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वर्तमान, कांग्रेस का संक्रमण काल है… जनमानस का विश्वास पाने संघर्ष ही विकल्प…

सुरेश महापात्र।

कर्नाटक, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के भीतर मचे घमासान के बाद यदि लोगों को लग रहा है कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस ऐलान के फलीभूत होने का वक्त आ गया है कि हिंदुस्तान कांग्रेस मुक्त हो जाएगी। यह कहना जल्दबाजी और तात्कालिक घटनाक्रम पर आधारित निष्कर्ष मात्र साबित हो सकता है।

मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलेट के विद्रोह के अपने कारण हैं और इससे कांग्रेस को हो रहे नुकसान को कांग्रेस संगठन के संक्रमण काल से जोड़कर देखा जाना चाहिए। कांग्रेस में 2004 से 2014 के दस बरस के कार्यकाल के बाद जबरदस्त संकट का दौर है।

इस संकट में सबसे बड़ा कारण उसके प्रति जनमानस में भारी अविश्वास का भाव है। चाहे चुनाव से पहले रॉफेल की खरीदी का मसला हो या चुनाव के बाद गलवान घाटी पर चीनी घुसपैठ से उत्पन्न हालात किसी भी विषय पर भारतीय जनमानस का खुला समर्थन कांग्रेस को अप्राप्त है।

इसके अलावा नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी और महंगाई को लेकर कांग्रेस के राजनैतिक अभियानों का जनता का अपेक्षित साथ नहीं मिला। जबकि हालात 2014 से पहले से भी बुरे हैं। पेट्रोल—डीजल के दाम पर सरकार का रवैया किसी तरह से पैसे कमाना स्पष्ट दिख रहा है। बावजूद इसके हालात पर कांग्रेस को जनविश्वास अर्जित नहीं है। यदि 2014 से पहले वाली स्थिति होती तो भाजपा के साथ पूरा जनमानस उद्वेलित हो उठता!

2012 से 2014 के बीच में देश का राजनीतिक घटनाक्रम जिस तेजी से बदला उससे अब तक कांग्रेस नहीं उबर पाई है। अब राजनीतिक विश्लेषक अलग—अलग तरीके से कांग्रेस की समीक्षा कर रहे हैं। यह समझना जरूरी है कि कांग्रेस का होना हिंदुस्तान की राजनीति के लिए उतना ही अनिवार्य है जितना लोकतंत्र का।

भले ही राष्ट्रीय नेतृत्व के स्तर पर कांग्रेस में अलोकतांत्रिक होकर परिवारवाद के साए में सत्ता के सुख भोगने का एक लंबा इतिहास सामने दिख रहा हो फिर भी। जिन लोगों को लगता है कि कांग्रेस भारतीय राजनीति के लिए अमरबेल की स्थिति में रहा है… वे इस तथ्य को पूरी तरह समझ नहीं पा रहे हैं कि अमरबेल का मतलब परजीवी होकर उस पेड़ को ही नष्ट कर देना होता है जिस पर उसे पोषण मिलता रहा।

लंबे समय तक कांग्रेस नामक संस्था भारतीय राजनीति के शीर्ष पर रही और कांग्रेस के रहते नरेंद्र मोदी जैसा राजनैतिक नेतृत्व मिला जिससे अब कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। तो यह अस्वीकार है कि कांग्रेस, भारतीय राजनीति का अमरबेल है…! यदि ऐसा होता तो 2014 के बाद देश के बदले हुए माहौल में कई राज्यों में कांग्रेस की सरकार वापसी नहीं करती…

फिलहाल दो—तीन राज्यों में राजनीतिक संकट को ध्यान में रखकर कांग्रेस को पूरी तरह से खारिज कर देना गलत होगा। यह दौर कांग्रेस में वास्तविक नेतृत्व परिवर्तन की ओर इंगित कर रहा है। जिसमें युवा और बुजुर्ग के बीच पीढ़ियों की सोच का अंतर है। युवा नेताओं में सब कुछ बदल डालने की छटपटाहट है वे राष्ट्रीय परिदृश्य में कांग्रेस में बड़ा बदलाव कर उसके प्रति कायम हो रही धारणाओं को खत्म करने के लिए राजनीतिक तौर पर खुद को जोखिम में डाल रहा है।

मध्यप्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलेट को कांग्रेस ने राजनीतिक उत्तराधिकारी होने के नाते बहुत कुछ दिया। इन दोनों की दृष्टि से देखें तो यह स्पष्ट होगा कि वे दोनों मध्यप्रदेश और राजस्थान में भाजपा की मजबूत साख को तोड़ने में कामयाबी दिलाने में महत्वपूर्ण रहे। युवा नेताओं ने मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की बिगड़ी हुई छवि को तोड़कर उम्मीद जगाने का काम किया। पर कांग्रेस राज्य में राजनीतिक संतुलन बनाने में कामयाब नहीं हो सका।

एक आंतरिक समझौते के तहत दोनों राज्यों में बनाए गए मुख्यमंत्रियों ने अपने राजनैतिक दबदबा को बनाए रखने के लिए जो कुछ किया उससे इस छटपटाहट का बाहर आना स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व है जिसे वर्तमान सरकार की कई विफलताओं के बावजूद भारतीय जनमानस का साथ नहीं मिलने का बड़ा मलाल है। कांग्रेस की सबसे बड़ी खासियत है कि विफलता के लिए शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेदार नहीं माना जाता। पर राहुल गांधी ने 2019 के चुनाव में पराजय की जिम्मेदारी ली। यह उनके राजनैतिक जीवन में उनकी नैतिक प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है।

सोनिया गांधी को यदि कार्यवाहक अध्यक्ष नहीं बनाया जाता तो कांग्रेस बिखर सकती थी। जिसका इंतजार सत्ता में बैठी भाजपा को शुरू से ही रहा। सोनिया कांग्रेस के साथ देश के विभिन्न राज्यों में भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने में कई बार कामयाब रहीं हैं। पर उनकी उम्र और सेहत का दुष्प्रभाव उनके राजनीतिक जीवन पर पड़ने लगा है। यही वह समय है जब भाजपा चाहती है कि सब कुछ एक झटके में खत्म हो जाए और बिना प्रयास किए कांग्रेस को खुद ही खत्म होने दिया जाए।

यह भाजपा की ‘वेट एंड वॉच’ की रणनीति का हिस्सा है। यदि ऐसा नहीं होता तो भाजपा जिस जगह पर जिस ताकत के साथ खड़ी है उसके लिए किसी भी राज्य में किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है। पर वह इस दाग से दामन गंदा करना भी नहीं चाहती कि भविष्य में नेहरू के 370, इंदिरा के आपातकाल और राजीवगांधी के 1984 के दंगों जैसा कोई स्थायी मुद्दा बना रहे।

सच्चाई यही है कि कांग्रेस में नेतृत्व का संकट वास्तविक नहीं है यह कांग्रेस की स्थापित राजनीति का अपना तरीका है… अक्सर ऐसा होने के बाद ही कांग्रेस मजबूत होकर खड़ी हुई है। राहुल, प्रियंका और उसके बाद वाली सोच से उपर उठकर देखने से ही यह पता चल सकेगा।

भाजपा ने हमेशा कांग्रेस के परिवारवाद पर जमकर हमला बोला है। साथ ही भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। करीब सवा छह बरस का कार्यकाल मोदी पूरा कर चुके हैं। नेशनल हेराल्ड वाले मामले से इतर कोई दूसरा ऐसा दाग लगाने में भाजपा असफल रही है।

इन मुद्दों को लेकर सत्ता पाने के बाद 2014 से 2019 तक कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के भीतर से पूरी दुनिया में जाकर एक जनमानस तैयार किया… जिसकी आलोचना भी होती रही… उन्होंने ऐसा नासमझी में किया होगा क्या यह माना जा सकता है?

जबकि 2019 के बाद नरेंद्र मोदी अब अपनी जुबान से कांग्रेस का नाम भी नहीं ले रहे हैं…. इसके लिए उन्होंने भाजपा संगठन के साथ नंबर दो की स्थिति में खड़े अमित शाह को एक तरह से जिम्मेदारी सौंप दी है। इसकी वजह साफ है 2014 में भाजपा बड़ी बहुमत के साथ सत्ता में आई जरूर पर उसे सही ताकत 2019 के चुनाव के बाद में हासिल हुई। 

मोदी नहीं चाहते थे कि भारतीय जनमानस में दो सरकारों के काम के आधार पर कोई तुलना हो क्योंकि जिस एजेंडा को लागू करने की उनकी जिम्मेदारी है उसके लिए संसद के दोनो सदन से लेकर राज्यों में बहुमत अनिवार्य है।

यह तभी संभव था जब 2012 के बाद से कांग्रेस के खिलाफ बने भारतीय जनमानस को 2019 तक बनाए रखा जाए। कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के पास मजबूत राजनैतिक नेतृत्व का कोई विकल्प ही ना हो… यह काम खुद के अच्छे काम से ज्यादा कांग्रेस की बुराईयों के गुणगान से ही संभव था। 

भाजपा ने अटल जी जैसा सौम्य नेतृत्व दिया। पर वे दुबारा सत्ता में नहीं लौट सके… इसकी वजहों पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने गहरा अध्ययन किया है। अपनी राजनीतिक चूक का ऐहसास होने के बाद दुबारा ऐसी गलती नहीं की जा सकती। इसीलिए सत्ता में आने के बाद राज्यों में सत्ता हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे पांच साल चुनावी मोड पर रहे… राज्यों में किसी भी कीमत पर सत्ता एकमात्र अंतिम लक्ष्य रखा। 

यूपीए के संभावित नेतृत्व के लिए सबसे बड़े चेहरे नरेंद्र मोदी के धुर विरोधी नीतिश कुमार को अपने साथ खड़ा करना भाजपा की सबसे बड़ी सफलता साबित हुई। यह भी देखें यदि पश्चिम बंगाल से ममता बिहार का नीतिश कुमार साबित होतीं तो इतनी बदनामी का प्रयोग भाजपा नहीं करती…

यह महज एक उदाहरण है कि नरेंद्र मोदी ने अपने भारतीय जनमानस के भीतर ब्लादिमीर पुतिन जैसा काम करने की कोशिश की… आज रूस में कोई यदि मिखाईल गोरब्याचोब का नाम लेता है तो भी लोग उसे घूरते हैं… पुतिन ने यह स्थापित कर दिया है कि यदि गोरब्याचोब नहीं होते तो अमेरिका की जगह रूस दुनिया में नंबर एक पायदान पर होता… 

रूस और अमेरिका के बीच भारत-पाकिस्तान जैसा ही विश्वास है। रूस में लोग अमेरिका के खिलाफ ही सुनना और जानना पसंद करते हैं। पुतिन के नियंत्रण में सत्ता से जुड़ी सारी संस्थान है। यहां तक की वहां की इकॉनोमी पर भी पुतिन समर्थित संस्थानों का वर्चस्व है। मीडिया में पुतिन के खिलाफ कोई खबर चलाकर स्थापित नहीं कर सकता… अब पुतिन ने 2036 तक के लिए अपनी सत्ता सुरक्षित कर ली है… संविधान की किताब में कुछ पन्ने जोड़कर… 

यही रणनीति नरेंद्र मोदी की रही है। वे कांग्रेस की जड़ों पर वार करते रहे… सोनिया से ज्यादा राहुल के खिलाफ माहौल स्थापित करना रणनीति का हिस्सा रहा… यदि कांग्रेस बदनाम नहीं होगी तो उनसे पूछे गए सवाल का जवाब जनता सुनना चाहेगी। फिर और भी सवाल खड़े होने लगेंगे। विपक्ष को तब मौका मिलेगा। यदि विपक्ष ही ना रहा तो… 

फर्जी तस्वीरें और एडिटेड विडियो का खेल किसी से छिपा नहीं है। सोशल मीडिया में इसके माध्यम से जो छवि गढ़ दी गई है उसे झुठलाना कतई आसान नहीं है। उदाहरण देखिए राहुल गांधी अपनी राजनीतिक सभा में नरेंद्र मोदी के वादों का जिक्र करते बता रहे हैं कि “वे ऐसा कहते हैं जैसे एक मशीन बनाई है इधर से आलू डालो उधर से सोना निकलेगा… कहीं ऐसा होता है क्या?”

सोशल मीडिया में एडिटेड विडियो सर्कुलेट किया गया “एक मशीन बनाई है इधर से आलू डालो उधर से सोना निकलेगा… ” भाजपा ने अपनी आईटी सेल पर बड़ी ताकत लगाई है। जिसे समझने में कांग्रेस से बड़ी चूक हुई। 

अब कांग्रेस की मजबूरी है कि यदि उसका नेतृत्व गांधी परिवार से बाहर जाता है तो कांग्रेस खत्म हो जाएगी। जिसके लिए नरेंद्र मोदी की सत्ता के बाद तेजी से काम हुआ। वे आजाद भारत में पहले ऐसे राजनेता रहे जिन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का ऐलान तक किया। 

यही वजह कांग्रेस के लिए पुनर्जीवन का काम कर गई। कांग्रेस के सभी नेताओं की मजबूरी है कि वे किसी दूसरे की जगह गांधी परिवार के नीचे रहकर काम करने में खुद को ज्यादा सुरक्षित समझते हैं। बावजूद इसके भाजपा की यह जीत है कि उसने हिंदुस्तान के भीतर राहुल के प्रति एक स्थाई नजरिया बना दिया है… 

इसके लिए तकनीक का जैसा इस्तेमाल किया गया वैसा अब तक किसी के खिलाफ नहीं हुआ… हिंदुस्तान में आप किसी भी राज्य में कहीं भी “पप्पू” बोलिए सुनने वाला मुस्कुराते हुए कहेगा राहुल गांधी… भाजपा के आईटी सेल और कांग्रेस विरोधी मीडिया ने इस काम को ईमानदारी से पूरा किया है।

ऐसा करने के पीछे सबसे बड़ी वजह कांग्रेस को मूल नेतृत्व से ही तोड़ना रहा है। यदि यह संभव हुआ तो देश के सभी राज्यों में कांग्रेस के बड़े नेता अपना राज्य स्तरीय राजनीतिक मंच बना लेंगे और कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर होकर नेपथ्य में चली जाएगी। ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान के भीतर विपक्ष सदैव के लिए खत्म हो जाएगा और एकमात्र राष्ट्रीय राजनीतिक दल भाजपा रह जाएगी। अंतिम सच्चाई यही है कि वर्तमान, कांग्रेस का संक्रमण काल है… जनमानस का विश्वास पाने संघर्ष ही अंतिम विकल्प… ताकि लोकतंत्र जिंदा रहे।

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