Articles By NameEditorialImpact Original

बस्तर में राजनीति की दिशा बदल रहे हैं भूपेश… नेताम, सोढ़ी और कर्मा के बाद अब लखमा का दबदबा…

सुरेश महापात्र।

रविवार को मुख्यमंत्री ने प्रदेश के जिला प्रभारी मंत्रियों के प्रभार जिला में बड़ा परिवर्तन किया है। इसमें सबसे बड़ा परिवर्तन बस्तर संभाग के उन पांच जिलों के नाम है। जिसमें कोंटा के पांच बार के विधायक और कैबिनेट मंत्री कवासी लखमा को दंतेवाड़ा, बीजापुर, बस्तर, कोंडागांव और नारायणपुर का प्रभार सौंपा गया है। दंतेवाड़ा की राजनीति के लिए कवासी लखमा हमेशा महेंद्र कर्मा के लिए चुनौती रहे।

दोनों नेताओं के बीच सिर्फ दिखावे का रिश्ता बचा रहा। दिग्विजय सिंह हों या अजित जोगी दोनों ने कवासी लखमा का उपयोग महेंद्र कर्मा को नियंत्रित करने के लिए ही किया। 2018 के विधानसभा चुनावों में स्व. महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा के पराजय के बाद बस्तर की राजनीति की दिशा यकायक बदल गई।

अरविंद नेताम और मनकूराम सोढ़ी के दो गुटों के बीच महेंद्र कर्मा ने समूचे बस्तर में अपना एक गुट स्थापित किया। ये गुट कांकेर से लेकर कोंटा और भोपालपटनम तक सक्रिय रहा। 1996 से लेकर 2013 तक महेंद्र कर्मा की सशक्त मौजूदगी के सामने पूर्व के नेताम—सोढ़ी दोनों गुट शिथिल हो गए।

बस्तर में किसी भी राजनैतिक फैसले के लिए कर्मा की स्वीकार्यता की अनिवार्यता दिग्विजय सिंह और अजित जोगी भी महसूस करते रहे। निर्दलीय सांसद प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में उतरने के बाद महेंद्र कर्मा ने मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह द्वारा नाम वापस लेने के लिए बात किए जाने पर सेंट्रल हाल में मिलने की चुनौती देकर स्पष्ट तौर पर नकार दिया था। उसके बाद पृथक छत्तीसगढ़ ​निर्माण के दौरान आदिवासी मुख्यमंत्री के तौर पर खुद को मजबूती के साथ रखकर जो संदेश दिया उसका खामियाजा भी महेंद्र कर्मा ने अपनी राजनीतिक पारी के दौरान भुगता।

वे मंत्री होकर भी किसी काम के नहीं रहे। जोगी ने दिग्विजय के बाद कवासी लखमा को महेंद्र कर्मा के लिए हथियार बनाया। यह बात किसी से छिपी नहीं है। कर्मा के कई करीबियों को लखमा की लॉबी में शामिल करवा लिया गया। कवासी लखमा और महेंद्र कर्मा के बीच रिश्ते तब सबसे ज्यादा तल्ख हुए जब सलवा जुड़ूम का विस्तार कोंटा इलाके में करने का फैसला महेंद्र कर्मा ने किया।

तब कर्मा (2003—2008) नेता प्रतिपक्ष हुआ करते थे। लखमा ने अपने इलाके में सलवा जुड़ूम का जमकर विरोध किया। बावजूद इसके कर्मा नहीं मानें। एर्राबोर सलवा जुड़ूम कैंप पर माओवादी हमले के बाद राज्य सरकार ने अपना कदम ​पीछे खिंचना शुरू किया। माओवादियों के ताबड़तोड़ हमलों से राज्य सरकार पर बढ़ते दबाव का ही यह नतीजा रहा कि जुड़ूम अभियान में कर्मा अलग—थलग पड़ गए।

इसके बाद 2008 के विधानसभा चुनाव में अजित जोगी और कवासी लखमा के चक्रव्यूह में महेंद्र कर्मा इस कदर फंसे की निकल ही ना सके। दंतेवाड़ा इलाके के कई नेताओं के साथ कवासी लखमा ने अपनी करीबी बढ़ाई। कर्मा के कई करीबियों को अपने पाले में ले लिया। पर कर्मा के अपराजित होने और मुख्यमंत्री का संभावित दावेदार होने के दंभ ने उनका सबसे बड़ा नुकसान कर दिया।

महेंद्र कर्मा हमेशा से यह मानते रहे कि उन्हें अजित जोगी और कवासी लखमा ने नुकसान पहुंचाया। यह बात भी चर्चा में रही कि सीपीआई प्रत्याशी को पिछले दरवाजे से आर्थिक सहायता भी पहुंचाई गई। तब यह भी चर्चा रही कि कोंटा इलाके में कवासी को निपटाने के लिए कर्मा ने भी रणनीतिक तैयारी की थी। पूरे मामले में कवासी लखमा ने बेहद चतुराई के साथ पूरे राजनीति घटनाक्रम में स्वयं को मौन रखकर साध लिया।
अतीत की इन बातों का जेहन में आना अस्वाभाविक नहीं है।

2018 के चुनाव में देवती कर्मा के पराजय के बाद कवासी लखमा की राह का कोई कांटा शेष नहीं रहा। भाजपा विधायक भीमा मंडावी की नक्सल हमले में शहादत के बाद उपचुनाव के दौरान कवासी असहज ही रहे। कर्मा परिवार उन पर कतई भरोसा करने को तैयार नहीं था। पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पूरी ताकत झोंककर महेंद्र कर्मा के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया। परिणाम सबके सामने है। पर कर्मा परिवार इसे सहेजने में विफल दिख रहा है।

दीपक कर्मा और छविंद्र कर्मा की राजनीति में जमीन आसमान का फर्क रहा। अब दीपक नहीं रहे। तुलिका कर्मा जिला पंचायत अध्यक्ष हैं। मां देवती कर्मा की सबसे करीबी भी हैं। छविंद्र कर्मा को सरकार ने निगम में उपाध्यक्ष का पद दिया है पर वे इस नाम से खुद को पहचाने जाने से इंकार करते रहे हैं। अब दंतेवाड़ा की धुरी में देवती के बाद तुलिका और छविंद्र ही कर्मा परिवार का भविष्य हैं। 2018 में जब बेटे छविंद्र ने बगावती तेवर दिखाया था तब से यह साफ है कि 2023 में कर्मा परिवार में विधानसभा चुनाव के दौरान फिर से बवाल मचेगा।

दंतेवाड़ा की राजनीति में इन दिनों इस बात की चर्चा रही कि आने वाले दिनों में देवती कर्मा को मंत्री पद मिलेगा। 20 जून को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कवासी लखमा को जिस तरह से पांच जिलों का प्रभार सौंप दिया है उससे यह साफ हो गया है कि फिलहाल यह रास्ता बंद हो गया है। अब कवासी लखमा ही बस्तर के सर्वे सर्वा हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि आने वाले विधान सभा चुनाव के दौरान लखमा दादी को उनके प्रभार वाले जिलों की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। यानी राजनी​तिक कद बढ़ा दिया गया है। बस्तर के लोगों के लिए कांग्रेस का कद्दावर नेता सीएम भूपेश ने घोषित कर दिया है।

कर्मा परिवार को यह भी भान नहीं है कि भूपेश अब पहले वाले भूपेश नहीं हैं। उन्हें मुख्यमंत्री के पद के साथ राजनीतिक संतुलन भी स्थापित करना होगा। जब परिवार के बीच ही वैचारिक एका नहीं हो तो कोई मुख्यमंत्री कुछ नहीं कर सकता। मुख्यमंत्री का अपना सूचना तंत्र होता है जो उनके राजनैतिक स​मर्थक व विरोधियों की हर खबर पहुंचाता है। ऐसे ही कई भेदिए कर्मा परिवार के इर्द गिर्द भी हैं।

फिलहाल कर्मा परिवार का कोई ऐसा चेहरा साफ नहीं है जिसके बूते बस्तर की बिसात बिछाई जा सके। सो यह लॉटरी कवासी लखमा के लिए खुल गई है। अब कर्मा की जगह लखमा गुट ही सर्वेसर्वा घोषित कर दिया गया है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि बस्तर में राजनीति की दिशा बदल रहे हैं भूपेश… नेताम, सोढ़ी और कर्मा के बाद अब दादी लखमा का दबदबा दिखने लगेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!