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इस जनादेश को कैसे देखा व समझा जाए…? तो क्या छत्तीसगढ़ भी इसी राह पर है…?

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  • सुरेश महापात्र।

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम की समीक्षा में यह बात साफ है कि संगठन की कमजोरी और नेतृत्वक्षमता का अभाव जनता भलिभांति समझती है। जनता को सरकार से ज्यादा उसके नियंत्रक पर भरोसा करना होता है। सत्ता यदि बेलगाम हुई तो उसे संभालने वाले का आसरा जब तक नहीं दिखेगा तब तक कांग्रेस को ऐसे ही परिणामों से संतुष्ट होना होगा।

पांच राज्यों के चुनाव में कौन हारा कौन जीता यह तो जग जाहिर है पर इस परिणाम की समीक्षा में एकमत हुआ नहीं जा रहा। दिमाग और मन के मध्य भारी उहापोह है। उसकी बहुत सी वजहें हैं। जनता क्या सोचती है और उसका फैसला किस आधार पर सुनिश्चित होता है यह तय करना कठिन दिख रहा है। जमीनी हालात को बयां करती सोशल मीडिया और परिणाम के बीच एक ऐसी रिक्तता है जिसे समझना राजनैतिक दलों के लिए कठिन हो सकता है। बावजूद इसके पांच राज्यों के चुनाव परिणाम ने कांग्रेस के लिए स्पष्ट जनादेश दे दिया है।

दरअसल अब चुनाव परिणामों में केवल कांग्रेस की ही समीक्षा की जरूरत है और कांग्रेस को अपने भीतर झांकने की…। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस ने इस बार अपनी ताकत झोंक दी। कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ के सिवा किसी दूसरे राज्य के नेताओं और कार्यकर्ताओं के जमावाड़ा की कोई सूचना नहीं है। उत्तर प्रदेश से सटे हरियाणा, दिल्ली, मध्यप्रदेश और बिहार में कहीं भी कांग्रेस की हालत ठीक नहीं है। सो वहां से कार्यकर्ताओं को लाना संभव भी नही दिखता। पर छत्तीसगढ़ ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। उत्तर प्रदेश में छत्तीसगढ अपने ‘छत्तीसगढ़ मॉडल’ को लेकर खड़ा हुआ। वहां कांग्रेस को करीब दो फीसद वोट हासिल हुए और पांच सीटों का नुकसान हुआ है।

पंजाब में कांग्रेस की दुर्गति की वजह भी कांग्रेस ही है। पंजाब में चुनाव से पहले कांग्रेस के लिए ऐसा सकारात्मक माहौल अब दुबारा असंभव है। वहां भाजपा और अकालीदल की स्थिति खराब ही थी। केवल आम आदमी पार्टी के साथ ही सीधी टक्कर दिख रही थी। जिसे संभालना उत्तरप्रदेश में अपनी ताकत जाया करने से ज्यादा जरूरी था। पर कांग्रेस ने वहां एक के बाद एक कर जितने भी गढ्ढे खोदे वे सब खुद के लिए ही थे। इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और कार्यवाहक अध्यक्ष सोनियागांधी को ही लेनी होगी।

पंजाब में कांग्रेस की शिकस्त के लिए चरणजीत सिंह चन्नी, नवजोत सिंह सिद्धु, कैप्टन अमरिंदर सिंह और सुनिल जाखड़ से ज्यादा जिम्मेदारी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की है। पांच साल तक सरकार चलाने के बाद कांग्रेस वहां अपने ही सरकार के खिलाफ भाषण देने को मजबूर थी। इस मजबूरी को स्थापित करने के लिए नेतृत्व से ज्यादा किसी दूसरे को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। 
क्योंकि वहां सरकार के तौर पर कैप्टन की कार्यशैली को लेकर पहले ही साल से शिकायतें आनी शुरू हुई थी पर नेतृत्व ने इस पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी। इसकी वजह साफ थी 2018 में तीन राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश ओर छत्तीसगढ़ में जीत हासिल करने के बाद जो घमासान शुरू हुआ उससे कांग्रेस के नेतृत्व में कमजोरी साफ दिखाई देने लगी। इससे कैप्टन अमरिंदर को लेकर फैसला लेने में कांग्रेस ने बहुत सारा वक्त बर्बाद कर दिया।

वक्त की ऐसी बर्बादी ऐसे दौर में की गई जब कांग्रेस के सामने सबसे बडी चुनौती भाजपा के भावनात्मक एजेंडा वाली राजनीति के तौर पर खड़ी हो। मैं छत्तीसगढ़ के संपादक सुनील कुमार के इस लिखे का समर्थन करता हूं ‘मोदी की अगुवाई में भाजपा ने खेल के नियम पूरी तरह बदल दिए हैं, गोलपोस्ट की जगह बदल दी है, गेंद का आकार बदल दिया है, मैदान की लंबाई—चौड़ाई भी बदल दी है। इन फेरबदल से नावाकिफ लोग किसी मासूमियत का दावा करते हुए बदले हुए तौर तरीकों की शिकायत नहीं कर सकते…’

जब राजनीति से इतर बाहर के लोगों को यह साफ दिखाई दे रहा है तो इस नहीं देखने और नहीं समझने वाली कांग्रेस की जिम्मेदारी कोई दूसरा तो ले ही नहीं सकता। दो बरस से ज्यादा समय हो गया कांग्रेस यह तय करने में विफल है कि उसका लोकतांत्रिक अध्यक्ष कौन हो? राहुल ने मना कर दिया और कांग्रेस के तमाम नेताओं के मनाने की कोशिश विफल हो चुकी है।

दरअसल कांग्रेस के भीतर यह भी एक बड़ी चिंता ही है कि जिस तरह से उसके नेता भाग रहे हैं यदि हालात बिगड़े तो गांधी परिवार से इतर कोई दूसरा अध्यक्ष चुन भी लिया जाता है तो वह नहीं भागेगा इसकी गारंटी क्या है? मोदी—शाह के सामने बड़े—बड़े राजनीतिक सूरमा मीठी शरबत बने हुए हैं। मध्यप्रदेश में एक अदद ​राज्य सभा सीट के लिए ज्योतिरादित्य ने जो झटका दिया कांग्रेस सत्ता से सडक पर आ गई।

इधर राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी सबकुछ ठीक नहीं है। सचिन पायलट तो पिंजरा तोड़ ही चुके हैं। छत्तीसगढ़ में राजनैतिक मनमुटाव सतह पर साफ है। एक राज्य की सत्ता के सामने संगठन नेतृत्व का बौनापन भी यह बताता है कि संगठन बूढ़ा बरगद हो चुका है। उसके निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो गई है। उसे भय है जिन पंछियों ने बूढ़े बरगद में आशियाना बनाया हुआ है वह उसे छोड़कर कभी भी दूसरे फलदार में अपना ठिकाना तलाश सकते हैं।

आज से करीब छह माह पहले छत्तीसगढ में ढाई—ढाई साल वाले फार्मुले को लेकर जबरदस्त संघर्ष हुआ। दिल्ली से रायपुर तक विधायक और मंत्रियों का परेड दिखती रही। यह परेड केवल कांग्रेस संगठन ने ही नहीं देखा है बल्कि पब्लिक भी इस संघर्ष को साफ देख व समझ रही है। छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार का कामकाज कैसा है? से ज्यादा महत्वपूर्ण तो यह है कि इतनी बड़ी बहुमत हासिल करने के बाद कांग्रेस के अंदरखाने वही 2003 वाली स्थिति है।

अगले बरस छत्तीसगढ़ में चुनाव है। इससे पहले कांग्रेस को भीतर से ठीक करने की जरूरत है। निश्चित तौर पर भूपेश कई मामलों में भाजपा के डा. रमन सिंह से बेहतर करते दिख रहे हैं पर उनका सादगी में छिपा अहंकार भी कहीं—कहीं छलक जाता है। डा. रमन के बनिस्पद भूपेश सारे फैसले खुद लेते दिख रहे हैं। डा. रमन के फैसलों में अमन सिंह की छाप दिखाई देती थी। यही उन्हें बड़ा नुकसान पहुंचाया भी। बावजूद इसके डा. रमन की सरलता को कोई नहीं नकार सकता। इससे इतर भूपेश ने छत्तीसगढिया बनाम बाहरी की लकीर पर भी काफी काम किया है। इसी का नतीजा है बस्तर और सरगुजा में भी स्थानीय का मुद्दा तूल पकड़ रहा है।

छत्तीसगढ़ में भारी बहुमत के बाद कांग्रेस के खिलाफ कांग्रेस ही खडी दिखने लगी है। यही वह चीज है जिसने कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान पहुंचाया है। भूपेश बघेल लाख दावा करें कि सुशासन ले आए हैं फिर भी यह साफ दिखाई दे रहा है कि भ्रष्टाचार बढा ही है। धान, किसान, गोबर और गोठान से आगे विकास को लेकर सारे दावे हवा हवाई ही हैं।

निर्माण व सप्लाई में कमीशनखोरी कम नहीं हुई, बरकरार है। कहीं—कहीं ज्यादा भी हो रही है। कांग्रेसी खुद दावा करते हैं कि उन्होंने पैसा देकर काम हासिल किया है जिसे वे कर रहे हैं। गौण खनिज संसाधन को लेकर तमाम दावे हकीकत से दूर हैं। सिस्टम के भीतर अंडरग्राउंड सिस्टम क्रियाशील है। फिलहाल समय है कि भूपेश चाहें तो इन तथ्यों की पड़ताल एक श्रेष्ठ राजा की तरह कर सकते हैं जो प्रजा के संपर्क में आकर स्वयं सच जानने की कोशिश करता है।

चूंकि हम पांच राज्यों के चुनाव परिणाम की समीक्षा कर रहे हैं तो ऐसे में राज्यों के परिणाम को अपने राज्य के नजरिए से देखने की कोशिश ही की जा सकती है। जहां चुनाव थे वहां परिणाम वैसे क्यों आए से लेकर जिन राज्यों में कांग्रेस फिलहाल सत्ताशीन है वहां क्या हाल है यह देखना समझना ही ज्यादा जरूरी है। सत्ता में बैठे व्यक्ति को संस्था बनकर काम करना चाहिए… उसे व्यक्ति के स्थान पर संस्था की तरह बनाए रखने की जिम्मेदारी संगठन की होती है। संगठन का नेतृत्व कमजोर होता है तो ‘सत्ता’ व्यक्ति बनकर काबिज रहती है जिसका खामियाजा संगठन को भोगना पड़ता है। यही कांग्रेस की असल कमजोरी है… शायद अब समझ में आ जाए।

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