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शराब बंदी पर भूपेश की साफगोई… क्या होगा ‘गंगाजल’ वाली कसम का?

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‘ओ साकी साकी… रे… साकी साकी.. आ पास आ… रह ना जाए, कोई ख्वाहिश बाकी!’ फिल्म बॉटला हाउस के इस गाने के बोल को आत्मसात करते हुए छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने गंगाजल की सौंगध को तोड़ने का संकेत दे दिया है। छत्तीसगढ़ में शराब बंदी अब तब तक नहीं होगी जब तक शराबी शराब पीना चाहेंगे… 

दबी जुबां से… सुरेश महापात्र।

2018 में कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में प्रदेश में शराबबंदी को लेकर किए गए वादे की सबसे ज्यादा चर्चा रही। इसके लिए पूरे चार साल तक कमेटी—कमेटी खेलने के बाद अपने अंतिम दौर में सीएम भूपेश बघेल ने यह साफ कर दिया है कि इस वादे को भूल जाना ही सही होगा! हांलाकि राजनीति में सबसे बड़ा खेल तो चुनावी वादे का ही होता है। जिसे चुनावी जुमला कह कर पतली गली से निकलने में ही भलाई है।

दरअसल राजनीतिक दल वोट की खातिर क्या—क्या वादे नहीं कर जाते? सारे वादों को पूरा करना अक्सर बेहद कठिन होता है। कुछ ऐसे ही फांस में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार फंसी है। मामला ‘शराब बंदी’ से जुड़ा हुआ है। शराब बंदी का मतलब ‘रेवेन्यू’ से जुड़ा है ही साथ ही शराबियों की जरूरत भी है। रेवेन्यू का मतलब ‘आन दी रिकार्ड’ और ‘आफ दी रिकार्ड’ दोनों तरह से प्रभावित होगा। यदि शराबबंदी हो गई तो राज्य सरकार और सत्तारूढ़ दल दोनों की ‘जीडीपी’ प्रभावित होना तय है।

यही वजह है कि ‘ओ साकी साकी… रे, साकी साकी.. आ पास आ… रह ना जाए, कोई ख्वाहिश बाकी!’ फिल्म बॉटला हाउस के इस गाने के बोल को आत्मसात करते हुए छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने गंगाजल की सौंगध को तोड़ने का संकेत दे दिया है। छत्तीसगढ़ में शराब बंदी अब तब तक नहीं होगी जब तक शराबी शराब पीना चाहेंगे! यानी शराबियों के लिए यह पैगाम साफ है कि वे छत्तीसगढ़ की जीडीपी में अपनी भागीदारी देते रहेंगे…।

माना जा रहा है कि इसी रेवेन्यू सिस्टम पर अटैक करने के लिए हालिया ईडी के छापों में शराब लॉबी को निशाने पर लिया गया। छापों के बाद रेवेन्यू के खेला को लेकर ‘अंदर की कहानी’ फिलहाल बाहर तो आई नहीं है पर यह साफ दिखाई दे रहा है कि ईडी के छापे चुनावी राजनीति को बुरी तरह से प्रभावित करने वाले हैं। इससे पहले कोल ट्रांसपोर्ट से जुड़े सिस्टम पर ताबड़तोड़ कार्यवाही की गई। इससे कोल ट्रांसपोर्ट के भीतर लेवी वसूली का खेल भी बाहर आया है। कई प्रभावशाली जेल में हैं। इससे बड़ी बात तो यह है कि यदि छापों से रेवेन्यू पाइप लाइन कट हो गई तो चुनावों में बहुत बड़ा प्रभाव भी दिखाई देगा।

बेरोजगारी भत्ता : सांप भी मरे, लाठी भी ना टूटे..

छत्तीसगढ़ में जब कांग्रेस ने अपना घोषणा पत्र जारी किया था तो बहुत से वादे किए थे। करीब—करीब सारे वादों को जैसे—तैसे पूरा करते हुए सरकार ने अपने अंतिम बजट में बेरोजगारी भत्ता के लिए एक अप्रेल 2023 से द्वार खोल दिया। विपक्ष में बैठी भाजपा इस योजना को लेकर भले ही जो भी आरोप लगाती रहे पर सरकार के स्तर पर बेरोजगारी भत्ता तो लागू कर ही दिया गया है। इस योजना के तहत छत्तीसगढ़ सरकार ने ‘सांप भी मर जाए लाठी भी ना टूटे’ वाली तरकीब लगाई है।

परिवार से किसी एक बेरोजगार के लिए दो बरस तक भत्ते का प्रावधान किया है। इसके लिए सालाना आमदनी की लक्ष्मण रेखा ढाई लाख रूपए भी तय कर दी है। यानी साफ है कि बेरोजगारी भत्ता पाने के लिए अभ्यर्थी अपना आधार नंबर डालते ही समझ जाएगा कि यह योजना केवल समाज के सबसे कमजोर वर्ग के शिक्षित बेरोजगारों के लिए ही है। देखा जाए तो नैतिक आधार पर यह उचित भी है कि बेरोजगारी भत्ता के लिए पात्र अभ्यर्थी जरूरतमंद होना ही चाहिए।

डीएमएफ पर आंच… पीसीसी अध्यक्ष मरकाम की फांस!

विधानसभा सत्र के बाद यकायक छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अध्यक्ष को बदलने की कवायद चल रही है। खुलकर कोई कुछ बोल तो नहीं रहा है पर यदा—कदा कई बातें लीक की जा रही हैं। जिससे साफ संकेत है कि आने वाले दिनों में पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम चार बरस का कार्यकाल पूरा करने के बाद पूर्णकालिक कोंडागांव विधायक हो जाएंगे। उनकी जगह पर बस्तर सांसद दीपक बैज को शिफ्ट करने की तैयारियों की खबरें मीडिया में सुर्खियां बटोर रही हैं।

केंद्रीय नेतृत्व के साथ मुलाकात और छत्तीसगढ़ प्रभारी कुमारी शैलजा के साथ लंबी चर्चा ने मरकाम की रवानगी की खबरों को बल दिया है। दीपक बैज एक्टिव सांसद हैं। उनके नाम एक रिकार्ड दर्ज है कि उन्होंने अब तक बस्तर के सांसद के तौर पर संसद में सबसे ज्यादा सक्रिय भूमिका प्रदर्शित किया है। सवाल पूछे, बहस में हिस्सा लिया और कई मांगों को मनवाने में ताकत भी लगा दी। यानी बस्तर के इस युवा नेता में भविष्य देखा जा सकता है।

वैसे भी छत्तीसगढ़ में केंद्रीय जांच एजेंसियों का बुरी तरह दबाव झेल रही राज्य सरकार के लिए जब संगठन का प्रमुख ही चुनौती बनने लगे तो क्या ही किया जाए? पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम क्यों फेल हो गए?

इस सवाल का जवाब बस्तर के ही एक विधायक ने कुछ इस तरह से दिया ‘आप विधायक हैं यदि डीएमएफ के मद से हो रहे निर्माण की गड़बड़ी का कोई मसला उठाएंगे तो बहस जिला कलेक्टर के हिस्से में पहुंचेगी। आपने डीएमएफ को लेकर जो सवाल उठाया उससे सरकार की छवि पर प्रभाव पड़ा। कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।’

बात बिल्कुल साफ है ‘यदि आप कमीशन खोरी का आरोप लगाएंगे तो सरकार की छवि पर दाग लगेगा। संगठन के प्रमुख के तौर पर इस तरह से सरकार को घेरने से हानि तो होना ही है।’ वैसे भी विधानसभा में सवाल करने के बाद विपक्षी भाजपा ने हमला किया तो कांग्रेस ने ‘कांटे से कांटा निकालने’ की शैली का उपयोग किया है।

और अंत में…

एक अफसर ने दावा किया ‘छत्तीसगढ़ में ईडी के छापों के बाद टॉप ब्यूरोक्रेट संतुलन की स्थिति में आते दिख रहे हैं। जमीन पर सत्ता के समीकरणों को लेकर फीडबैक लेने का क्रम शुरू कर दिया है।’ जैसे ही कंफर्म होगा कि ‘खेला की तैयारी है’ फिर देखिए ब्यूरोक्रेट का असली रंग…

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