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आखिर क्यों हैं निशाने पर बस्तर के सबसे बुजुर्ग कांग्रेसी नेता अरविंद नेताम…

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  • सुरेश महापात्र।

आजादी से करीब पांच बरस पूर्व 1942 में आदिवासी नेताम परिवार में जन्में अरविंद नेताम की उम्र अब करीब 80 बरस की हो गई है। वे अविभाजित मध्य प्रदेश के सबसे बड़े आदिवासी नेता रहे। बस्तर से केंद्रीय मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री का पद हासिल करने वाले इकलौते कद्दावर रहे। एक समय था जब छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं श्यामाचरण और विद्याचरण के बराबर खड़े हो गए और दिग्विजय सिंह की सीएम की कुर्सी को चुनौती देते मध्यप्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की दौड़ का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे अरविंद नेताम बीते करीब दो दशक तक नेपथ्य में रहे। पर एक बार फिर वे सुर्खियों में हैं। वह भी बस्तर से ही जहां से उनकी राजनीति को ग्रहण लगा था।

यह तो तय है कि अरविंद नेताम अब मुख्यमंत्री तो बन ही नहीं सकते। यानी छत्तीसगढ़ के सियासी प्रमुख भूपेश बघेल को उनसे किसी प्रकार की चुनौती है ही नहीं। दरअसल राजनीति में सबसे पहले उन चेहरों को निशाना बनाया जाता है जिनसे सबसे बड़ा सियासी खतरा होता है। ऐसा तो कहीं से भी दिखाई देता नहीं है। बावजूद इसके अरविंद नेताम ने बस्तर की सभी 12 सीटों में जीत हासिल करने वाली कांग्रेस के लिए ऐसी क्या मुसीबत खड़ी कर दी है? इसे बारिकी से समझना चाहिए।

बस्तर की राजनीति में अरविंद नेताम और मानकूराम सोढ़ी दो ऐसे चेहरे रहे जिन्होंने उत्तर और दक्षिण बस्तर में अपनी लंबी संसदीय सियासत खेली। मनकूराम सोढ़ी बस्तर के गांधी के तौर पर विख्यात रहे। उनके लिए कहा जाता है कि उन्होंने यदि किसी का भला ना किया हो पर बुरा तो किसी का भी नहीं किया। पर अरविंद नेताम की स्थिति उनके बिल्कुल उलट रही। वे राजनीति की बारिक समझ रखते हुए अपने राजनैतिक कद के लिए हर वह काम किया जिससे सत्ता हो या संगठन उनकी अनसुनी करना असंभव रहा।

अरविंद नेताम ने बस्तर में आदिवासी बहुलता को ध्यान में रखते हुए 1996 में एक सबसे बड़ा कदम उठाया था जिसमें बस्तर में अनुसूचित क्षेत्र के लिए संविधान की छठवीं अनुसूचि को लागू कराने की पहल शामिल थी। तब वे प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के मंत्रीमंडल में केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री थे। उनके एक कदम से बस्तर में राजनीतिक भूचाल आ गया था। संभवत: यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी जिसका फायदा भारतीय जनता पार्टी ने उठाया। तब सीपीआई से कांग्रेस की राजनीति में लाकर नेपथ्य में ढकेले गए महेंद्र कर्मा को भी एक बड़ा अवसर मिला। जिसने मनकूराम के बाद अपनी अलग साख तैयार की।

दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री के तौर पर अरविंद नेताम को सीधे निशाने पर लिया। 10 अगस्त 1958 को जन्मे 1986 बैच के आईएएस बी राजगोपाल नायडू बस्तर के कलेक्टर रहते मालिक मकबूजा से संबंधित एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें पहली बार वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम को घेरा जा सका। 1997 की मालिक मकबूजा पर कलेक्टर की रिपोर्ट के मुताबिक आदिवासियों की जमीन पर खड़े सागौन के पेड़ों के कटाई और उससे लाभ का मसला था। जिसमें यह बताया गया कि प्रभाव का उपयोग करते हुए औने पौन भाव पर आदिवासियों की जमीन ले ली गई और उसमें खड़े सागौन के पेड़ों को काटकर बहुत सारा पैसा बनाया गया। जिसके बाद दो ऐसे मुद्दे खड़े कर दिए गए जिसने कभी अरविंद नेताम को खड़ा होने नहीं दिया।

दरअसल 1993 में जब मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार बनी तब अरविंद नेताम ने आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग उठा दी थी। वे लगातार आदिवासी जनप्रतिनिधियों की एकजुटता के साथ चुनौती देते रहे। दिग्विजय सिंह के मंत्रीमंडल में अरविंद नेताम के अनुज शिव नेताम वन मंत्री रहे। बस्तर में अरविंद नेताम के कोटे से 8 लोगों को टिकट दिया गया था। बस्तर जिला की राजनीति में अरविंद नेताम का दबदबा बना हुआ था। कांग्रेस से इतर नेताम का अपना गुट था जो बेहद पावरफुल रहा। 1994 में पंचायत चुनाव में महेंद्र कर्मा जिला पंचायत अध्यक्ष तो बन गए पर जिला पंचायत उपाध्यक्ष राजेश तिवारी के पास पावर शिफ्ट कर दिया गया था। चूंकि वे अरविंद नेताम की ओर से थे।

नेताम जानते थे कि कर्मा का कांग्रेस की राजनीति में आगे आना उनके राजनैतिक भविष्य के लिए सही नहीं रहेगा। पर दो बरस के भीतर ही यकायक तेजी से माहौल बदलने लगा। बस्तर में छठवीं अनुसूचि लागू करने की मांग का समर्थन करते ही बस्तर में बड़ा विवाद खड़ा हो गया। मौका भांपते ही महेंद्र कर्मा ने दो बड़े स्टैंड लिए पहला बस्तर में औद्योगिकरण का सर्मथन और छठवीं अनुसूचि का विरोध। इससे एक बड़ा तबका कर्मा के साथ खड़ा हो गया। लोकसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी महेंद्र कर्मा सांसद चुन लिए गए।

छठवीं अनुसूचि की मांग बस्तर में माओवादी संगठन की प्रमुख मांगों में शामिल रही है। साथ ही सीपीआई के घोषणा पत्र में यह प्रमुख बिंदु रहा। भारतीय जनता पार्टी के आदिवासी नेताओं में बलीराम कश्यप ने भी छठवीं अनुसूचि का विरोध ही किया। वे भी बस्तर के औद्योगिक विकास के पक्षधर रहे। पर बस्तर के आदिवासी नेताओं में यह जानकारी रही ही कि असल मतदाता तो आदिवासी ही है। वे भले ही खुलकर इस तथ्य को स्वीकार ना करते हों पर खुले तौर पर ऐसे प्रावधानों का विरोध नहीं कर सकते।

अरविंद नेताम को गहरे से पता है कि आदिवासी समाज को मजबूती के मसले पर बस्तर के आदिवासी नेता खुलकर विरोध नहीं कर सकते। अरविंद नेताम ने राजनीति के नेपथ्य में रहते हुए कांकेर से ही बस्तर को धुरी से घुमाना शुरू किया। अब जिसका परिणाम एक बार फिर सामने आ खड़ा हुआ है। अरविंद नेताम की राजनीति का यह दबाव ही है कि कांग्रेस को माओवादियों और कम्युनिष्ट पार्टी की सबसे बड़ी मांग पेसा एक्ट को लेकर स्टैंड लेने का मजबूर होना पड़ रहा है।

बीते चुनाव में बस्तर की राजनीति में जो सबसे बड़ा बदलाव भाजपा ने महसूस किया वह यह था कि यकायक आदिवासी समाज का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के वोटबैंक से बाहर हो गया। कांग्रेस को जीत मिली तो पहले पहल कांग्रेस ने यह सोचा कि आदिवासी कांग्रेस के पक्ष में खड़े हो गए हैं। दरअसल यह पूरा सच नहीं है। पूरा सच यह ​है कि अरविंद नेताम ने ग्राम सभा के अधिकारों को लेकर जो पट्टी पढ़ाई और आदिवासियों के एक बड़े तबके में हम हिंदु नहीं हैं का नारा बुलंद करवाया इससे यह वोट बैंक नेताम के कब्जे में आ गया है। अब कांग्रेस आदिवासियों का विश्वास जीतने और आदिवासी समाज के उस तबके को अरविंद नेताम से दूर करने की जुगत में लगी है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आने वाले समय में कांग्रेस के लिए भी खतरे की घंटी है।

क्रमश:

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