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हमे अपनी वही पुरानी शिक्षा पद्धति लौटा दो… जिसमें गुरूजी से डर लगता था और…

  • सुरेश महापात्र।

शिक्षा को लेकर इतने सारे प्रयोग हो चुके हैं कि अब किसी गैरवाजिब प्रयोग की मुख़ालफ़त कर देना चाहिए। शिक्षा पद्धति में बदलाव के नाम पर सरकारों ने शिक्षा का बाजारूकरण ज्यादा किया है और हिंदी—अंग्रेजी, निजी—सरकारी स्कूल के वर्गभेद की दीवार खड़ी करने के सिवाए कुछ बेहतर नहीं किया है। आप जरा याद करें कि शिक्षा पद्धति में अब जो बदलाव किए जा रहे हैं क्या वे उस स्थिति से बेहतर हैं जो हमने 1985 से पहले देखा है? शायद नहीं!

वजह साफ है कि हमे बीते दौर में जिस शिक्षा प्रणाली ने योग्य बनाया वह कम से कम अयोग्य प्रणाली तो नहीं थी। आज की शिक्षा पद्धति में ‘गुरूजी’ शब्द पूरी तरह गायब हो चुका है। हमारे दौर में प्राथमिक शाला में पढ़ने जाने पर हमने हमेशा ‘गुरूजी’ संबोधन का ही प्रयोग किया। मिडिल स्कूल जाने के बाद हमे शिक्षक—शिक्षिका को सर—मैडम कहने की आजादी मिली। इसके बाद कक्षा नवमीं में विषय चयन और कक्षा 11वीं में बोर्ड की परीक्षा पास करने के बाद तीन साल कॉलेज की पढ़ाई।

यानी पांचवी बोर्ड, आठवीं बोर्ड के बाद 11वीं बोर्ड और उसके बाद स्नातक। यही क्रम था। हांलाकि हमारे दौर में कक्षा आठवीं के बाद यह क्रम टूट गया। कक्षा आठवीं तक सब कुछ ठीक ही रहा। पढ़ाई भी और पढ़ाने वाले भी।

मैंने गोलबाजार के सदर स्कूल से प्राथमिक शिक्षा हासिल की। तब के समय में पाटे में बैठकर पढ़ने और सीखने की यादें अब भी ताजा हैं। बहुत से सहपाठी अब भी याद हैं। ‘गुरूजी—बहनजी’ के चेहरे धुंधले हैं फिर भी यादाश्त में शामिल हैं। मजाल है कोई पैंसठ प्रतिशत से ज्यादा अंक ले आए। पाठ पढ़ना, इमला लिखना, हाथ उठाकर प्रश्नोत्तरी में शामिल होना, स्लेट में लिखकर दिखाना। गलती करने पर गुरूजी—बहनजी से सोटा खाना। भूला नहीं जा सकता।

वैसे मैंने सदर स्कूल में कक्षा दूसरी से प्रवेश लिया था। कक्षा पहली की शिक्षा कांकेर के मुहरबंद प्राथमिक शाला में ली थी। ‘बाबूजी’ हम उन्हे अपनी मातृभाषा में ‘नाना’ कहते थे (वस्तुत: मूल भाषा उड़िया में ‘नना’ का ही यह उच्चारण हैै।) उनका तबादला जगदलपुर होने के बाद वापस लौटे थे।

इसके बाद 1977 में कक्षा दूसरी में जगदलपुर गोल बाजार के पास स्थित सदर स्कूल में दाखिला मिला। हमारे ‘नाना’ सदर स्कूल लेकर पहुंचे। तब प्रधान पाठक जी ने बहुत पूछताछ की। सवाल—जवाब किए। बाएं हाथ को सिर के उपर से घुमाकर दाएं कान को पकड़ने के लिए भी कहा…। अक्षर ज्ञान की जानकारी ली। जब संतुष्ट हुए तब मिला था दाखिला।

कक्षा दूसरी से कक्षा पांचवी तक की पढ़ाई सदर स्कूल में ही पूरी की। 5वीं उत्तीर्ण होने के बाद कक्षा छठवीं में भर्ती के लिए बस्तर हाईस्कूल के भीतर संचालित मिडिल स्कूल में दाखिले के लिए मशक्कत शुरू हई। यहां छंटाई होती थी। सबकी कोशिश की यहीं दाखिला मिल जाए। यहां दाखिला नहीं मिलने पर राष्ट्रीय विद्यालय और विवेकानंद स्कूल की ओर रूख करना पड़ता था। 

भौगोलिक दृष्टिकोण से बस्तर हाईस्कूल जगदलपुर शहर का केंद्र भी था। आप कुम्हार पारा से शहीद पार्क से होते हुए चांदनी चौक पार कर सीधे पहुंच सकते थे। पावरहाउस चौक, ब्राम्हण पारा, कोष्ठा पारा, ठाकुर रोड, गोलबाजार, इतवारी बाजार, पैलेस रोड से भी सीधे पहुंच सकते थे। इस स्कूल में पूरे जगदलपुर शहर के विद्यार्थी पढ़ते थे। हर कक्षा के लिए कम से कम चार शाखाएं ए, बी, सी, डी हुआ करती थी। यही क्रम होता था। जैसे कक्षा 6वीं ‘सी’ में एउमिशन मिला तो 8वीं तक उसे ‘सी’ में ही पढ़ना होता था।

हेड मास्टर मुदलियार सर और उनकी छोटी लाल बेंत को शायद ही कोई भूला होगा। डीएल दुबे सर, महापात्र सर, यदु सर और क्षत्री मैडम तो पूरी तरह याद हैं बहुत से चेहरे जेहन मे हैं पर नाम—उपनाम याद नहीं। वैसे इन सभी से अपना पाला पड़ा था इसलिए भूलना संभव भी नहीं है। कक्षा 6वीं में जाने के बाद पहली बार अंग्रेजी से साक्षात्कार हुआ। अल्फाबेट ‘ए’ से ‘जेड’ तक का सफर शुरू हुआ और कुछ पाठों के साथ खत्म हुआ। 

कक्षा 8वीं तक अंग्रेजी के पाठ पढ़ने और समझने लायक हो गए। मिडिल स्कूल में भी बहुत से सहपाठी बने। मुदलियार सर के बेंत से कभी पाला नहीं पड़ा पर कईयों को सोंटा लगते मैंने अपनी आंखों से देखा है। यदि मुदलियार सर भ्रमण में हों तो पूरे स्कूल में सन्नाटा पसर जाता था। ये खौफ ही उनकी उनकी प्रतिष्ठा थी। इस भय के बहुत से कारण थे। वे हम विद्यार्थियों के नैतिक शिक्षा पर ज्यादा बल देते थे। समय का अनुशासन और होमवर्क के साथ स्वच्छ कपड़े और सिर के बाल से लेकर नाखुन तक पे उनकी नज़र रहती थी। कहीं कोई कमी ना रह जाए यह सभी की कोशिश होती थी।

उस दौर के प्राइमरी से मिडिल स्कूल तक अक्षर ज्ञान से लेकर भाषा ज्ञान, विषय सम्मत पाठ और नैतिक शिक्षा के किसी भी अध्याय को भुलाया नहीं जा सकता। इस शिक्षा पद्धति से हमारी पीढ़ी तैयार हुई। संभवत: हमसे पहले वाली पीढ़ी भी इसी पद्धति से ही शिक्षित हुई थी। तब शिक्षा का बाजारूकरण नहीं था। इस दौर में जगदलपुर में निजी स्कूल के तौर पर क्रिश्चियन मिशिनरी का निर्मल विद्यालय और कुछ समय बाद बाल विहार स्कूल संचालन में आया। 

कहने का आशय यह है कि शिक्षा पद्धति में बदलाव को लेकर किए गए प्रयोग का पहला शिकार हमारी बैच हुई। आठवीं पास करने के बाद जेसे ही कक्षा नवमीं में पहुंचे पता चला कोर्स बदल दिया गया है। यूनिफाइड और इंटीग्रेटेड कोर्स के नाम पर बदलाव थोप दिया गया। यानी अब कक्षा दसवीं में बोर्ड एक्जाम में सफल होने के बाद विषय चयन किया जा सकेगा। कक्षा नवमीं से दसवीं तक दो बरस और उन्हीं बोझिल विषयों को लादकर चलना जिनमें रूचि नहीं थी बाध्य हो गया। कक्षा छठवीं से लेकर आठवीं तक हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत तीन भाषा की पढ़ाई करवाई गई। 

इसके बाद ये तीनों दो साल और आगे तक की पढ़ाई में शामिल कर दिए गए। सही बात बताउं यदि सभी से कहा जाता किसी एक भाषा की पढ़ाई अब छोड़ सकते हैं तो निसंदेह ज्यादातर संस्कृत छोड़ देते। क्योंकि हिंदी और अंग्रेजी भावी जीवन में हर तरीके से काम में आना ही है। सो केवल हिंदी पढ़कर आगे बढ़ना संभव नहीं होता। वैसे भी हिंदी को छोड़ा जाना ही नहीं था सो अंग्रेजी और संस्कृत में से किसी एक के चयन पर अंग्रेजी ही सही विकल्प होता।

पर सबकुछ बदल चुका था। हमें नए कोर्स के तहत सभी विषयों की मोटी—मोटी किताबें थमा दी गईं। कक्षा नवमीं में पढ़ाई शुरू हुई और इससे पहले कि गणित के साइन थिटा, कासथिटा को हल कर पाते, भूगोल और समाजिक विज्ञान की मोटी पुस्तकों को पढ़ पाते, यकायक कठिन अंग्रेजी को समझ पाते… ऐसा ही लॉक डाउन हो गया। संभवत: उस बैच के सारे बच्चे जीवन में सबसे ज्यादा खुश तब हुए थे जब जनरल प्रमोशन की घोषणा की गई। यानी कुछ पढ़े और साबित किए बगैर कक्षा दसवीं… हिप—हिप हुर्रे…!

कक्षा दसवीं में पूरा बदला एक साथ ले लिया गया। नियम आया कि कक्षा दसवीं में परीक्षा के समय कक्षा नवमीं से 40 प्रतिशत और कक्षा दसवीं से 60 प्रतिशत सवाल पूछे जाएंगे। यानि कक्षा नवमीं का जिन्न एक बार फिर सामने अड़ गया। यह पहला मौका था जब विद्यार्थियों के सामने प्रश्नबोध, परीक्षा बोध और ट्वेंटी क्वेश्चन का बाजार खड़ा किया गया। इसके बाद गाइड और परीक्षा माला का पूरा संसार रच गया। यानी एक प्रकार से बाजारवाद ने शिक्षा को अपने कब्जे में ले लिया।

सही मायने में यहां से शिक्षा पद्धति में जो बिखराव का दौर शुरू हुआ वह आज तक थम नहीं सका है। शिक्षा की हालात बाजार में बिकने वाली वस्तु से गई गुजरी हो गई है। ज्ञान का स्तर निम्न से निम्नतम हो गया है। शिक्षकों का सम्मान तो अब रहा ही नहीं। ना सरकार के सामने और ना ही विद्यार्थियों के सामने। कोचिंग और ट्यूशन के साथ परीक्षा के दौर में करोड़ों—अरबों रूपए का व्यापार असल शिक्षा में तब्दील हो चुका है।

जब तक हम शिक्षा के स्तर के बार में अपने व्यक्तिगत अनुभव को आधार नहीं बनाएंगे तब तक सही शिक्षा की व्यवस्था को समाज में स्थापित कर पाना संभव नहीं है। फिलहाल 1985 की उस शिक्षा पद्धति के बाद करीब 35 बरस बाद इस नई शिक्षा पद्धति पर चर्चा होना लाजिमी है। शिक्षा को लेकर फिजूल के प्रयोगों से बचना चाहिए। हमारे बुजुर्गों ने जिस पद्धति से शिक्षा दी और जिस पद्धति से हमने अपने नैतिकता और सामाजिकता को कसौटी में कसा है। उसी शिक्षा की दरकार आज राष्ट्र को है।

– नई शिक्षा प्रणाली पर अगले अंक में…

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