Dabi juban seEditorial

पंजाब में कोई भी मुख्यमंत्री बने, पर इस घटना से मीडिया की जो भद् पिटी है उसका अध्ययन कम चिंतन ज्यादा जरूरी…

  • सुरेश महापात्र।

पंजाब का फैसला आने से पहले से व्यंगकार शरद जोशी की तीन पंक्तियां सोशल मीडिया पर तैर रही थीं।

मुख्यमंत्री तीन प्रकार के होते हैं
चुने गए मुख्यमंत्री
रोपे गए मुख्यमंत्री
और
दो की लड़ाई में तीसरा मुख्यमंत्री

पंजाब में इन पंक्तियों की सार्थकता साबित हो चुकी हैं। यानी तीसरे तरह के मुख्यमंत्री आज चरणजीत सिंह चन्नी सुबह 11 बजे मुख्यमंत्री की शपथ ले लेंगे।

मीडिया के तमाम सूत्र बुरी तरह फेल हुए। किसी की नजर इस नाचीज पर पड़ी ही नहीं। कोई जिक्र के लायक तक नहीं समझ रहा था। जब रविवार की दोपहर अंबिका सोनी की बाइट आई कि वे मुख्यमंत्री बनने को तैयार नहीं हैं साथ ही उन्होंने यह कहा कि पंजाब में कोई सिख ही मुख्यमंत्री बने। तो यह साफ हो गया कि कम से कम सुनील जाखड़ रेस से बाहर हो चुके हैं।

हर घंटे मीडिया किसी को भी सीएम के लिए फाइनल बताता रहा पर कांग्रेस हाईकमान ने जो फैसला लिया उसकी किसी को उम्मीद ही नहीं थी। यानी एक बात तो साफ है कि इन दिनों मीडिया पूरी तरह गर्त में है। उसके उबरने की भी कोई उम्मीद फिलहाल नहीं दिख रही है।

बीते दो—तीन माह में देश के कई राज्यों में इस तरह की घटनाएं हुईं। भाजपा शासित चार राज्यों के सीएम बदले गए। एक राज्य की धमाचौकड़ी दिल्ली तक मची रही। यानी उत्तरप्रदेश में भाजपा के दो खेवनहार योगी आदित्यनाथ को पद छोड़ने के लिए मना नहीं सके। यदि मना ले जाते तो वहां भी परिवर्तन दिखाई देता।

इन परिवर्तनों के बीच कांग्रेस के भीतर भी कम से कम तीन राज्यों में उथल—पुथल तो साफ दिख रही रही थी। एक पंजाब जहां का फैसला आ गया है। दूसरा राजस्थान और तीसरा छत्तीसगढ़ फिलहाल इन दो राज्यों में भी आज नहीं तो कल फैसला जरूर आएगा।

खैर आने वाले दिनों में पंजाब जैसी स्थिति और भी कई राज्यों में देखने को मिलेगी। विशेषकर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में य​ह दिखेगा। सभी राजनैतिक दल 2024 की तैयारी में जुटे हैं कोई किसी तरह की कमी रखना नहीं चाहता। कांग्रेस तो फूंक—फूंककर कदम रख रही है।

भारतीय जनता पार्टी खुलेआम कर रही है पर कहीं हंगामा नहीं है। ऐसा नहीं है कि परिवर्तन के बाद सत्ताधीश नाखुश नहीं होते होंगे चाहे विजय रूपाणी हों या अमरिंदर सिंह हर किसी को पद से हटाने पर दुख तो होता ही है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में कई कद्दावर मंत्रियों को बाहर कर दिया गया। पर मीडिया में उनका दुख दिखाई नहीं दिया। किसी ने पार्टी छोड़ने की बात नहीं की। किसी ने पार्टी छोड़ दिया तो भी उसकी उतनी तरजीह नहीं मिली। जो कुछ होता रहा वह बस सोशल मीडिया में…

​फिर से पंजाब के वाकये पर लौटा जाए तो सारी उठापटक करीब तीन महीने तक चली। पहले चरण में कैप्टन अमरिंदर सिंह के प्रबल विरोधी नवजोत सिंह सिद्धु को पीसीसी चीफ की कुर्सी मिली। इसका भी कैप्टन ने पूरजोर विरोध किया। इसके बाद जोरआजमाइश का दौर शुरू हुआ। हाईकमान तक पंजाब को डेरा जमता रहा। पर्यवेक्षक आते—जाते रहे। मीडिया केवल कयास के भरोसे खबरें परोसता रहा।

विधायक दल की बैठक की खबर बाहर आई तो मीडिया अपने हिस्से की खबर तराशने में जुट गया। यानी जिसे जो दिखाना—बताना था वे अपने तरीके से सूत्रों पर आश्रित होते गए। सबसे मजेदार बात यह रही कि मीडिया विधायक दल की बैठक की खबर चलाता रह गया उधर कैप्टन सीधे राज्यपाल के पास त्यागपत्र लेकर पहुंच गए। जिसकी भनक तक मीडिया के पास नहीं थी। इसके बाद मीडिया ने सिद्धु, रंधावा और जाखड़ को भावी सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया।

जब हरीश रावत ने ट्वीट किया तब मीडिया को पता चला कि चौथे बंदे चरणजीत सिंह चन्नी को कुर्सी दे दी गई है। इस मामले में तो अब साफ हो गया है कि कांग्रेस मीडिया के कयास से बाहर निकल चुकी है। और वे अपने फैसले बड़े ही सुलझे हुए तरीके से ले रहे हैं। खासकर ऐसे समय में जब देश के भीतर मीडिया गुटों में तब्दील है। राजनैतिक तौर पर मीडिया स्वयं विचारधारा की लड़ाई का सामान बन चुकी है। ऐसे समय में कांग्रेस के फैसले का गोपनीय रह पाना कांग्रेस के लिए बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए।

पंजाब के फैसले के बाद मीडिया को लेकर यह लिखा जाना क्यों जरूरी है यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं। मैं एक पाठक और दर्शक के तौर पर मीडिया की भूमिका का स्वयं आंकलन करना चाहता हूं। मीडिया के समूचे स्वरूप का एक कण मात्र होने के कारण यह महसूसना कि हम मीडिया तो हैं पर किसी परिवर्तन के लिए जिम्मेदार तो हो ही नहीं सकते। ऐसे समय में स्वयं गर्वित और कार्पोरेट पोषित मीडिया के चरित्र को लेकर मन में भारी संशय है। तो यह समझ में आया कि यह सही समय है कि इस पर भी लिख दिया जाए।

वाट्सएप विश्वविद्यालय की फर्जी खबरों और सोशल मीडिया पर पूरी तरह आश्रित मीडिया का यह स्वरूप चिंतनीय है। आज की मीडिया हर खबर को अपने तरीके से मैनुकुलेट करती दिख रही है। जबरदस्त गिरोहबंदी है। मीडिया के भ्रम से हिंदुस्तान के लोकतंत्र को बाहर निकलना होगा। मैं ऐसा नहीं मानता यदि मीडिया अपने तरीके से इस तथ्य को भी सामने रखने की कोशिश करता कि पंजाब में किसी दलित को मौका देना चाहिए। हिंदुस्तान का लोकतंत्र अब पूरी तरह जातिवादी कब्जे में है। मीडिया भी इससे बाहर नहीं है।

स्वच्छ और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र मीडिया की जरूरत है। यदि मीडिया में पत्रकारिता की जगह प्रपोगंडा स्थापित हो जाएगा तो आने वाले दिनों में नई मुसीबत खड़ी होगी। यह समझने की जरूरत सभी को है।

गुजरात में जो घटनाक्रम हुआ, उत्तरप्रदेश, राजस्थान में हलचल की जैसी रिर्पोटिंग की गई। पंजाब को लेकर मीडिया रिपोर्ट का निष्पक्ष अध्ययन करना चाहिए। अखबारों की हैडिंग और इलेक्ट्रानिक मीडिया की भाषा देखना—सुनना और समझना चाहिए। यह जरूरी भी है कि लोग अब अपने गिरेबां में झांके और महसूस करें कि उनकी दशा और दिशा क्या है?

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