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तो क्या पंजाब फार्मुला में छत्तीसगढ़ का भी छिपा है समाधान… असंभव कुछ भी नहीं… ओबीसी का काट आदिवासी—दलित तो नहीं…

  • सुरेश महापात्र।

राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं है। बशर्ते जो असंभव हो उसे संभव करने के लिए कुछ भी करने की नौबत क्यों ना पड़े। बस ऐसा ही कुछ पंजाब में घटित हुआ है। इसके बाद राजनीतिक महात्वाकांक्षा के लिए उबाल मारते राजस्थान और फार्मुला में फंसे छत्तीसगढ़ को लेकर जमकर कयास हैं।

बीते 17 सितंबर को राहुल गांधी ने राजस्थान पर रणनीतिक चर्चा सचिन पायलेट के साथ की। ये दोनो 2021 में पहली बार मिले और बैठे। पायलट जुलाई 2020 तक राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री थे। हालांकि, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ बागी रवैया अपनाने के बाद उनसे ये दोनों ही पद वापस ले लिए गए थे। पार्टी के एक सूत्र के मुताबिक, राहुल और सचिन की बैठक के दौरान राजस्थान में पायलट की बहाली को लेकर गंभीर रूप से चर्चा की गई।

राजस्थान में जो कुछ होगा उसका प्रभा​व भी सीधे छत्तीसगढ़ में पड़ेगा। पंजाब के घटनाक्रम से कुछ तथ्य सामने देखने को मिले। मसलन हरीश रावत विधायक दल के बैठक की घोषणा से एक दिन पहले तक कहते रहे कि कैप्टन ही मुख्यमंत्री रहेंगे। यह बात और है कि विधायक दल की बैठक से पहले ही कैप्टन अ​मरिंदर ने अपना त्यागपत्र राज्यपाल को सौंप दिया। यानी कांग्रेस के अंदरखाने जो कुछ हो रहा होता है उसकी भनक तक लगने नहीं दी जा रही है।

छत्तीसगढ़ के मसले पर भी अब तक ऐसा ही कुछ होता रहा है। अगस्त 21 के दूसरे पखवाड़े के बाद से चर्चा सतह पर आई। जून 2021 के बाद से यह हवा चल रही थी। पर दो दौर की वार्ता और प्रदर्शन ​के बाद भी ना तो सब कुछ खत्म हुआ है और ना ही सब कुछ ठीक चल रहा है।

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव की बॉडी लैंग्वेज बदली हुई है। वे जितना सामान्य दिखाने की कोशिश कर रहे हैं सबकुछ उतना ही असामान्य है। टीएस जब भी दिल्ली की ओर उड़ रहे हैं तब इस चर्चा को बल मिल जाता है।

बस्तर से लेकर सरगुजा तक सभी कि निगाहें राजधानी में होने वाली गतिविधि को जानने की कोशिश कर रही हैं। विशेषकर ​ब्यूरोक्रेट इस घटनाक्रम पर बारीकी से नजर रखे हुए हैं। कुल मिलाकर जब तक सब कुछ स्पष्ट नहीं हो जाता तब तक यही स्थिति बनी रहेगी।

पंजाब में जिस फार्मुला का उपयोग किया गया उससे एक तरह से सांप भी मर गई और लाठी भी नहीं टूटी जैसी स्थिति से कांग्रेस को फायदा पहुंचा है। पंजाब में किसी दलित को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाकर कांग्रेस हाईकमान ने मास्टर स्ट्रोक लगाया है। चरणजीत सिंह चन्नी सोमवार को जिस तरह से अपने बयान जारी कर रहे थे उससे पूरे देश के दलित वर्ग को कांग्रेस का संदेश देने की कोशिश साफ झलक रही है।

ऐसे में यह चर्चा बाहर निकल पड़ी है कि क्या पंजाब के तर्ज पर छत्तीसगढ़ के लिए भी समाधान की राह निकाली जाएगी। हांलाकि यहां पहले ही कांग्रेस ने सत्ता ओबीसी और संगठन आदिवासी के हाथ में सौंप रखा है। ऐसे में यह सवाल बड़ा हो गया है कि क्या आदिवासी मुख्यमंत्री और ओबीसी पीसीसी चीफ का फार्मुला देकर देश के आदिवासी वर्ग को कांग्रेस साधने की कोशिश कर सकती है?

हम समझने की कोशिश करते हैं छत्तीसगढ़ का जातीय गणित

छत्तीसगढ़ की आबादी 2021 के लिए करीब तीन करोड़ अनुमानित है। आधार इंडिया के आंकड़े यह बताते हैं कि यहां 2020 तक करीब 2 करोड़ 94 लाख 36 हजार 231 आबादी 31 मई 2019 की स्थिति में दर्ज कर ली गई है।

2011 की जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के सभी समुदायों की कुल जनसंख्या 78 लाख 22 हजार 902 दर्ज है। जब छत्तीसगढ़ राज्य गठित हुआ तब 2001 की जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार यहां की आबादी दो करोड़ आठ लाख दर्ज थी। जो 22 प्रतिशत बढ़त के साथ 2011 में दो करोड़ 55 लाख पहुंच गई। यदि ग्रोथ लेबल को यथावत रखा जाता है तो करीब 56 लाख आबादी की बढ़ोतरी तय है। इसी औसत के अनुसार यहां करीब 96 लाख आदिवासी आबादी संभव है। जो कुल आबादी का करीब 30 प्रतिशत है।

वैसे छत्तीसगढ़ गठन के समय से ही यहां आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग होती रही है। पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम और तेज तर्रार महेंद्र कर्मा इस दौड़ में शामिल रहे। इसी का परिणाम था कि छत्तीसगढ़ राज्य में पं. वीसी शुक्ल के स्थान पर आदिवासी चेहरा के तौर पर अजित जोगी शिफ्ट किए गए। इसी के साथ अजित जोगी की जाति का विवाद भी गहराता रहा। संभवत: आदिवासी नेतृत्व के नाम पर अजित जोगी को मुख्यमंत्री बनाना कांग्रेस के आदिवासी बेल्ट के लिए नुकसान का कारण रहा।

इसके बाद भारतीय जनता पार्टी भले ही सत्ता में आ गई पर उसने आदिवासी मतों को साधने के लिए सत्ता के केंद्र में आदिवासी चेहरा को बनाकर रखने की कोशिश की। डा. रमन ने गृहमंत्री के तौर पर रामविचार नेताम, ननकी राम कंवर और रामसेवक पैंकरा को चेहरा बनाया। नंदकुमार साय नेता प्रतिपक्ष और अध्यक्ष भी रहे। इनके अलावा रामविचार नेताम और रामसेवक पैंकरा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष भी बने। फिलहाल विष्णुदेव साय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं।

इससे साफ है कि कांग्रेस पर इसके लिए दबाव तो है ही कि आदिवासी मतों को साधने में पीछे ना रहा जाए। फिलहाल बस्तर व सरगुजा के करीब—करीब सभी सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। ये दोनों आदिवासी बेल्ट हैं। इन दो संभाग में करीब 26 सीट हैं। इसमें जगदलपुर और अंबिकापुर दो सीटों को छोड़ दिया जाए तो 24 सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इनके अलावा और पांच सीटों के साथ प्रदेश में कुल 29 में से कुल 27 आदिवासी विधायक कांग्रेस से हैं। जो कि कांग्रेस के कुल विधायकों का करीब 38 प्रतिशत है। इसके अलावा 9 सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। जिनमें 6 विधायक कांग्रेस से हैं। यानी करीब 47 प्रतिशत विधायक इन दो वर्गों से हैं। इनकी दो वर्गों की आबादी का प्रतिनिधित्व करीब 42.22 प्रतिशत है।

क्या हो सकता है कांग्रेस के लिए बीच का रास्ता…

यह बताने का आशय यही है कि यदि कांग्रेस पंजाब की तर्ज पर समाधान चाहती है तो प्रदेश में आदिवासी या दलित में से कोई एक चेहरा सामने ला सकती है। यदि ऐसा संभव हुआ तो बस्तर से लखेश्वर बघेल, अहिवारा से गुरू रूद्र कुमार के दिन फिर सकते हैं। अथवा विस अध्यक्ष चरणदास महंत के साथ आबादी के आधार पर दो उपमुख्यमंत्री के तर्ज पर प्रदेश का राजनैतिक संतुलन भी साध सकती है। संभव है राजनैतिक प्रतिद्वंदता से बाहर निकलने के लिए कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर संदेश देने की कोशिश करे। जो भी हो फिलहाल छत्तीसगढ़ में पूर्ण बहुमत की सत्ता के बावजूद आंतरिक अस्थिरता से कांग्रेस के लिए ही नुकसान है।

बहरहाल छत्तीसगढ़ का मसला ही अलग है। यहाँ सीधे हाईकमान की जवाबदेही है। यदि ढाई बरस का फ़ार्मूला जगज़ाहिर नहीं होता तो सत्ता व संगठन के बीच किसी तरह की खींचतान तो है ही नही। चुनावी वायदों का मसला है तो इसमें मौजूदा सीएम ने पूरी कोशिश की है। जन उपलब्धता के लिए भूपेश की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। किसी तरह का विवाद गुटीय आधार पर नहीं है। ऐसे में चित्र साफ़ करने की ज़िम्मेदारी हाईकमान की ही है। या तो वादा निभाएँ या स्पष्ट कर दें सरकार सही दिशा में काम कर रही है।

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