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अधिरोपित शास्ति, संबंधित जन सूचना अधिकारी के सर्विस रिकॉर्ड में भी दर्ज हो ऐसा प्रस्ताव शासन को भेजने की तैयारी- मनोज त्रिवेदी राज्य सूचना आयुक्त

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इम्पेक्ट न्यूज। दंतेवाड़ा/रायपुर।

हाल ही में दक्षिण—पश्चिम बस्तर के प्रवास पर पहुंचे राज्य सूचना आयोग के दो महत्वपूर्ण व्यक्तियों राज्य सूचना आयुक्त मनोज त्रिवेदी और धर्मेंद्र जायसवाल से इम्पेक्ट ने सूचना के अधिकार के क्रियान्वयन और व्यवस्था को लेकर विभिन्न ​बिंदुओं पर चर्चा की। उन्होंने एक महत्वपूर्ण जानकारी दी कि आयोग की ओर से सरकार को एक प्रस्ताव भेजने की तैयारी हो रही है जिसमें शास्ति रोपित सजा पाने वाले जनसूचना अधिकारियों की सेवा पुस्तिका में इसे अनिवार्यत: दर्ज करने का प्रावधान किया जाए।

विशेषकर कई ऐसे मुद्दे जिसमें सूचना प्राप्त करने को इच्छुक आवेदकों को सवालों का कारण बताते आवेदन निरस्त कर दिया जाता है। अथवा ऐसे मामले जिनमें जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था क्या है? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल कानून के तहत शास्ति रोपित अधिकारियों के खिलाफ होने वाली कार्रवाई की व्यवस्था को लेकर चर्चा की गई।

दोनों आयुक्त सूचना के अधिकार के क्रियान्वयन को लेकर जमीनी स्तर पर कार्यशालाओं के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। वे माओवादियों की समस्या से ग्रसित अतिसंवेदनशील बीजापुर, सुकमा और दंतेवाड़ा में बैठक कर जमीनी हकीकत जानने की कोशिश करते हैं। यह बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है ज​ब वे जनसूचना अधिकारियों को कानून का लोकहित में अनिवार्यत: समय सीमा के भीतर पालन करने की सलाह देते हैं।

नीचे दिए गए कथ्य में जैसा कि श्री त्रिवेदी और श्री जायसवाल ने बताया…

अधिनियम 2005 बनने के बाद में छत्तीसगढ़ में सूचना अधिकार अधिनियम का भरपूर उपयोग किया जा रहा है। राज्य गठन के पश्चात जब से सूचना का अधिकान अधिनियम प्रयोग में आया है तब से लगभग 70 हजार के करीब अपील और शिकायतें आयोग में दर्ज किए गए हैं। इनमें हजारों की संख्या में निराकरण भी हुआ है। लेकिन मैं दर्ज प्रकरणों की संख्या बता रहा हूं सूचना का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद 69295 के आस पास है 2022 तक का आंकड़ा जिसमें 2023 में जो भी आवेदन प्राप्त हुए हैं उसे शामिल करने से यह आंकड़ा 70 हजार से ज्यादा हो जाता है।

बहुत अच्छे तरीके से छत्तीसगढ़ में सूचना के अधिकार का प्रयोग हो रहा है। लोग अपने अधिकार के प्रति सूचना प्राप्त करने के लिए सजग हैं और बकायदा जन सूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी इसके लिए अपने दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। यहां एक बात प्रमुख तौर पर साझा करना चाहते हैं कि बस्तर क्षेत्र में खास तौर पर दंतेवाड़ा, सुकमा या कोंडागांव अथवा बीजापुर जैसे जिले हैं। यहां सूचना अधिकार को लेकर जागरूकता बहुत ज्यादा है। डाउन द लाइन जन सूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी उसका निराकरण अपने स्तर पर करते हैं।

इन जिलों में द्वितीय अपीलीय शिकायतों का जो लोड है वह अन्य मैदानी जिलों की अपेक्षा संख्या कम है। जो वनांचल से दूर मैदानी इलाका है वहां से काफी कम है। यह इंगित कर रहा है कि जो जन सूचना अधिकारी हैं और प्रथम अपीलीय अधिकारी हैं वे सतर्क हैं यहां की जनता सतर्क है सजग है कि वह सूचना अधिकारी अधिनियम का भरपूर उपयोग कर रहे हैं और यहां के जन सूचना अधिकारी जो इस व्यवस्था में प्रथम बिंदु होता है वह अपनी ड्यूटी पूरी ईमानदारी के साथ निभा रहा है।

हम लोग जो हैं हम कस्टोडियन आफ सूचना अधिकार के तहत राज्य की एक बॉडी के तौर पर आंकलन करते रहते हैं। हम समय—समय पर साल में कई बार सूचना अधिनियम की कार्यशाला आयोजित करवाते हैं। जिसमें विभिन्न विभागों के जन सूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारियों को अवगत कराते रहते हैं। ताकि उनकी स्वाभाविक दिक्कतें हैं उसका निराकरण कर सकें। हमने बीजापुर, दंतेवाड़ा होकर सुकमा में कार्यशाला को संबोधित किया है।

उनसे जब पूछा गया कि सूचना के अधिकार के दुरूपयोग को लेकर अधिकारी अक्सर शिकायतें करते हैं। उसके लिए क्या व्यवस्था है?

सूचना के अधिकार में इसे लेकर दो पहलू हैं एक एंगल से यह आपको दुरूपयोग लगेगा। यदि एक ही तरह का व्यवक्ति अलग—अलग विभागों में सैकड़ों की संख्या में आवेदन लगाता है। जिसका लोकव्यापी हित नहीं होता है। या उसका लोक हित का भाव नहीं होता है। ऐसी बहुत संख्या में एक्टिविस्ट हैं जो सूचना अधिकार के तहत आवेदन प्रस्तुत करते हैं। तो उन्हें लेकर यह आरोप लगना स्वाभाविक है। लेकिन सीधे तौर पर यह कह देना कि ऐसे आवेदक का कोई हिडन इंटरेस्ट रहता है। यह गलत बात है।

सूचना का अधिकार व्यवस्था की खामियों को रोकना और सुधारना के साथ लोकहित है यदि भ्रष्टाचार के मामले पर कोई जानकारी लेने की कोशिश कर रहा है तो वह ऐसे एक्टिविस्ट के खिलाफ अपना पक्ष रख रहा है तो यह तभी होगा जब संबंधित पक्ष गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार है और इसे सूचना के अधिकार के तहत देने को तैयार नहीं है। तो क्या ऐसे मामलों को देखते हुए सूचना के अधिकार के तहत जो हो रहा है यह सही है या इसमें किसी तरह के परिवर्तन की दरकार है?

जो चल रहा है वह इसीलिए अच्छे से चल रहा है कि जनसूचना अधिकारी जो आवेदन प्राप्त कर रहा है वह नियम के तहत है तो आवेदक को उपलब्ध करवाई जाए। इसमें आवेदक की मंशा कोई मायने नहीं रखता। इस अधिनियम में मंशा को लेकर कोई उल्लेख भी नहीं है। दूसरी बात पारदर्शिता अगर डाक्यूमेंट देने मे होगी तो करप्शन जाहिर तौर पर इससे कम होगा। सूचना के अधिकार से करप्शन पूरी तरह से रूका है यह कह नहीं सकते पर सूचना अधिकार अधिनियम करप्शन के लिए सबसे बड़ी बाधा तो बन ही गई है। क्योंकि हर डाक्यूमेंट इस कानून से आम आदमी की पहुंच के दायरे में है।

आपके सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता। एक तरह से यह भी जवाब भी होता है। इससे लगता है कि तकनीकी तौर पर अधिकारी जवाब देने से बचाना चाहता है? इसके लिए क्या प्रावधान है?

देखिए अधिनियम की धारा 8 में कौन—कौन सी जानकारियां नहीं दी जा सकतीं इसका स्पष्ट उल्लेख है। इसकी वजह भी इसमें स्पष्ट कर दिया गया है। निजी दस्तावेज या जिससे किसी के जानमाल को खतरा हो सकता है, किसी को क्षति पहुंचने की आशंका हो सकती है। इस तरह के कुछ क्लाज हैं इसमें स्पष्ट तौर पर सभी चीजों को वर्णित कर दिया गया है। 

आपने जैसा कि बताया कि ‘सवाल किया’ इसको भी एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि कब, कितना और कहां प्रश्नात्म नहीं माना जाएगा। केवल ‘क्यों’को सुप्रीम कोर्ट ने प्रश्नात्मक है जिसका जवाब देना वांछनीय नहीं है। इसके अलावा सारे के सारे प्रश्नात्मक शब्दों को डाल देने से जानकारी मांगना प्रश्नात्मक नहीं होता।

यह हम अपने कार्यशाला में बार—बार बताते हैं कि आपके पास दस्तावेजी स्वरूप में जो जानकारी है उसमें यदि सवाल है कब दिया गया तो दस्तावेज में आपके पास इसका जवाब दस्तावेज में है। 

कितना दिया गया यह भी आपके दस्तावेज में है, कब, कहां दिया गया यह भी आपके दस्तावेज में है। जो भी जवाब दस्तावेजी स्वरूप में है उसे देना बाध्यकारी है। ऐसे ढेर सारे मामले सामने आते हैं जिसमें जनसूचना अधिकारी इस तरह के प्रावधानों की आड़ लेकर जानकारी देने से बचते हैं।

ऐसे जन सूचना अधिकारियों को निश्चित तौर पर पेनाल्टी होती है 25 हजार रुपए तक अधिकतम् पेनाल्टी का प्रावधान कानून में है। और ज्यादातर जनसूचना अधिकारी इस तरह से दुर्भावनापूर्ण तरीके से जानकारी देने से बचने की कोशिश करते हैं। उन तमाम जनसूचना अधिकारी को सूचना देने के साथ ही पेनाल्टी भी भुगतनी पड़ती है।

क्या ऐसे मामलों को जनसूचना अधिकारी के सर्विस रिकार्ड में दर्ज किया जाता है?

ऐसे मामलों में अब तक ना तो केंद्र और राज्य सरकार ने स्पष्ट नहीं किया है। ये जो पेनाल्टी होगी उसे सर्विस बुक में लिखा जाए या नहीं! लेकिन अभी छत्तीसगढ़ राज्य सूचना आयोग यह विचार कर रहा है और राज्य सरकार को यह प्रस्ताव देने वाला है कि सूचना के अधिकार अधिनियम के उल्लंघन पर जो भी सजा होती है वह संबंधित जन सूचना अधिकारी के सेवा पुस्तिका में दर्ज होना चाहिए। इसे सर्विस पेनाल्टि के तौर पर देखा जाना चाहिए।

जो शास्ति अधिरोपित होती है 25 हजार की या जितने दिनों तक जानकारी नहीं दिया है 250 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से यह राशि संबंधित जन सूचना अधिकारी के वेतन से काट कर लोक प्राधिकारी यानि जो एडमिनिस्ट्रेटिव अथारिटी है वह जमा करती है। शासन के खाते में। दूसरा एक सजा और है धारा 20(2) के तहत उसमें अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा होती है। हजारों की संख्या में धारा 20(2) सजा हुई है आयोग से यह अपने आप में कानूनी कार्रवाई है जो सक्षम अधिकारी होता है उसके उपर करता है। जाहिर तौर पर यह रिकार्ड में होगा। पर यह अनिवार्य नहीं है। इस व्यवस्था के लिए जो उनकी सेवा पुस्तिका में दर्ज किए जाने को लेकर है यह व्यवस्था नहीं है।

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