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उन्मादित भीड़ या आल्हादित जनता? शपथ ग्रहण समारोह का हाल ए बयां…

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सुरेश महापात्र।

“उन्मादित भीड़ या आल्हादित जनता” यह तय कर पाना निहायत कठिन सा हो गया था आज! जब हम सभी शपथ ग्रहण कार्यक्रम का हिस्सा रहे। नेता या पार्टी की जीत से बड़ी विचारधारा की जीत या हार होती है।

लोकतंत्र में विचारधारा ही मूल मंत्र है। हम यह मानते और जानते रहे हैं कि राजनीतिक दलों की अपनी एक विचारधारा होती है।

मैंने बीते कुछ अरसे में यह जानने में सफलता पाई है कि “कांग्रेस” और “कांग्रेसी” सही मायने में विचारहीन राजनीतिक दल की श्रेणी में आती है। तो क्या यह मान लें कि कांग्रेस की कोई अपनी विचारधारा है ही नहीं?

विधानसभा चुनाव को लगातार अपनी नज़र और नज़रिए से देखते हुए पाया कि कांग्रेस के मूल में भले ही कोई एक वैचारिकता समाहित होगी पर जमीन पर लोभी, लालची, मतलबी, एहसान फ़रामोश और भयंकर किस्म के आत्ममुग्ध लोगों की एक भीड़ है।

जो हमेशा अपने लिए जनमत का इस्तेमाल जीत हासिल करने तक ही करना चाहता है। सत्ता लोभी चरित्र का प्रदर्शन करते हुए जीतने के बाद जनता को अपनी प्राथमिकता से बाहर कर देता है।

ऐसा नहीं है कि अति विचारधारा मूल की पार्टी भाजपा में कांग्रेसी चरित्र के नेता नहीं होते? होते तो यहाँ भी हैं। बिल्कुल उसी तरह के जैसा मैने पहले कहा है। पर यहाँ एक बड़ा फ़ासला खड़ा हो जाता है जब संगठन के अनुशासन की बात आती है।

ऐसा अनुशासन या तो भय से पैदा होता है या संगठन के प्रति समर्पित भाव से… आज साइंस कॉलेज मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक शब्द भी नहीं कहा… भीड़ आल्हादित और उन्मादित होकर “हर-हर मोदी, घर-घर मोदी” का नारा लगाती रही… भीड़ यदि आल्हादित है तो नेता की वैचारिक जीत है। इसके उलट भीड़ उन्माद में आनंद महसूस कर रही है तो उसकी निष्चेतना के लिए भी नेता की जीत है।

भीड़ उन्मादित होकर भी अनुशासन में दिखाई दे रही थी। मानों मंच से मोदी बस इक इशारा भर कर दें तो वह मदारी के बंदर की तरह हर वह काम करने लगेगी जैसा इशारा हो… यह भीड़ का अपने नेता के प्रति समर्पण है। भीड़ को लगता है कि अपने नेता के प्रति उन्मादी हुए बग़ैर समर्पण असंभव है।

इसीलिए कार्यक्रम चाहे शासकीय हो या राजनीतिक लक्ष्य पर आधारित उसकी प्रतिध्वनि एक जैसी ही सुनाई देती है। भारतीय जनता पार्टी को मतदाताओं ने विशुद्ध तौर पर हिंदूत्व का पर्यायवाची मान लिया है। जिसकी सोच, कार्यशैली, कार्यक्रम और राजनीतिक विचारधारा का संपूर्ण प्रतिबिंब “हिंदू” और प्रदर्शित हिंदुत्व की भावना ही है।

इसमें शामिल होने वाले नेताओं को सबसे पहले यही चोला बदलना होता है। जब तक चोला बदला नहीं जाएगा तब तक वह भीड़ को स्वीकार्य नहीं होगा।

किसी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का यह पहला अवसर रहा। फिर भी मुझे लगता है कि आज जो मैंने देखा समझा है वैसा इससे पहले कभी नहीं हुआ होगा।

भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों की दृष्टि में नरेंद्र मोदी ईश्वर तुल्य स्थिति में हैं। कोई उनकी एक भी बुराई बर्दाश्त करना तो दूर सुन भी नहीं सकता… कांग्रेस के पास विचारधारा है भी तो ऐसा सहज स्वीकार्य नेतृत्व ही नहीं है।

जिसे भी मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलती है, सत्ता मिलती है या कहें ज़िम्मेदारी मिलती है वह केवल आत्ममुग्ध हो जाना चाहता है… विचार और उसकी धारा को लेकर चिंता या समझ तो दिखाई ही नहीं देता…

मीडिया की गैलेरी में पूरे दिन डटा रहा। समझने की कोशिश में जुटा था कि मीडिया का असल चरित्र क्या है? यह समझ स्पष्ट हुई कि वहाँ विचारधारा से परे इक्का-दुक्का रहे… वैचारिक तूफ़ान के आग़ोश में समाहित भीड़ के साथ मौका परस्त, वाक् चातुर्य से परिपूर्ण पूरी तरह उन्मादी भी गैलरी की भीड़ का हिस्सा रहे।

मीडिया गैलेरी के ठीक पीछे भाजपा कार्यकर्ताओं की बैठक व्यवस्था रही। वहाँ पहले इक्का-दुक्का ने “हर-हर मोदी” का नारा लगाना शुरू किया… कैमरे मंच की ओर से पीछे घुम गए… कैमरा देख उत्साहित भीड़ बढ़ी और जयकारा प्रारंभ हो गया… कैमरा अब भीड़ में वक्ता तलाशने लगे… वक्ता मिलते गए भीड़ उन्माद के चरम में पहुँचने लगी… तब तक विधायकों का दल मंच पर नहीं पहुँचा था।

विजयी विधायकों का दल मंच पर पहुंचते तक पूरे सभा स्थल में माहौल बन चुका था… विधायकों को देखकर भीड़ का उद्घोष चरम पर पहुँच गया… भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के लिए “शेर आया-शेर आया” विजय शर्मा के लिए “विजय भैय्या जय श्री राम” के नारों की अनुगूँज तो थी ही… पर साजा के विधायक ईश्वर साहू के लिए “ईश्वर-ईश्वर” का उद्घोष… यह स्थापित कर रहा था कि हमने अपना बदला ले लिया है।

साजा से रविंद्र चौबे को पराजित कर विधायक चुने गए ईश्वर साहू ने अपने बेटे को गँवाने के बाद कल्पना भी नहीं की होगी ऐसी जगह भाजपा ने दिला दी है। आप इसे जो भी कहें पर वैचारिक तौर पर राजनीतिक दल की अपनी विचारधारा की इससे बड़ी जीत मैंने कभी नहीं देखी।

उद्घोष से बना माहौल यह स्थापित कर रहा था कि इस भीड़ को अपनी ताकत बनाने के लिए राजनीतिक दल को ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है।

दरअसल कांग्रेस में इसके उलट हाल है। पहली बात तो ज़्यादातर कांग्रेसी नेताओं को तो पता भी नहीं है कि उनकी पार्टी की विचारधारा क्या है? लकर-धकर करके हासिल जीत को ही विचारधारा की जीत निरूपित करने का प्रयास करते रहे हैं।

जीतने के बाद का हाल तो बीते पाँच साल के अनुभव से समझा जा सकता है।पूरी तरह स्वानंदित नारों की अनुगूँज और बेहद शिथिल किस्म का माहौल जहां ना तो उत्सवी प्रदर्शन है और ना ही कोई उन्माद को माहौल… भीड़ को जुटने के बाद भी आनंद का अनुभव नहीं होता है… यह नया भारत है। यहाँ भीड़ को इंस्टेंट आनंद चाहिए… जो कांग्रेस में संभव है ही नहीं।

आज कार्यक्रम स्थल पर बहुत से मीडिया साथियों से पहली बार मिला। कुछ ने नाम से पहचान लिया और कुछ शब्दों को चाहने वाले निकले… सुदूर दंतेवाड़ा से राजधानी तक बस इतनी ही उपलब्धि मेरे हिस्से आई है। मुझे नहीं पता आप में से कितने मुझे पढ़ते हैं या समझते हैं पर यह तय है कि चाहने वाले बहुत हैं। जिन्होंने मुझसे कहा था कि आज आप यहाँ के माहौल पर लिखें… उनका शुक्रिया 🙏

क्रांतिकारी जय श्री राम

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