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DEMONETISETION 2.0 : ऐसी करंसी जो आम लोगों में चलन से बाहर ही थी उनका चलन रोक दिया जाना अच्छा ही है… पर सरकार की जवाबदेही तो बनती ही है…

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सुरेश महापात्र।

लोकतंत्र में जनता के पास सबसे बड़ा ​हथियार अपने लिए सरकार चुनना होता है। इस सरकार की जवाबदेही होती है कि वह जनहित के कामों को संचालित करे और समूची व्यवस्था की जिम्मेदारी ले। करीब तीन दशक के बाद हिंदुस्तान में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार ने मई 2014 में सत्ता की बागडोर संभाली। पूरे देश में भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर हाहाकार मचा हुआ था। जनता भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रही थी। जनलोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद देश का मूड चेंज हो चुका था। बाबा रामदेव कालेधन को लेकर सड़क पर संघर्ष कर रहे थे।

सीएजी विनोद राय की रिपोर्ट ने टूजी स्पेक्ट्रम में पौने दो लाख करोड़ रुपए की गड़बड़ी की आशंका जताई थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में इस मामले की जांच और कार्रवाई सीबीआई कर रही थी। कामनवेल्थ गेम्स में करोड़ों रुपयों के घोटालों और कोलगेट को लेकर केंद्र की यूपीए—2 सरकार जनता के आक्रोश का शिकार हो रही थी। कुल मिलाकर 2014 के आम चुनाव से पहले भ्रष्टाचार को लेकर जनमानस में कई तरह की विरोधी धारणाओं ने घर किया हुआ था। आम जनता जनलोकपाल की नियुक्ति जिसे देश के सर्वोच्च पदा​सीन से लेकर अंतिम सरकारी कर्मचारी तक पर कार्रवाई का अधिकार चाहते आंदोलित थी।

ऐसे दौर में विपक्षी भारतीय जनता पार्टी को पूरे देश में एक तरफा बहुमत हासिल हुआ। भारी भरकम जीत के बाद देश के सबसे मजबूत सरकार मिली। इस सरकार के मुखिया के तौर पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी देश के प्रधानमंत्री चुने गए। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को आधी रात से डिमोनेटाईजेशन का ऐलान किया। पांच सौ और एक हजार के नोट अवैध घोषित कर दिए गए। लोगों को उनके पास रखे नोटों को बदलने की मियाद तय कर दी गई। माना गया देश की चुनी हुई सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना सबसे बड़ा एक्शन ले लिया है। लोगों को महीनों तक कतार में खड़ा होना पड़ा। तीन से चार महीनों तक देश के भीतर करंसी को लेकर हाहाकार मचा रहा। आम लोगों को बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ा। बावजूद इसके जनता ने मोदी सरकार का साथ नहीं छोड़ा।

नोटबंदी की इस प्रक्रिया में क्या खामियां थीं? सरकार ने इस कदम को उठाने से पहले क्या सही किया और क्या गलत किया? इसे लेकर भी भारी आरोपों का दौर चलता रहा। इस नोट बंदी का हासिल यही रहा कि सरकार ने पांच सौ के नए नोट जारी किए और एक हजार की करंसी की जगह दो हजार मूल्य की नई करंसी जारी की। साथ ही आम लोगों की जरूरत को पूरा करने के लिए दो सौ रुपए की नई करंसी भी मार्केट में लाई गई। इस दौरान दो हजार मूल्य वाली करंसी को लेकर जबरदस्त विरो​धाभास बना रहा। यह साफ तौर पर माना गया कि काला धन रखने वालों के लिए सरकार ने राह और आसान कर दिया है। अब उन्हें ज्याद आसानी होगी।

मीडिया में इस बात को प्रसारित किया कि दो हजार के नए करंसी में नैनो चिप लगाया गया है जिससे सरकार एक जगह बड़ी मात्रा में इस करंसी के जमा होने पर सैटेलाइट के माध्यम से उस ठिकाने का पता लगा लेगी। पर इस तथ्य से आरबीआई ने इंकार किया। आरबीआई के इस इंकार के बावजूद मीडिया ने कभी यह स्पष्ट नहीं किया कि इन नोटों में नैनो चिप लगाए जाने की बात गलत है। खैर हिंदुस्तान में नोटबंदी का दुष्प्रभाव बड़े पैमाने पर देखने को मिला। बहुत से लोगों के लिए रोजगार का संकट उत्पन्न हो गया। व्यापार में भारी मंदी का दौर सामने आया। बेरोजगारी और महंगाई के लिए नोटबंदी ने सहायक की भूमिका निभाई।

इस नोटबंदी को कुल जमा हासिल भी नकारात्मक ही रहा। जितना कैश आरबीआई ने जारी किया था करीब—करीब उतना ही बैंकों में वापस आ गया। इससे एक धारणा साफ हुई कि नोटबंदी से कालाधन को बाहर करने का प्रयास पूरी तरह से विफल हो गया। उल्टे दो हजार मूल्य की जो नई करंसी बाजार में लाई गई वह धीरे—धीरे बाजार से गायब होने लगी। यह करंसी ना तो बैंकों में लौट रही थी और ना ही बाजार में घूम रही थी। बड़े पैमाने में इस करंसी के गायब होने से एक बार फिर आशंका बलवति हुई कि भ्रष्टाचारियों ने दो हजार की करंसी को अपना हथियार बना लिया है।

आरटीआई एक्टिविस्ट कुनाल शुक्ला ने अपने ट्वीटर अकाउंट पर एक जानकारी साझा की है। इस जानकारी को उन्होंने आरबीआई से सूचना के अधिकार से हासिल की थी। 16 दिसंबर 2022 को उन्होंने सवाल किया था कि वर्षवार दो हजार के नोटों को छापने का आंकड़ा बताएं। इस सवाल के जवाब में आरबीआई ने बताया 2016—17 में 3542.991 लाख नोट छापे गए।2017—18 में 111.507 लाख नोट छापे गए।2018—19 में 46.690 लाख नोट छापे गए। इसके बाद आरबीआई ने दो हजार के नोटों की छपाई बंद कर दी। इस दौरान कुल 3701.188 लाख नोट दो हजार मूल्य के बाजार में दिए गए। जिसकी कीमत बाजार में संचालित कुल नोटों के मूल्य का करीब 13.8 प्रतिशत बताया जा रहा है। यानी करीबे पौने पांच लाख करोड़ रुपए मूल्य के 2000 रुपए के नोट बाजार में इस वक्त हैं।

अब सबकी निगाह इस बात पर जरूर बनी रहेगी कि महज साढ़े छह साल के बाद जिस करंसी को प्रचलन से बाहर करने की तैयारी की गई है उसका नतीजा क्या निकलेगा? यदि इसमें एक लाख करोड़ भी कम वापिस आए तो स​मझिए कि यह केंद्र सरकार का मास्टर स्ट्रोक साबित होगा। इससे दोनों दौर की नोटबंदी के लाभ खुले में गिनाए जा सकेंगे। यदि इस बार भी सारे नोट बैंकों में लौट आए तो साफ होगा कि कालाधन जमाखोरी और भ्रष्टाचार को लेकर देश के भीतर जो माहौल है उसमें देश की करंसी की जमाखोरी का हिस्सा न्यूनतम है और विदेशी बैंकों में जमाखोरी बदस्तूर जारी है।

एक बड़ी बात तो यह है कि अभी—अभी ही कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के परिणाम आए हैं। कर्नाटक में एक बार फिर भ्रष्टाचार का मुद्दा इस कदर हावी रहा कि लोगों ने प्रधानमंत्री की किसी भी अपील का साथ नहीं दिया। इससे फिर चुनावों में भ्रष्टाचार को लेकर आम जन में माहौल बनता देख यह फैसला लेने को बाध्य होना पड़ा हो। क्योंकि चंद महीनों बाद पांच राज्यों में चुनाव है। इसके बाद 2024 में आम चुनाव तय है। पांच राज्यों के चुनाव से पहले केंद्र के पास सबसे बड़ा हथियार भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना है। क्योंकि राजनीतिक तौर पर यदि इन पांच राज्यों में भी केंद्र के खिलाफ भ्रष्टाचार के मसले पर कमजोरी स्थापित हो गई तो पूरा नरैटिव बदल सकता है। ऐसे में दो हजार की करंसी को बदलने का फैसला राजनैतिक तौर पर मास्टर स्ट्रोक साबित करने की तैयारी की गई हो।

सच्चाई तो यही है कि दो हजार के नोट जो आम लोगों की जरूरत और पहुंच से बाहर हो चुके थे उसके प्रचलन से बाहर हो जाने से आम लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। इससे केवल और केवल सरकार पर फर्क पड़ेगा। क्योंकि जब दो हजार के नोट प्रचलन में लाए गए तो उसकी वजह क्या रही? और जब इन नोटों को प्रचलन से बाहर करने का फैसला किया गया है तो इसकी आंतरिक वजह क्या है? यह तो तय है कि भले ही आरबीआई ने पहली बार नोटबंदी को लेकर अपनी घोषणा की है तो सरकार की सहमति के बगैर तो इतना बड़ा कदम उठाना असंभव है। 2016 में जब प्रधानमंत्री ने इस नोटबंदी का ऐलान किया था इसी बात को लेकर आरोप था कि आरबीआई एक स्वायत्त संस्था है और सरकार ने नियमों को दरकिनार कर नोटबंदी करवाई है।

वैसे भी ऐसी करंसी जो आम लोगों में चलन से बाहर ही थी उनका चलन रोक दिया जाना अच्छा ही है। पर सरकार की जवाबदेही तो बनती ही है। उसे यह आज नहीं तो कल स्पष्ट करना ही होगा कि ऐसी कौन सी वजह रही कि नोट छापने के हजारों करोड़ रुपए की लागत को इस तरह से बेजा करने का निर्णय लिया गया।

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