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#POLLUTION देश की प्रख्यात पर्यावरणविद सुनीता नारायण ने कहा-पर्यावरण के संकट को बढ़ा रहा कोयले का इस्तेमाल…

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  • सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट (सीएसई) के अध्ययन में कोयला खपत के विकल्प को लेकर शोधकार्य
  • ग्लासगो में आयोजित कोप-26 के परिणामों पर मंथन-5 के दौरान विशेषज्ञों ने उठाई ग्लोबल वार्मिंग की चिंता
  • बंगाल के 99 प्रतिशत थर्मल पॉवर प्लांट्स में स्वच्छता नियमों का पालन नहीं

बिकास के शर्मा। (अलवर, राजस्थान से लौटकर)

यदि हम जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करना चाहते हैं तो हमें ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को बढाने वाले सस्ते ईंधन कोयला के इस्तेमाल को पूरी तरह से बंद करना होगा। देश में सभी थर्मल पॉवर प्लांट्स में कोयले का इस्तेमाल जारी है और इसके बदले में अन्य वैकल्पिक ईंधन को अपनाने से लागत में वृद्धि जरूर होगी। किन्तु अब यही एकमात्र रास्ता बचा है जो हमें न सिर्फ स्थानीय गंभीर प्रदूषण बल्कि बढ़ते तापमान के प्रकोप से निदान दिला सकता है। उक्त बातें राजस्थान के निमली स्थित अनिल अग्रवाल एनवायरमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में मंथन-5 नामक दो दिवसीय संम्मेलन के दौरान सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट (सीएसई) की महानिदेशक एवं देश की प्रख्यात पर्यावरणविद सुनीता नारायण ने कहीं।

सुश्री नारायण की मानें तो ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े वैश्विक सम्मेलन कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कोप- 26) के नतीजे भारत के लिए सुखद नहीं रहे। देश के अलग-अलग हिस्सों में समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिए जलवायु परिवर्तन एक नई गुत्थी बनकर सामने आ रहा है।

उन्होंने कहा कि अब कोई संदेह नहीं बचा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ही दक्षिण से लेकर उत्तर तक असमय बाढ़ और भारी वर्षा की तबाही हो रही है जो लाखों लोगों की जिंदगियों को बर्बाद कर रहा है। कहा कि कार्बन डाइ ऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसें ग्लोबल वार्मिंग को बढाती हैं और वह जलवायु परिवर्तन को घातक व तीव्र भी बना रही हैं। इसकी रोकथाम के लिए कोप-26 में फंड और तकनीकी मिलने की आस थी जो कि अब टूट चुकी है, ऐसे में मुसीबत और बढ़ सकती है।

मानदंडों का पालन नहीं कर रहे ऊर्जा सयंत्र
सीएसई के एक अध्ययन के मुताबिक कोयला आधारित ऊर्जा सयंत्रों को चाहिए कि वे वर्ष 2022 तक निर्धारित समय सीमा तक पर्यावरणीय मानदंडों को पूरा करने की दिशा में कदम उठाएं। जबकि असली सूरत यह है कि थर्मल पॉवर प्लांट्स पर्यावरणीय मानकों का पालन नहीं कर रहे हैं। इसका मतलब है कि थर्मल पावर प्लांट न सिर्फ प्रदूषण फैलाने में हिस्सेदारी कर रहे हैं बल्कि वातावरण को गर्म करने वाली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी कर रहे हैं।

सीएसई महानिदेशक ने कहा कि हमें धीरे-धीरे ही सही कोयले पर अपनी निर्भरता को कम करने के साथ-साथ वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों जैसे कि पवन ऊर्जा, सोलर ऊर्जा, गैस आदि के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इसके अलावा हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि कोयला आधारित ताप विद्युत सयंत्र यथासंभव स्वच्छ हों। तभी हम स्वच्छ हवा और जलवायु परिवर्तन की दोहरी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।

स्वच्छ कोयला आधारित बिजली स्टेशनों के साथ कुल अनुबंधों के प्रतिशत के मामले में, हिमाचल प्रदेश 65 प्रतिशत के साथ सूची में सबसे ऊपर है, वहीं पश्चिम बंगाल में एक प्रतिशत प्लांट्स ही स्वच्छता नियमों का पालन कर रहे हैं। पर्यावरणविद ने कहा कि मानदंडों के कार्यान्वयन में किसी भी देरी का मतलब सरकार और इस क्षेत्र से प्रदूषण को कम करने के सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों का मजाक होगा। इसलिए, बिजली स्टेशनों को अनुपालन की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए कठोर कार्रवाई की आवश्यकता है।

फ्लाई ऐश में 70 प्रतिशत की वृद्धि
कोयला आधारित बिजली सयंत्र संचालित इलाकों में पारा का 80 प्रतिशत, सल्फर डाइ ऑक्साइड का 45 प्रतिशत और अन्य उद्योगों से 30 प्रतिशत नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन होता है। इनमें इस्तेमाल होने वाला जल भारत की कुल घरेलू जल आवश्यकता के आधे के समतुल्य है। सयंत्रों द्वारा उत्पन्न फ्लाई ऐश एक बड़ी चुनौती है क्यों कि वर्ष 2009-10 और 2018-19 के बीच इसके उत्पादन में 70 प्रतिशत की वृद्धि पर्यावरण के लिए नई चुनौती बनी हुई है।

ऊर्जा सयंत्र वाले इलाके कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का एक तिहाई हिस्सा भी लेते हैं। सीएसई का अनुमान है कि ‘फर्स्ट-रन’ अवधारणा, यदि लागू की जाती है, तो इसका महत्वपूर्ण प्रभाव हो सकता है। ‘फर्स्ट-रन’ का मतलब यह होगा कि भारत में खपत होने वाली ऊर्जा का एक तिहाई हिस्सा केवल स्वच्छ बिजली स्टेशनों से प्राप्त किया जा सकता है । महाराष्ट्र में स्वच्छता बरतते हुए बिजली निर्माण करने वाले बिजली सयंत्रों की कुल क्षमता 6 हजार मेगावॉट है।

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