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दंतेवाड़ा सीट पर कांग्रेस की हार का ठिकरा सीएम भूपेश पर ही फोड़ना चाहिए… जिले में आकंठ भ्रष्टाचार, जिले के सिस्टम का राजनीति में दखल, जनप्रतिनिधि की भारी उपेक्षा बड़ी वजह..

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सुरेश महापात्र

 

 

 

 

सुरेश महापात्र।

छत्तीसगढ़ का दूसरा सबसे आ​र्थिक संपन्न जिला है दंतेवाड़ा। यहां करीब आठ सौ करोड़ का डीएमएफ मद जनरेट होता है। इस जिले में जो भी जिला अधिकारी पदस्थ हुआ उसे डीएमएफ निधि से मनमाफिक काम करने की आजादी दी। 2013 से 2018 तक और 2019 से 2023 तक यहां विधायक महेंद्र कर्मा की धर्म पत्नी देवती कर्मा रहीं। महेंद्र कर्मा के जीवित रहते देवती विशुद्ध गृहणी ही रहीं। 2013 में झीरम हत्याकांड में महेंद्र कर्मा की शहादत के बाद देवती कर्मा को लोगों ने विधायक चुना। पूरे जिले में महेंद्र कर्मा के प्रति सहानुभूति आज भी है। बावजूद इसके इस बार छविंद्र कर्मा कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े और भारी भरकम अंतर से पराजित हुए। वजह क्या रही होगी? यह चुनाव के एक बरस पहले से लोगों को पता है।

दरअसल डेढ़ बरस पहले तक जिले में सब कुछ सामान्य गति से चल ही रहा था। तब दीपक सोनी कलेक्टर रहे। वे पक्ष और विपक्ष दोनों के बीच समन्वय के साथ काम करते रहे। विधायक देवती कर्मा के साथ भी उनकी ट्यूनिंग बेहतर रही। दंतेवाड़ा जिले में भूपेश बघेल के कार्यकाल में चार कलेक्टर पदस्थ हुए। पहले सौरभ कुमार रहे जिनके कार्यकाल में विधानसभा चुनाव संपन्न हुआ। 2018 में चुनाव की हार का ठिकरा कर्मा परिवार ने उन पर फोड़ा। हांलाकि यह गलत था।

सौरभ दंतेवाड़ा जिले में ओम प्रकाश चौधरी के बाद दूसरे सुलझे हुए कलेक्टर थे। एक ब्यूरोक्रेट को जिस तरह से काम करना चाहिए उन्होंने यही किया। चुनावी वर्ष में जिला प्रशासन पर हर तरह से उम्मीदों का भार होता ही है। सरकार का दखल भी बड़ा होता है। सो हार का ठिकरा स्वाभाविक तौर पर पराजित प्रत्याशी कलेक्टर के सिर ही मढ़ देता है। हार की बड़ी वजह रही ठीक चुनाव के समय परिवार के भीतर टिकट को लेकर मचा अंतरद्वंद सबसे बड़ा कारण रहा। छविंद्र ने अपनी मां के खिलाफ विद्रोह कर दिया और निर्दलीय चुनाव मैदान के लिए फार्म दाखिल कर दिया। नाम वापसी के अंतिम दिन छविंद्र ने भारी दबाव में अपना नाम वापस लिया। नहीं तो 2018 में ही देवती और छविंद्र के बीच सीधा मुकाबला देखने ​को मिल जाता। इसका बुरा संदेश आम जनमानस के भीतर गया। दंतेवाड़ा की जनता के बीच भीमा मंडावी की पकड़ मजबूत रही।

भारतीय जनता पार्टी संगठन के तौर पर मजबूत होकर चुनाव मैदान में खड़ी थी। भीमा मंडावी का अपना कार्यकर्ता नेटवर्क तैयार था। सो देवती की पराजय हो गई। यह हार ऐसे समय में हुई जब पूरे प्रदेश में कांग्रेस की आंधी चली थी। बस्तर की 12 में से 11 सीटों पर कांग्रेस जीत हासिल कर चुकी थी। ऐसे भारी भरकम जीत के दौर में 2018 के चुनाव के दौरान दंतेवाड़ा में कांग्रेस की हार की बड़ी वजह परिवार के आंतरिक कलह से शुरू हुई और पराजय के साथ खत्म हुई।

भूपेश बघेल मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। कांग्रेस के भीतर स्पष्ट था कि चार नेता ताम्रध्वज साहू, चरण दास महंत, टीएस सिंहदेव भी दौड़ में थे सो अंत में टीएस बाबा और भूपेश के बीच ढाई—ढाई का फार्मुला राहुल गांधी ने देकर भूपेश को पहला मौका दिया। भूपेश और टीएस सिंहदेव दोनों के संबंध महेंद्र कर्मा के साथ थे। राजधानी में उनके साथ बैठके होती थीं। तो देवती कर्मा का सम्मान भूपेश बड़े भैया की पत्नी भाभीजी की तरह ही करते थे। सीएम बनने के बाद जब पहली बार भूपेश दंतेवाड़ा पहुंचे तो पूरे परिवार को फरसपाल में साथ बिठाया। स्पष्ट सलाह दिया कि पूरा परिवार यदि राजनीति में उतरेगा तो दिक्कत होगी। दीपक के लिए सीमा रेखा लोकसभा चुनाव के लिए बढ़ा दी। छविंद्र को दंतेवाड़ा में फोकस करने के लिए कहा। तुलिका और सुलोचना को जिला की राजनीति तक सीमित रखने की सलाह दे दी। आशीष के लिए डिप्टी कलेक्टर की नियुक्ति का प्रस्ताव दे दिया। शहीद परिवार के लिए डिप्टी कलेक्टर की राह खोलने कैबिनेट में प्रस्ताव लाया और आशीष को पिता महेंद्र कर्मा की शहादत के आधार पर सरकारी नौकरी की राह खोल दी। इस समय तक भूपेश बघेल ने कर्मा परिवार के गार्जियन के तौर पर काम करते रहे।

इसी बीच पांच माह के भीतर लोकसभा चुनाव के दौरान नक्सली हमले में विधायक भीमा मंडावी शहीद हो गए। उपचुनाव में भूपेश बघेल ने पूरी ताकत झोंक दी। एकजुट कर कांग्रेसियों ने दंतेवाड़ा सीट से देवती कर्मा को चुनाव जितवा दिया। भीमा मंडावी की शहादत के बाद उनकी पत्नी ओजस्वी मंडावी को भाजपा ने​ टिकट दी पर वे देवती से पराजित हो गईं। वोट प्रतिशत बढ़ा पर सीपीआई का कैडर वोट कांग्रेस में शिफ्ट होने से कांग्रेस को बढ़त मिल गई।

इसके बाद छविंद्र को पादप बोर्ड का उपाध्यक्ष नियुक्त कर राज्य मंत्री का दर्जा दे दिया। जिला पंचायत चुनाव में तुलिका कर्मा ने कांग्रेस से बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। वहीं सुलोचना कांग्रेस की टिकट से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ीं और विजयी रहीं। इसके बावजूद तुलिका को सुलोचना की जगह जिला पंचायत अध्यक्ष का पद टॉस के जरिए मिला। टॉस कितना सही और कितना फिक्स था यह ईश्वर जानें। इस समय तक दंतेवाड़ा जिले में कांग्रेस की कमान विमल सुराना के पास ही थी।

इसके बाद कहानी में ट्विस्ट आना शुरू हो गया। परिवार के बीच ही पावर का अंतरद्वंद प्रारंभ हो गया। तुलिका और सुलोचना मां देवती के साथ जिले के काम काज पर सीधा हस्तक्षेप प्रारंभ कर दिया। महेंद्र कर्मा के बीच के कांग्रेसियों को किनारे लगाने का खेल चालू हुआ। देवती कर्मा के चुनाव प्रचार अभियान के दौरान आर्थिक सहायता करने वालों के खिलाफ ही कर्मा परिवार का गणित संगठन में बदलाव का कारण बना। कभी अजित जोगी, कभी रमन सिंह के बेहद करीबी अवधेश सिंह गौतम को जिला कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी मिली। हांलाकि अवधेश गौतम भी एक दौर में महेंद्र कर्मा के करीबी ही रहे। पर उनकी भूमिका पर आतंरिक तौर पर संदेह कभी कम नहीं रहा।

इसके बाद भूपेश ने बस्तर संभाग की राजनीति में सबसे बड़ा बदलाव किया उन्होंने कोंटा विधायक कवासी लखमा को एक साथ पांच जिलों के लिए प्रभारी मंत्री नियुक्त कर दिया। इसमें सुकमा, दंतेवाड़ा, बीजापुर, कोंडागांव और नारायणपुर जिलों में कवासी की भूमिका बड़ी हो गई। कवासी लखमा और महेंद्र कर्मा के बीच 2013 की घटना के बाद तल्खी और भी बढ़ी हुई थी।

इससे पहले अजित जोगी के दौर में कवासी लखमा पर 2008 में महेंद्र कर्मा को हराने के लिए मनीष कुंजाम को फंडिंग करने का भी आरोप लगा था। आरोप तो यह भी था कि अजित जोगी के इस सिंडिकेट में अवधेश गौतम भी शामिल थे। दरअसल 2008 में महेंद्र कर्मा के जीतने और कांग्रेस के बहुमत में आने का मतलब साफ था कि महेंद्र कर्मा सीएम की रेस में बड़ा चेहरा बनते! सो अभिमन्यू को चक्रव्यूह में फंसाने का काम भी खूब हुआ। परिणाम साथ था कि महेंद्र कर्मा चुनाव हार गए। भाजपा की सरकार रिपीट हो गई।

कवासी लखमा के सहारे दंतेवाड़ा की राजनीति में कांग्रेस की पटकथा 2023 के चुनाव में अपना असर दिखा गई। अब कवासी लखमा कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के करीबी हो गए। इधर कवासी से भूपेश की करीबी के खिलाफ कर्मा परिवार ने टीएस सिंहदेव के साथ खड़ा होना शुरू कर दिया। ढाई—ढाई के बंटवारे की चर्चा के बीच देवती कर्मा ने ​खुलकर टीएस सिंहदेव का साथ दिया। नतीजा साफ रहा। भूपेश ने कर्मा परिवार को दरकिनार करना शुरू कर दिया। सबसे पहले सौम्या चौरसिया के चैनल से सुकमा कलेक्टर विनित नंदनवार की दंतेवाड़ा में एंट्री हुई। सुकमा जिला में आदिवासियों ने विनीत नंदनवार के खिलाफ सबसे बड़ा प्रदर्शन किया था। इसके बावजूद दंतेवाड़ा जिले में उनकी पोस्टिंग से साफ था कि अब यहां की परिस्थितियों में हवा बदलने वाली है।

कुछ ही समय बाद यह जमीन पर भी दिखने लगा। देवती कर्मा और तुलिका की जिस तरह से जिला प्रशासन में दीपक सोनी के कार्यकाल में समन्वय से काम चलता रहा। यह तस्वीर बदल गई। खुलकर अनदेखी होने लगी। कई मामलों में देवती और तुलिका ने मुख्यमंत्री भूपेश से कलेक्टर को लेकर शिकायत भी की पर सुनवाई नहीं हुई। तब तक सौम्या चौरसिया भी भूपेश सरकार में सत्ता के केंद्र में नौकरशाही का बड़ा चेहरा रहीं।

विनित नंदनवार के सहारे भूपेश सीधे कांग्रेस विधायक को टारगेट करने लगे। यह तब​ साफ दिखाई दिया जब भूपेश बघेल के करीबियों के साथ कलेक्टर की बैठकी तो होती थी पर विधायक देवती कर्मा से मिलने का समय भी नहीं देते। कलेक्टोरेट की चौखट से देवती और तुलिका दोनों दो बार बैरंग लौटीं। इसके बाद सार्वजनिक तौर पर बयान भी दिया। एक समय तो ऐसा हो गया कि कांग्रेस के आधे लोग सीधे कलेक्टर के संपर्क में रहे। उन्हें डीएमएफ के मद से काम बांटा और भुगतान भी किया। और आधे लोगों को निशाने पर लिया। निशाने में जिन्हें लिया गया वे सभी विधायक देवती के करीबी रहे।

कांग्रेस में भी कलेक्टर विनित नंदनवार को लेकर दो फाड़ वाली हालत हो गई। जिले में तमाम बड़े कामों के लिए एक बाहरी सिंडिकेट सक्रिय हुआ। अरबों के काम दिए गए। खबर यह भी रही कि इसका चैनल रायपुर से ही संचालित होता है। सत्ता की हिस्सेदारी और लूट में भागीदारी के तमाम किस्से जमीन पर तैरने लगे। इन सबसे दूर देवती और कर्मा परिवार के नेता हैरान परेशान भटकते रहे।

एक बार चुनाव से करीब छह माह पहले देवती और तुलिका राजधानी पहुंची भी वे सीएम भूपेश बघेल से मुलाकात कर कलेक्टर की शिकायत कर हटवाना चाहती थीं। बताया गया कि भूपेश ने मिलने का समय ही नहीं दिया। वे बैरंग दंतेवाड़ा लौट आईं। यह खबर भी अखबारों में सुर्खियां बनी।

इसके बाद ऐन चुनाव से पहले दंतेवाड़ा जिले में डीएमएफ से करवाए जा रहे तमाम कामों का लोकार्पण सीएम ने राजधानी से बटन दबाकर किया लोकार्पण किए जा रहे कई काम की केवल नींव ही खुद पाई थी। पर लोकार्पण के इस कार्यक्रम में विधायक देवती कर्मा शामिल नहीं थी। यानी जिले के विकास कार्यों से कर्मा परिवार को पूरी तरह बेदखल कर दिया गया।

कलेक्टर कांग्रेस में सीएम के करीबियों को तुलिका के कथित भ्रष्टाचार के किस्सों को लेकर किस्सागोई करते रहे। एक किस्सा तो हमने भूपेश बघेल के करीबी शकील रिजवी के हवाले से प्रकाशित भी किया था। प्रकाशन के बाद शकील रिजवी ने बताया कलेक्टर कह रहे हैं ‘यह आपने क्या छपवा दिया है! क्या आपने यह कहा है? तो शकील रिजवी ने उन्हें ‘हां’ भी कहा था।’ क्योंकि तब तक कोई यह समझ नहीं रहा था कि अब कुछ महीने बाद यदि सत्ता परिवर्तन होगा तो आगे क्या होगा?

इधर चुनाव करीब आते—आते एक बार फिर मां—बेटे में टिकट को लेकर आपसी खींचतान शुरू हुई। अंतत: मां ने हार मानी और बेटे छविंद्र के लिए रास्ता खोल दिया। जिला पंचायत अध्यक्ष तुलिका के मन में भी लड्डू फूट रहे थे। पर हुआ वही जो होना तय था। टिकट मिलने के बाद दंतेवाड़ा में एक जाना पहचाना चेहरा छविंद्र कर्मा और एक अनजान चेहरा चैतराम अटामी मैदान में थे। छविंद्र को उनकी पहचान का नुकसान हुआ और चैतराम को कमल निशान जीताकर ले आई।

खैर अब जब दंतेवाड़ा में स्पष्ट तौर पर सत्ता परिवर्तन हो ही गया है तो इन सब बातों का मतलब महज इतिहास को कुरेदने से ज्यादा मायने नहीं रखता। पर एक बात तो तय है कि जिस तरह से भूपेश बघेल ने दंतेवाड़ा में महेंद्र कर्मा के परिवार के देखभाल की शुरूआत की उसी तरह से राजनीति के गोठान के हवाले कर दिया है।

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