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संस्कृति पर हावी हुई आधुनिकता : ताड़-छिंद के पत्तों के मंडप हुए दूभर, डीजे ने ले ली तुड़बुड़ी-मोहरी की जगह…

इंपैक्ट डेस्क.

बीजापुर। ग्रामीण समाज-सभ्यता में आधुनिक रहन-सहन के तौर-तरीकों की दखल पीढ़ियों से कायम संस्कृति को अब पीछे धकेलने का काम कर रही है, जिससे विवाह, मुंडन से लेकर कई संस्कार का निर्वहन ना सिर्फ खर्चिला हो चला है बल्कि ऐसे मौकों पर आपसी सहभागिता की मिठास भी धीरे-धीरे से कम हो रही है। इन दिनों गांवों में शादी ब्याह के अलावा मुंडन, छट्ठी जैसे संस्कार का अवसर ग्रामीणों पर खर्च का बोझ बढ़ा रहा है, वजह है ग्रामीण तौर-तरीकों से हटकर किराया भंडार का बढ़ता चलन।

जिसमें आमंत्रित मेहमानों के बैठने के लिए प्लास्टिक कुर्सियों से लेकर टेंट, बाजे-गाजे के नाम पर डीजे इत्यादि।
कभी गांवों में शादी-ब्याह का अवसर हो या अन्य कोई संस्कार , आपसी सहयोग से ग्रामीण मिलकर ताड़-छिंद के पत्तों से मंडप तैयार करते थे, आमंत्रित मेहमानों के बैठने, छाव के लिए भी व्यवस्था इसी तरह से की जाती थी, डिस्पोजल थाली की जगह पत्तल-दोना का इस्तेमाल होता था, अब इसकी जगह किराया भंडार ने ले ली है। ताड़-छिंद पत्तों का मंडप तो दूर तुड़बुड़ी-मोहरी की जगह डीजे ने ले ली है। गत दिनों कोटेर गांव में एक किशोर के मुंडन संस्कार में पहुंचे गांव के वयोवृद्ध लच्छिंदन का कहना हैं कि कुछ सालों पहले तक हालात बदले नहीं थे। किसी भी अवसर पर गांव के लोग आपस में रायशुमारी कर जिम्मेदारियां बांट लिया करते थे। तब आपसी सहयोग से मंडप, बैठक व्यवस्था का इंतजाम किया जाता था। दोना-पत्तल के लिए महिलाएं जंगल जाकर पत्ते तोड़ लाती थी।

जनसहयोग से ही सभी कार्य संपन्न हो जाया करते थे और बड़ा खर्च भी नहीं बैठता था मगर अब नई पीढ़ी को तुड़बुड़ी, मोहरी नहीं बल्कि डीजे पर थिरकना पसंद है। पहले काफी लम्बा वक्त बीतता था ऐसे अवसरों पर अब कुछ घंटों में कार्यक्रम खत्म हो जाता है। हालांकि आधुनिकता की दखल से आयोजनों पर खर्च भी बढ़ चुका है, जिसके चलते आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को दिक्कतें होती हैं, हालांकि इसे लेकर समाज के वयोवृद्ध भी चिंता व्यक्त करते हैं, लेकिन नई पीढ़ी के तौर-तरीके का एक बारगी समर्थन भी कर रहे हैं।

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