Articles By NameEditorialState News

डिप्टी बनने क्यों राजी हुए सिंहदेव! …तब वे सत्ता संघर्ष में कमजोर पड़ गए थे…

Getting your Trinity Audio player ready...

राजनीतिक विश्लेषण। दिवाकर मुक्तिबोध।

वायदे के अनुसार जिसे अब सिंहदेव मीडिया की हवा बताते हैं, उन्हें जून 2021 में मुख्यमंत्री बना दिया जाना था लेकिन उस दौर के सत्ता संघर्ष में सिंहदेव कमजोर पड़ गए…

छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति में हाल ही में हुए बदलाव पर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी ने भले ही आलोचना की हो लेकिन मुद्दे की बात यह है कि वह पुनः हताशा की शिकार हो गई है। दरअसल कांग्रेस संगठन व सत्ता के बीच पिछले कुछ समय से जो अंदरूनी खींचतान चल रही थी, उसे देखते हुए पार्टी को अपने लिए कुछ संभावनाएं नज़र आने लगी थी। कांग्रेस में त्रिकोण बन गया था जिसके एक छोर पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, दूसरे पर प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम व तीसरे छोर पर केबिनेट मंत्री टी एस सिंहदेव थे।

पार्टी में गुटबाजी सतह पर थी और आंतरिक सर्वे में करीब पचास फीसदी विधायकों का प्रदर्शन निराशाजनक माना गया था। केंद्रीय नेतृत्व के लिए यह चिंता की बात थी। यदि यही स्थिति आगे भी कायम रहती तो इसका फायदा चार महीने बाद होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव में भाजपा को किसी न किसी रूप में मिल सकता था। प्रदेश भाजपा इसी खुशफहमी में थी।

लेकिन हालातों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस हाई कमान ने 28 जून को जो निर्णय लिया वह उसका मास्टर स्ट्रोक था और उसने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। वरिष्ठ मंत्री टी एस सिंहदेव को उप मुख्यमंत्री बना दिया गया और अगले ही दिन राज्य सरकार ने दो माह पूर्व भाजपा छोडकर कांग्रेस में आए कद्दावर आदिवासी नेता नंद कुमार साय को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देते हुए राज्य औद्योगिक विकास निगम का अध्यक्ष बना दिया। इन अप्रत्याशित कदमों के जरिए कांग्रेस ने अपना घर तो ठीक किया ही, साथ ही भाजपा को अपनी चुनावी रणनीति पर नये सिरे से विचार करने बाध्य भी कर दिया।

दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी , के सी वेणुगोपाल,  छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल , टी एस एस सिंहदेव, चरण दास महंत व  राज्य के अन्य वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में जो विचार विमर्श हुआ उसके परिप्रेक्ष में कम से कम एक निर्णय अचंभित करनेवाला था – टी एस सिंहदेव को उप मुख्यमंत्री का पद देना। किंतु इससे भी अधिक आश्चर्य की बात थी उनके द्वारा इस पद को स्वीकार किया जाना।

जब विधानसभा चुनाव के लिए केवल चंद माह ही शेष रह गए हैं, तब इस पद को स्वीकार करने के पीछे क्या राजनीतिक वजह हो सकती ? क्या हाई कमान की ओर से पुनः उन्हें चुनाव के बाद सत्ता या संगठन में कोई बड़ा पद देने की पेशकश हुई है ? इसकी संभावना से इसलिए इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि बघेल सरकार के साढ़ेचार साल गुज़र जाने के बाद इस पद से नवाजा जाना और टी एस सिंहदेव द्वारा उसे मान्य भी कर लेना राजनीतिक दृष्टि से मामूली घटना नहीं है जबकि टी एस अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार में नंबर दो की पोजीशन का विशेष महत्व नहीं है खासकर तब जब वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे हैं।

मुख्यमंत्री के रूप में भूपेश बघेल के ढाई वर्ष पूर्ण होने के बाद उन्हें सत्ता सौंपने का वायदा था जिसे पूरा नहीं  किया गया। इस वायदे के अनुसार जिसे अब सिंहदेव मीडिया की हवा बताते हैं, उन्हें जून 2021 में मुख्यमंत्री बना दिया जाना था लेकिन उस दौर के सत्ता संघर्ष में सिंहदेव कमजोर पड़ गए। और बघेल मुख्यमंत्री बने रहे। वादा खिलाफी व नौकरशाही की उपेक्षा से आहत सिंहदेव बाकी समय संकेतों में अपनी व्यथा व्यक्त करते रहे और अपने तरीक़े से दबाव बनाते रहे। यह उनके दबाव का भी परिणाम था और प्रदेश की जमीनी हकीकत भी, चुनाव के नजदीक आने पर हाई कमान को टी एस को संतुष्ट करना जरूरी हो गया था।

लिहाज़ा बड़े नेताओं के मध्य विचार मंथन का दौर चला।  इस मंथन से अमृत तो निकला पर यह सवाल भी उठा कि सिर्फ चार महीनों के लिए डिप्टी सीएम बनने का प्रस्ताव सिंहदेव ने किस बिना पर राजी कर लिया ? अब टी एस सिंहदेव इतने भी भोले नहीं है कि अपना राजनीतिक भला-बुरा समझ न सकें। अतः हाई कमान के इस फैसले के पीछे कोई न कोई बात जरूर है।

वह बात क्या हो सकती है ? क्या अघोषित डील हुई है ? तो इसका खुलासा विधानसभा चुनाव के नतीजे आने एवं कथित तौर पर कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने पर संभव है। वैसे आम चर्चाओं के अनुसार कांग्रेस एक बार पुनः जीत की पायदान पर खड़ी बताई जा रही है। 

बहरहाल हाई कमान के इस फैसले के जरिए छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति में मुख्य मंत्री भूपेश बघेल के वर्चस्व को कमतर किया गया है। सरकार के पिछले साढ़ेचार वर्षों के कार्यकाल में वरिष्ठ मंत्री रहने के बावजूद टी एस हाशिए पर ही रहे। सरगुजा सहित प्रदेश में उनके प्रभाव को ध्वस्त करने अमरजीत भगत व बृहस्पत सिंह जैसे सरगुजिहा नेताओं ने कोई कमी नहीं की।

चूंकि मुख्यमंत्री ने अपने समर्थक नेताओं की हरकतों को रोकने या उन्हें उनकी ऊलजलूल बयानबाजी  के लिए फटकारने की कोशिश नहीं की इसलिए स्वाभाविक रूप से कांग्रेस की राजनीति में  संकेत गया कि इसमें मुख्यमंत्री की मौन सहमति है। यह अलग बात है कि विरोधियों की तमाम कोशिशों के बावजूद टी एस सिंहदेव ने धैर्य नहीं खोया तथा शालीन तरीकों से समय-समय पर अपना विरोध जताते रहे। यह उनके संयम का ही परिणाम है कि हाई कमान ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की परवाह न करते हुए सिंहदेव को प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में लगभग बराबरी ला खड़ा कर दिया है। इस एक फैसले से प्रदेश राजनीति की फिज़ां ही बदल गई। चुनावी दृष्टिकोण से पार्टी के लिए अच्छा संकेत है।

इस बदली हुई फिज़ां में भूपेश बघेल व टी एस सिंहदेव एक दूसरे के निकट नज़र आते हैं। यह निकटता कम से कम आगामी नवंबर में होने वाले चुनाव तक बनी रहनी चाहिए। पार्टी का बड़ा सिरदर्द प्रत्याशियों  का चयन है जिसमें प्रदेश अध्यक्ष मोहन  मरकाम, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व  अब टी एस एस सिंहदेव की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है। मेल-मिलाप की असली परीक्षा तभी होगी।

फिर भी सिंहदेव के बहाने संगठन में एकजुटता का जो मैसेज गया है ,उससे कुछ समय के लिए गुटीय प्रतिद्वंदिता व आंतरिक कलह पर विराम लगने की संभावना है। इस मायने में कांग्रेस के आला नेतृत्व की यह सफलता है जिसके एक निर्णय से छत्तीसगढ़ कांग्रेस को चुनाव के मोर्चे पर मजबूती के साथ खड़ा कर दिया है।

अब एक और सवाल है ,क्या सिंहदेव चुनाव लडेंगे ? इस मुद्दे पर उन्होंने गेंद केंद्रीय नेतृत्व के पाले में डाल दी है। जबकि पूर्व में वे चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं। अतः संभव है पार्टी उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनका उपयोग समूचे प्रदेश में चुनाव प्रचार अभियान में करें। अगर ऐसा हुआ तो यह भी विपक्ष के खिलाफ पार्टी का एक और मास्टर स्ट्रोक होगा।

  • लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ संपादक हैं।
error: Content is protected !!