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दोबे की पहाड़ियों पर पत्थरों का परिवार, चट्टानों की संरचना अद्भूत… नीलम सरई के बाद बीजापुर के पर्यटन पटल पर दोबे की दस्तक…

दोबे से लौटकर। पी रंजन दास।

जुड़ी हुई हैं किंवदंती, पहाड़ पर हैं देवताओं का वास

बीजापुर। पहाड़ पर घास के सपाट मैदान, बीच में गुजरता नाला, इन सब के बीच दूर तक अद्भूत कलाकृतियों को संजोये पत्थरों का एक गांव । प्राकृतिक खूबसूरती और अद्भूत कलाकृतियों से युक्त पत्थरों का ऐसा झुण्ड नजर आता है दोबे की पहाड़ियों पर, जिसे पत्थरों का गांव भी कहा जाता है।

बीजापुर के उसूर ब्लाक में नीलम सरई और नम्बी जलधारा के मध्य एक पहाड़ी जिसे स्थानीय लोग दोबे के नाम से जानते हैं। इस पहाड़ी पर एक नहीं, दो नहीं बल्कि सैकड़ों छोटी बड़ी चट्टानें हैं, जो अपने आप में अद्भूत है। जिसकी मुख्य वजह है इनकी कलाकृतियां, पत्थरों-चट्टानों के मध्य बने खोह, जहां पहंुचकर मानों आप पाषाण युग में हो।
नीलम सरई से लगभग डेढ़ से दो किमी का घना जंगल पहाड़ी रास्ता का सफर कर दोबे पहुंचा जा सकता है।

द्रोण की नज़र से दोबे

जिसमें करीब एक घंटे का समय लगता है। पड़ाव में छोटे-बड़े पत्थरों के अलावा पहाड़ी नालों से सामाना होता है। जिन्हें पार कर दोबे पहुंचने पर यहां पत्थरों की अद्भूत कलाकृतियों के बीच आप खुद को घिरा पाएंगे। प्राकृतिक सुंदरता के बीच यहां कोसो दूर तक पहाड़ी पर ना तो कोई गांव नजर आता है और ना ही ग्रामीणों की आवाजाही जैसी कोलाहाल।
उसूर के सोढ़ी पारा समेत पहाड़ी तराई में बसे गांवों के ग्रामीण गर्मियों के दिनों में दोबे की पहाड़ियों पर पारद के उद्देश्य से यदा-कदा ही पहुंचते हैं।

कहीं जलयान तो कहीं किले जैसी संरचनाः
यहां दूर तक चट्टानों की बसाहट है। जो छोटे और बड़े आकार में है। इनमें कई चट्टानें जलयान सी तो इनसे भी उंचे कई चट्टानों को देखकर किसी किले जैसी संरचना का आभास होता है। नीलम सरई से नम्बी जलधारा के मध्य एकमात्र दोबे की पहाड़ी है जहां कुदरत की अद्भूत कलाकृतियों को समेटे चट्टान नजर आते हैं।

खोह में आदिम युग का एहसास
कई फीट उंचे चट्टानों में ऐसे कई है जिनमें निर्मित खोह को देखकर आदिम युग का एहसास होता है। खोह के भीतर का क्षेत्रफल काफी बड़ा है, जिसमें एक साथ दर्जनभर लोग आसानी से समा जाए। स्थानीय ग्रामीणों की मानें तो इन खोह में अक्सर जंगली जानवर होते हैं। पारद के दौरान जब वो यहां पहुंचते हैं तो कोई भी एक खोह उनके ठहरने का उत्तम स्थल होता है। गर्मियों के मौसम में चट्टानों के उपर विश्राम करते हैं तो वही अचानक बारिष हो जाए तो खोह के भीतर शरण लेते हैं।

पहाड़ पर देवताओं का वास
स्थानीय ग्रामीणों की मानें तो दोबे पर देवताओं का वास है। रविवार-सोमवार की मध्य रात्रि पहाड़ पर बाजा,मोहरी,ढोल आदि पारंपारिक वाद्य के साथ नृत्य की ध्वनि सुनाई पड़ती है। सब कुछ अदृश्य होता है लेकिन ध्वनि कानों तक स्पष्ट सुनाई पड़ती हैं। ग्रामीणों के अनुसार इस वक्त देवी-देवताओं का उल्लासमय वातावरण में आगमन होता है और उनके स्वागत में ढोल, बाजा, मोहरी बजते हैं।

पहली बार बोन फायर और कैम्पिंग
नीलम सरई में पर्यटन को बढ़ावा देने वाली दर्शनीय बीजापुर नामक स्थानीय युवाओं की टीम विगत दिनों दोबे पहुंची थी। नीलम से आगे दोबे पहुंचकर टीम के सदस्यों ने एक खोह में रात बीताई। यही बोन फायर और कैम्पिंग कर एंडवेंचर का लुत्फ उठाया। टीम के सदस्यों की मानें तो प्राकृतिक परिवेश को नुकसान ना पहुंचाकर भ्रमण के उद्देश्य से सैलानी यहां पहुंच सकते हैं, बशर्ते स्थानीय प्रशासन दोबे तक सैलानियों की पहुंच आसान बनाने और सुरक्षात्मक पहलुओं को ध्यान में रखकर ठोस कदम उठाए तो आने वाले दिनों में दोबे सैलानियों के लिए रोमांच भरे पर्यटन से कम नहीं होगा।

ऐसे पहुंचा जा सकता है
दोबे तक पहुंचने बीजापुर जिला मुख्यालय से सड़क मार्ग से आवापल्ली फिर उसूर पहुंचने पर यहां सोढ़ी पारा से नीलम सरई तक पहुंचने पहाड़ी चढ़ाई को पूरी करनी होगी। नीलम सरई से करीब दो किमी पहले गोठान पड़ता है, जहां से खड़ी पहाड़ी चढ़ाई को पूरी कर दोबे पहुंचा जा सकता है, इसके अलावा नीलम सरई से भी दोबे तक पहुंचा जा सकता है, यहां से पहाड़ी चढ़ाई ना के बराबर है।

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