की नक्सल समस्या पर मेरा लिखा काफी है अत: एक किताब बन सकती है। लेकिन मैं चाहता हूँ उन टिप्पणियों को आप देख लें और राय दें। तेज़िंदर ने सहर्ष इसे स्वीकार किया।

मैंने अगले दिन समूची सामग्री उनके पास भिजवा दीं। फिर करीब बीस दिन बाद हम मिले। उन्होने लेखन की तारीफ़ की पर यह सुझाव भी दिया इन्हें इस तरह न छापा जाए। घटनाओं को आधार बनाकर उपन्यास की शक्ल दी जाए। मेहनत का काम है पर ऐसा करने से इसकी पठनीयता और बढ़ेगी। यह सुनकर मैं थोड़ा निराश हुआ लेकिन मुझे बात ज़मीं।

यह अलग बात है कि तेज़िंदर द्वारा लौटाया गया गठ्ठा जस का तस रखा हुआ है। उसमें तेज़िंदर का स्पर्श है और इसे मैं महसूस करते रहना चाहता हूँ। उनके सुझाव के अनुसार किताब बना पाऊँगा कि नहीं , कह नहीं सकता क्योंकि अपने लिखे हुए की पुन: शक्ल बदलना मेरे जैसे आलसी के लिए कठिनतर कार्य है। लेकिन यदि यह कर सका तो निजी तौर पर जीवन की एक बडी उपलब्धि होगी।

यों मेरा मित्र-संसार काफी बडा है। एक ही शहर में आधी से अधिक सदी गुज़ारने से ऐसा होना स्वाभाविक है। लेकिन आमतौर पर एक-दूसरे की ज़िंदगी में साधिकार झाँकने ,ज़रूरत पड़ने पर दखल देने और दिल से दिल मिलने वालों की संख्या बहुत कम ही होती है। इसे ही हम अभिन्न कहते हैं। अभिन्न मित्र। तेज़िंदर का यही दर्जा था। ऐसे दोस्त को असमय खोना, ज़िंदगी में बहुत कुछ खोने जैसा है। यक़ीनन।

// 10 सितंबर 2019// (अगला भाग शनिवार 29 अगस्त को)

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