Editorial

पत्रकार, नक्सली और पुलिस… बस्तर में विवाद

  • सुरेश महापात्र।

बस्तर में इन दिनों पत्रकारिता को लेकर माओवादी चुनौती की बड़ी चर्चा है। पत्रकार और समाजसेवी के नाम माओवादियों की सब डिविजन कमेटी का पर्चा मिलने के बाद पत्रकार आक्रोशित हैं। दक्षिण—पश्चिम बस्तर के माओवादी गढ़ गंगालूर और बुरगुम में पत्रकारों ने धरना दिया और माओवादियों के पत्र के खिलाफ आवाज बुलंद की।

माओवादी गढ़ गंगालूर में धरना देते पत्रकार

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब बस्तर में पत्रकार माओवादियों के निशाने पर आए हों। पहले भी ऐसा हो चुका है। दो पत्रकारों की माओवादियों ने पूर्व में हत्या भी कर दी है। जिसमे बीजापुर जिले के साईं रेड्डी और बस्तर जिले के नेमीचंद जैन को माओवादियों ने अपना निशाना बनाया है। बड़ी बात है कि इन दोनों मृत पत्रकारों के खिलाफ किसी तरह का पर्चा जारी नहीं किया गया था। यह पहली बार हुआ है जब पत्रकारों का नाम लिखकर जन अदालत में सजा सुनाने का ऐलान किया गया है।

माओवादी पर्चा की भाषा पूर्ववत ही है जैसा वे अपने हर पर्चा में जिक्र करते हैं कार्पोरेट, पूंजीवादियों के लिए पत्रकारों पर दलाल जैसे शब्द का उल्लेख कर अलग किस्म का आरोप मढ़ा गया है। पत्र में बीजापुर के गणेश मिश्रा, सुकमा के लीलाधर राठी, बीबीसी के पूर्व पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी के साथ माओवादियों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले कोंटा के पी विजय और सुकमा के फारूख अली का नाम शामिल है।

धमकी भरे पत्र के बाद बस्तर समेत देश भर के पत्रकारों ने माओवादियों के इस रवैये पर विरोध जताया है। बुरगुम और गंगालूर में पत्रकारों के धरना प्रदर्शन के बाद अब संभागीय मुख्यालय जगदलपुर में प्रदर्शन की तैयारियां चल रही हैं। यह घटनाक्रम पूरी तरह अलग है। माओवादियों के खिलाफ बस्तर के पत्रकार पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से प्रदर्शन कर विरोध जता रहे हैं।

इधर 17 फरवरी को माओवादियों की ओर से इस मामले में दूसरा पत्र जारी हुआ है। जिसमें माओवादियों के सब डिविजनल कमेटी ने पत्रकारों से बैठकर बातचीत कर हल निकालने की बात कही है। माओवादी संगठन ने पत्रकारों से विरोध प्रदर्शन रोकने का आग्रह किया है। पर इस पत्र में ना तो पूर्व पर्चा को वापस लेने की बात कही हे और ना ही ऐसा कोई आश्वासन दिया है।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में प्रेस क्लब में माओवादी पर्चा को लेकर बैठक

इस नए पत्र की भाषा को लेकर भी पत्रकारों में संदेह है। पत्रकार संगठन के सदस्य पत्र की भाषा में जानबूझकर कई तरह की गलतियां करने का संदेह व्य​क्त किया है। साथ ही पूर्व पर्चा के संबंध में माओवादियों ने किसी भी तरह का स्पष्टीकरण नए पत्र में नहीं दिया है।

सवाल यह है कि माओवादियों ने यकायक अपना रूख मीडिया के खिलाफ क्यों कर लिया है। इसके पीछे माना जा रहा है कि माओवादी अपने आधार क्षेत्र में पुलिस के बढ़ते दखल से बौखला गए हैं। बस्तर संभाग में पुलिसिंग की दशा और दिशा काफी बदली हुई है। लगातार उन इलाकों में सरकार का दखल बढ़ा है जहां बीते डेढ़ दशक तक जाना तक नामुमकिन था।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में प्रेस क्लब में माओवादी पर्चा को लेकर बैठक के बाद प्रेस ​बयान

दंतेवाड़ा में लोनवर्राटू जैसी आत्मसमर्पण ​नीति चलाई जा रही है। बड़ी संख्या में माओवादी सरेंडर कर रहे हैं। आत्म्स​मर्पित माओवादियों की कई स्टोरी पत्रकारों ने बनाई है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और राज्य पुलिस के बीच बेहतर तालमेल ने माओवादियों के खेल का बिगाड़ दिया है। संभवत: यह भी एक बड़ी वजह हो कि माओवादी अब मीडिया को दबाकर अपने खिलाफ बन रहे माहौल को रोकने का प्रयास कर रहे हों।

बस्तर में शांति स्थापित करने की दिशा में प्रयासरत बीबीसी के पूर्व पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी कई तरह के प्रयोग कर रहे हैं। जिसमें मोबाइल और रेडियो के माध्यम से बस्तर के अंदरूनी इलाकों में लोगों से संवाद स्थापित करना हो या आदिवासी महिलाओं के लिए सैनेटरी पैड के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की पहल हो वे सक्रिय हैं। शुभ्रांशु इस पहले से पहले माओवादियों के साथ लंबे समय तक मिलकर एक किताब भी लिखी है जिसमें कई गहरी बातों को जिक्र किया गया है।

सुकमा के पत्रकार लीलाधर राठी करीब दो दशक से बस्तर में पत्रकारिता कर रहे हैं। एक बार जब माओवादियों ने सब इंस्पेक्टर प्रकाश सोनी को बंधक बना लिया था तो अपने कई साथियों के साथ वे उस जनअदालत में मौजूद रहे जहां लंबी सुनवाई के बाद माओवादियों ने प्रकाश सोनी को सकुशल रिहा कर दिया था।

सुकमा जिले के कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन को माओवादियों द्वारा बंधक बनाए जाने के बाद मेनन की रिहाई के लिए लीलाधर राठी भी मुख्य भूमिका में बतौर पत्रकार सक्रिय रहे। लीलाधर के खिलाफ इसके बाद से पुलिस सक्रिय हुई और माओवादियों से संपर्क के चलते वे राडार पर बने रहे। 2017 में लीला के खिलाफ 3 एफआईआर दर्ज किए गए। माओवादियों के साथ संपर्क के आशय से बयान दर्ज कराने के लिए नोटिस तामिल किया गया।

वे आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी की सक्रिय राजनीति में शामिल हो गए और पार्षद भी रहे। इन दिनों सुकमा में अपना एक सुपर मार्केट संचालित कर रहे हैं। इसके अलावा माओवादियों के खिलाफ अन्य गतिविधि में लीलाधर राठी को शामिल नहीं देखा गया है। अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान में हाल में एक आयोजन कर जिले में विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वालों को लीलाधर राठी ने सम्मान किया था। इस कार्यक्रम का जिक्र माओवादियों ने अपने पर्चा में किया है।

बीजापुर के पत्रकार गणेश मिश्रा भी करीब दो दशक से पत्रकारिता कर रहे हैं। कई बार ऐसे मौके आए जब पुलिस बल विफल हो गई तो वे अपने जान की बाजी लगाकर अंदर माओवादी गढ़ से मानवीय काम को पूरा किया।

पत्रकारिता के माध्यम से भी कई ऐसे मामले उठाए जिसमें अंदरूनी इलाकों में फर्जी मुठभेड़ों में आदिवासियों की हत्या की हकीकत बाहर आई। वे जनपक्षीय पत्रकारिता करते दिखते रहे हैं। गणेश भी भजपा की राजनीति में सक्रिय रहे। पार्षद भी निर्वाचित हुए। अपने रोजगार के लिए छोटे—मोटे काम के साथ पत्रकारिता उनका मूल पेशा रहा है।

ऐसे में इन ​तीनों के खिलाफ माओवादियों के पर्चा जारी किए जाने से नई बहस शुरू हा गई है। यह बहस बस्तर में आने वाले दिनों में पत्रकारिता को लेकर नई चुनौतियों को लेकर है। ऐसी स्थिति में कोई भी स्वतंत्र पत्रकार बस्तर से हकीकत को बाहर लाने में अक्षम रहेगा।

जान की कीमत पर पत्रकारिता को पेशा बनाए रखने में दिक्कत होगी। वह भी ऐसे समय में जब बस्तर में काम करने वाले 95 प्रतिशत पत्रकार करीब—करीब अवैतनिक जैसे हालात में पत्रकारिता का दायित्व निर्वहन कर रहे हों।

बस्तर में कमोबेश हर पत्रकार ने समय पड़ने पर उन खबरों को अंदर से निकाला है जिससे सरकार पर पुलिस के सहारे जुल्म करने की सच्चाई बाहन निकली है। यहां पत्रकार हर मुठभेड़ के बाद मौका पर पहुंचकर सच्चाई निकालने की कोशिश करते हैं कि पुलिस जिसे मुठभेड़ बता रही है वह असली है या नकली। इसका नतीजा यह रहा है कि कमोबेश सारे पत्रकार हमेशा पुलिस के निशाने पर रहे हैं।

बड़ी बात यह है कि बस्तर में ​मीडिया की जागरूकता के चलते ही फर्जी मुठभेड़ों में भारी कमी आई है। मीडिया के कारण पुलिस की समर्पण नीति को बढ़ावा मिला है। बस्तर की मीडिया ने ही माओवादियों के संगठन में आंतरिक विद्रोह की पहली सूचना जग जाहिर की थी। जिससे माओवादी संगठन भी परेशान रहा।

बस्तर में मीडिया अपना दायित्व निभाता रहा है पुलिस उस पर नक्सल समर्थक होने का आरोप मढ़ती रही है और अब माओवादी कार्पोरेट पूंजीपति का दलाल साबित करने की कोशिश में जुट गए हैं। कुल मिलाकर बस्तर में गरीब आदिवासी और पत्रकार की स्थिति एक जैसी ही है ये दोनों माओवादी और पुलिस के दो पाट के बीच फंसे हुए हैं।

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