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हम सबमें एक लालसिंह चड्ढा हो…

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सिनेमा समीक्षा पीयूष कुमार के फेसबुक वॉल से साभार

यह फ़िल्म एक 50 साल के इंसान की कहानी है जिसके पास नकारात्मक दिमाग कम और निर्दोष दिल ज्यादा है। फ़िल्म इस बात से ही शुरू होती है कि यह ‘फॉरेस्ट गम्प’ का भारतीय संस्करण है। इस फ़िल्म का डिस्क्लेमर सम्भवतः सबसे बड़ा डिस्क्लेमर है। यह क्यों है, यह समझना आसान है। बहरहाल, फ़िल्म की कहानी नहीं बताऊंगा क्योंकि यह कई कहानियों से मिली हुई और कुछ अविश्वसनीय सी है इसके बावजूद यह कह सकता हूँ कि ‘फॉरेस्ट गम्प’ का यह संस्करण भारतीय परिप्रेक्ष्य में उससे भी बेहतर है।

फ़िल्म की शुरुआत में किसी परिंदे का सफेद पंख हवाओं में उड़ता फिरता है। यह पंख लालसिंह चड्ढा (आमिर खान) के जीवन का प्रतीक है क्योंकि इसी तरह उसकी जिंदगी है, जैसा वक्त आता है, वह वैसा होता जाता है बिना किसी किंतु परन्तु के। फ़िल्म की खास बात है लालसिंह चड्ढा के जीवन के साथ – साथ चलती पिछले 50 सालों में हुई घटनाएं। जैसे – 1975 का आपातकाल, 1983 का क्रिकेट वर्ल्ड कप, ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या फिर सिख विरोधी दंगे, लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा, 1992 के दंगे, मुम्बई ब्लास्ट, सुष्मिता सेन का मिस यूनिवर्स बनना, करगिल युद्ध, 2008 का मुम्बई अटैक, अन्ना हजारे का लोकपाल आंदोलन, अबकी बार मोदी सरकार का पोस्टर और गांधी के चश्मे वाला स्वच्छ भारत अभियान। जिनकी भी उम्र 50 साल हो रही है, वे इस कहानी से बहुत अच्छा कोरिलेट कर सकते हैं। एक दृश्य टीवी पर किसी मौलाना द्वारा 72 हूरों की प्राप्ति पर है जिसे एक भूतपूर्व आतंकी द्वारा खारिज किया जाता है। हालांकि यह तमाम दृश्य एक घटना मात्र की तरह फ़िल्म में आई हैं पर वह क्या कहती हैं, यह दर्शकों को तय करना है। फ़िल्म में अभिव्यक्ति की यह कला अद्भुत है जिसमें कुछ न कहके भी कह दिया जाए। इन तमाम घटनाओं का जिक्र यह बताता है कि एक भला इंसान इस पूरे दौर के साथ भी भला बना रह सकता है जैसे कि वास्तविक जीवन में 50-55 साल के सारे आम लोग जिन्होंने अब तक एक निर्दोष जीवन जिया है।

फ़िल्म में चड्ढा की मां (मोना सिंह) के रूप में एक सशक्त महिला का कैरेक्टर है। वह 1971 में एक सिंगल मदर है। उसके घर मे लालसिंह के नानाओं की तस्वीरें लगी हैं। यह बात इस लिहाज से अलग है कि यह पितृसत्तात्मकता को खारिज करके मातृसत्ता को स्थापित करती है। फ़िल्म की दूसरी चरित्र रुपा (करीना कपूर) जो चड्ढा की दोस्त/प्रेमिका/पत्नी होती है, वह एक्ट्रेस बनकर शोहरत पाने की ख्वाहिश में बर्बाद होती चली जाती है। यह हिस्सा अबू सलेम – मोनिका बेदी केस से प्रभावित लगती है। रूपा का यह चरित्र युवतियों को चकाचौंध की झूठी दुनिया से बचने का सबक देता है। फ़िल्म में बाला (नागा चैतन्य) एक यादगार चरित्र है। यह जब बात करता है तो ‘कोई मिल गया’ के रितिक रोशन की याद आती है। पूरी फिल्म अनेक घटनाक्रमों से गुजरती है पर हर फ्रेम में सिर्फ आमिर खान ही छाए हुए हैं। फ़िल्म में सभी का अभिनय उम्दा है। आमिर ने फिर से सिद्ध किया कि वे अलग हैं, उम्दा हैं। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी और बैकग्राउंड स्कोर सब बढ़िया है पर म्यूजिक कुछ समझ न आया। कोई एक भी पॉपुलर गीत नहीं है। फ़िल्म में गाने पर कम और दृश्यों पर ध्यान अधिक रहता है। यह कम किया जा सकता था। इससे फ़िल्म कॉम्पेक्ट होती।

‘लालसिंह चड्ढा’ का फर्स्ट हॉफ दर्शकों को हर लिहाज से पकड़कर रखता है पर दूसरे हॉफ में फ़िल्म इमोशनल दृश्यों में कुछ खींचने लगती है। यह गानों के साथ आता है तो जरा बोझिल लगने लगता है। रूपा के संग बचपन और बाद के दृश्यों को कम करके 10 मिनट बचाये जा सकते थे। हालांकि जरा सा धैर्य रखने पर दृश्य बदलते हैं और फ़िल्म पकड़ बनाये रखती है। फ़िल्म का क्लाइमेक्स दूसरी फिल्मों सा टाइप्ड नहीं है बल्कि सघन भावों से भरा हुआ है। फ़िल्म अपने बेहद मार्मिक दृश्यों और सहज हास्य के कारण सपरिवार देखने योग्य है। फ़िल्म में VFX के माध्यम से युवा शाहरुख खान को देखना रोमांचक है वहीं बीते जमाने की अभिनेत्री कामिनी कौशल जो अब 95 बरस की हैं, को देखकर श्रद्धाभाव उमड़ता है। यहां पर फ़िल्म यूनिट की तारीफ बनती है कि उन्होंने इस वरिष्ठ अभिनेत्री को इस दौर में याद किया।

‘लाल सिंह चड्ढा’ की सबसे बड़ी बात यह है कि पुष्पा, केजीएफ 2 और विक्रम जैसी अपराध को महिमामण्डित करनेवाली और वीभत्स हिंसा वाली फिल्में जिन्होंने रिकार्डतोड़ कमाई की है, उनके सामने ऐसे में एक मासूम चरित्र, संवेदना से लबरेज और बिना अतिरेक के दृश्यों के सहारे लालसिंह चड्ढा प्रस्तुत हुआ है। लालसिंह चड्ढा या कहें, ‘फॉरेस्ट गम्प’ जैसा प्रेमी भी दुर्लभ है। सब कुछ हासिल कर लेने की प्रवृत्ति के बीच प्रेम में सब कुछ जो अपने प्रेमी के लिए अच्छा हो, यह करना उसके प्रेमी रूप का गुण है। यह प्रेमी इसलिए भी है कि निजी दाम्पत्य प्रेम के अलावा वह अन्य सभी से भी प्रेम करता है। फ़िल्म युद्ध के दृश्यों में रक्तपात दिखा सकती थी, रूपा के चरित्र के बहाने यौन दृश्यों को परोस सकती थी पर ऐसा कहीं भी नहीं है। यहां पर निर्देशक अद्वैत चन्दन की तारीफ करनी होगी कि स्क्रिप्ट लेखक अतुल कुलकर्णी के साथ भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह फ़िल्म कमाल बनाई है। यह दर्शकों पर है कि वे हिंसा (पुष्पा जैसी फिल्मों) को पसंद करेंगे कि चड्ढा जैसी उच्च मानवीय बोध वाली फिल्म को।

ऐसा लगता है कि ‘फॉरेस्ट गम्प’ की कहानी को सीधे चुन लेने की वजह शायद यह है कि फ़िल्म का उद्देश्य पहले से तय था। नफरतों के बीच मुहब्बत की स्थापना से बड़ा उद्देश्य कुछ हो भी नहीं सकता और यही किया भी जा सकता है। कम से कम अपनी राह तो सीधी रहे, चाहे दुनिया कैसी भी हो। कवि वीरेन डंगवाल की एक कविता का अंश है, “एक कवि और कर ही क्या सकता है सही बने रहने की कोशिश के सिवा।” समकालीन फ़िल्म इंडस्ट्री में इस वक्त आमिर खान ऐसे ही एक कवि हैं।

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