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जगदलपुर में #भाजपा की असल लड़ाई भाजपा से… क्या संतोष बाफना का ‘असंतोष’ गुल खिलाएगा? समझिए #जगदलपुर का असल खेल…

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सुरेश महापात्र।

बस्तर संभाग की 12 में से सबसे ज्यादा प्रभावशाली सीट जगदलपुर की मानी जाती रही है। इकलौती सामान्य सीट में इस बार भारतीय जनता पार्टी ने पूर्व महापौर और भाजपा के संगठन के प्रदेश महामंत्री किरणदेव को टिकट दिया है। 2018 में भी किरण टिकट की दौड़ में थे। ​तब बाफना के खिलाफ आंत​रिक एंटी इंकंबैंसी बहुत बड़ी थी। उनके खिलाफ जबरदस्त करंट था। पर भाजपा भांप नहीं पाई।

इस बार भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने किरण देव को मौका दिया। बीते पांच बरस में बहुत कुछ बदल गया और जगदलपुर विधानसभा की तासीर भी बदली है। किसी समय छोटे खर्च में होने वाले चुनाव की लागत बहुत बढ़ गई है। ऐसे में ‘किरण’ के लिए खाली जेब चुनाव लड़ना पूरे पार्टी के लिए बड़ी चुनौती है।

इसका मतलब साफ है कि किरण के लिए पूरा चुनावी फंड पार्टी की जेब से ही निकालना होगा! संतोष बाफना ने आखिर ऐसा क्या कर दिया है कि जगदलपुर की सीट में लागत बढ़ गई है? यह बड़ा सवाल है।

दूसरा सवाल है कि इस टिकट वितरण के बाद संतोष के भीतर उपजा असंतोष कितना घातक होगा? टिकट नहीं मिलने के बाद संतोष बाफना के घर पर भारी जमघट लगा। इस जमघट में बड़ी संख्या में ग्रामीण पहुंचे। इनके मिलने के बाद संतोष ने अपने राजस्थान जाने की घोषणा कर दी और वे निकल गए। मीडिया से बातचीत में उन्होंने क्या कहा देखिए…

अब जमीनी स्थिति की बात करें तो यह साफ है कि जगदलपुर की सीट का पेंच फंसा हुआ है। कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। वहां भाजपा ने परंपरागत तौर पर किसी मारवाड़ी को टिकट ना देकर वहां के एक वर्ग को उकसा दिया है। जगदलपुर में बड़ी संख्या में मारवाड़ी समाज के लोग रहते हैं। मेन रोड पर सभी की दुकान है। आर्थिक रूप से संपन्न यह समाज हमेशा से जगदलपुर की सियासत में एक तरफा रहा है।

2013 के विधानसभा चुनाव में जगदलपुर सीट में कांग्रेस के रेखचंद जैन का मुकाबला भाजपा के संतोष बाफना से था। रेखचंद चुनाव हार गए। दोनो मारवाड़ी समाज से थे। भाजपा के लिए मारवाड़ी समाज के वोटों का ध्रुवीकरण हुआ और बाफना को जीत हासिल हो गई। 2018 में विधानसभा चुनाव से पहले जगदलपुर की राजनीति में भारी उथल—पुथल मचा। वहां भाजपा के ​भीतर भारी खेमेबाजी हो गई। संघर्ष सड़क तक पहुंच गया। 2013 के चुनाव के बाद हुए नगर निगम चुनाव में भाजपा के किरण देव ने भारी जीत हासिल की। यह बड़ी जीत इस बात का संकेत थी कि आने वाले समय में भाजपा के लिए किरण सशक्त दावेदार बनेंगे। पर 2018 में किरण देव को टिकट हासिल नहीं हुई।

निश्चित तौर पर किरण देव मन मसोस कर रह गए। इसी बीच राजमहल की भाजपा की राजनीति में एंट्री हो गई। अब कल तक राजमहल दलगत राजनीति से बाहर हुआ करता था वह भी अब मैदान में खड़ा था। 2016 तक राजमहल में कांग्रेस और भाजपा दोनों मत्था टेकने पहुंचते। पर राजनीतिक तौर पर महल इतना ताकतवर नहीं है जितना उसे स्थान दिया गया।

कमलचंद्र भंजदेव भाजपा की सियासत में मोदी और शाह के साथ मैदान में उतरे। सुरक्षा हासिल हो गई। सीएम रमन सिंह ने युवा आयोग का अध्यक्ष बनाकर लाल बत्ती सौंप दिया। लगा कि अब महल से चमत्कार होगा! पर ऐसा हुआ नहीं। भाजपा की राजनीति अपने परंपरागत तौर तरीके से ही चलती रही।

2017 में भाजपा के भीतर भारी सिर फुटौव्वल हुआ। मसला था रेलवो साइडिंग का। इसमें केदार कश्यप, बैदूराम कश्यप और संतोष बाफना का एक सिंडिकेट सक्रिय हुआ। वहीं भाजपा का दूसरा खेमा जिसमें धीरे—धीरे शक्तिशाली हो रहे शक्तिसिंह चौहान, बृजेश भदौरिया थे। ये भाजपा के किरण देव के करीबी रहे। इन पर डा. रमन सिंह का भी वरदहस्त रहा। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का आशीर्वाद भी इनके सिर रहा। इस समूह में कांग्रेस के मलकित सिंह गैदू भी शामिल थे। फुटपदर में हिस्सेदारी को लेकर भारी हंगामा हुआ। गोलियां चली। संतोष बाफना के भांजे को गोली लगी। भाजपा दो फांक हो गई।

राजनैतिक लड़ाई अब व्यक्तिगत दंभ और विद्वेष के साथ जानलेवा स्तर तक पहुंच गई। 2018 में विधानसभा चुनाव हुआ तो यह खंदक की लड़ाई सतह पर रही। कांग्रेस के रेखचंद को भाजपा के दूसरे शक्तिशाली गुट से खूब खाद—पानी हासिल हुआ। नतीजा रहा कि भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ रहे संतोष बाफना चुनाव हार गए।

हांलाकि जमीनी वजह इससे परे रही। भाजपा समर्थित व्यापारियों का यह आरोप रहा कि संतोष ने विधायक बनने के बाद सारा काम खुद ही करने लग गए। सप्लाई से लेकर छोटे—मोटे काम सभी में बाफना का हस्तक्षेप रहा। यह बात अंडर करंट का काम किया और ग्रामीण इलाकों में मजबूत पकड़ रखने के बाद भी बाफना 25 हजार से ज्यादा वोटों से पिछड़ गए।

इसके बाद 2019 में नगर निगम का चुनाव हुआ। इसमें भाजपा की ओर से सीए योगेंद्र कौशिक को उम्मीदवार बनाया गया। संघ परिवार के तेज तर्रार हिंदूवादी नेता योगेंद्र कौशिक के खिलाफ नगर निगम चुनाव में जमकर भीतराघात हुआ। भाजपा के कुछ नेताओं पर उन्होंने हराने के लिए दुष्प्रचार का आरोप लगाया। यदि बाफना चाहते तो जगदलपुर में नगर निगम का अध्यक्ष सीट योगेंद्र कौशिक आसानी से जीत हासिल कर सकते थे।

कौशिक को निपटाने के पिछे का राज यही रहा कि यदि वे महापौर बन गए तो एक और दावेदार सामने आ जाएगा! संतोष बाफना के किसी समय बेहद करीबी योगेंद्र पांडे भी एक समय के बाद बाफना से दूर हो गए। संतोष बाफना एकक्षत्र राज चाहते थे उसमें किसी दूसरे के लिए जगह बस दूसरे नंबर पर ही हो सकती थी। हुआ भी ऐसा ही कुछ। जब तक सौदान सिंह की राजनीति हावी रही वहां किरण के लिए संगठन और संतोष के लिए सत्ता की राह खुली रही।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में किरण देव से पहले अमर देव का भी एक दौर था। उस समय यदि प्रभावशाली आदिवासी नेता बलिराम कश्यप का जोर नहीं रहता तो आज बस्तर की केंद्रीय राजनीति में अमर देव का सिक्का चलता। कश्यप परिवार के साथ देव परिवार की बहुत पुरानी अदावत रही है बलिदादा के समय से। अमर देव युवा नेता थे और वे जगदलपुर की आरक्षित सीट से राजगोंड जाति के आधार पर अपना नामांकन दाखिल कर चुके थे।

बलिराम कश्यप तेज दिमाग थे वे जानते थे कि यदि देव परिवार आ​रक्षित सीट से चुनाव लड़ने में और जीत हासिल करने में सफल हो गया तो इसका दुष्प्रभाव बहुत बड़ा होगा। चूंकि बस्तर राज परिवार भी राजगोंड जाति ही लिखता है। ऐसे में जगदलपुर और कोंटा की सीट में दिक्कतें शुरू हो जाएंगी। ऐसे में अमर देव के राजगोंड जाति को अनुसूचित जन जाति के दावे को जिला निर्वाचन अधिकारी के सामने आपत्ति में दर्ज की गई। कलेक्टर सुनिल टंडन ने अपना फैसला सुनाया कि ‘राजगोंड’ को अनुसूचित जन जाति में शामिल नहीं माना गया है।

इसके बाद देव परिवार की राजनैतिक स्थिति सिमट गई। अमर देव के निधन के बाद किरण देव ने राजनीति का दामन थामे रखा। वे भाजपा के संगठन के वि​भिन्न पदों में लगातार बने रहे। वहीं संतोष बाफना पहले नगर पालिका अध्यक्ष बने फिर विधायक। अब किरण देव पहले महापौर बने अब विधायक के चुनाव में मैदान पर हैं।

इस बार लड़ाई कुछ ज्यादा ही बड़ी है चूंकि 2018 के चुनाव के समय किरण देव ने भाजपा संगठन से कहकर स्वयं को जगदलपुर से बाहर पार्टी के लिए काम करने की इच्छा जताई थी। इस बार यही काम संतोष बाफना करते दिख रहे हैं। संतोष बाफना और किरण देव भले ही एक ही पार्टी की छत्रछाया में राजनीति कर रहे हों पर एक नार्थ पोल है तो दूसरा साउथ पोल…। विश्वास का भारी संकट है। बाफना को पता है कि इस बार उनके पास आखिरी मौका था जिसे अब वे चला गया मान रहे हैं।

बता रहे हैं कि बाफना के कद के पिछे बहुत कुछ ऐसा है जो दिगर राजनीतिक नेताओं से बड़ा बनाता है। वे इस बार पराजय के बावजूद पूरे पांच साल तक अपने समर्थकों के साथ कनेक्ट रहे। कम से कम दस हजार एक वोटर्स हैं जिन पर संतोष बाफना का जादू चलता है। टिकट नहीं मिलने के बाद संतोष बाफना के निवास पर पहुंचने वाले ग्रामीणों के चेहरों में भारी उदासी थी।

और हो भी क्यों ना? बहुत कम लोगों को पता होगा कि संतोष बाफना ने अपने वोट बैंक को साधे रखने के लिए कई ऐसे काम किए हैं जो अब तक किसी भी विधायक ने नहीं किया है। वे अपने विधानसभा क्षेत्र के साथियों को जन्मदिन पर बधाई संदेश नियमित भेजते हैं साथ ही एक पौधा… गणेश और दुर्गा महोत्सव के दौरान अपने विधानसभा क्षेत्र के सभी गणेश और दुर्गा समितियों को नियमित चंदा देते हैं। कोशिश करते हैं कि सभी समितियों की पूजा में वे शामिल हो सकें। यह भी उनका अपना एक इन्वेस्टमेंट ही रहा है राजनीति में अब जगदलपुर में यह बदलेगा…

वे एक इशारे से भाजपा के पक्ष या विपक्ष में तब्दील हो सकते हैं। संतोष बाफना को टिकट नहीं मिलने के बाद भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, प्रभारी ओम माथुर समेत तमाम दिग्गजों ने मोबाइल पर चर्चा की। उन्होंने साफ कह दिया है कि वे प्रदेश के 89 सीटों में से कहीं भी काम करने को तैयार हैं… यानी जगदलपुर में ना रहकर जो खेल होगा… उसे भांपना भाजपा के बूते की बात नहीं रह गई है।

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