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ELECTION इम्पेक्ट एक्सक्लूसिव :  ‘हमे पता था इसका सुरक्षित पहुंचना ही लोकतंत्र की जीत है…’ माओवादी प्रभावित इलाके में पहली बार वोटिंग… आप भी जानें क्या लगा होता है दांव पर…!

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सुरेश महापात्र।

सफल मतदान के बाद लौटे मतदान दलों से इम्पेक्ट ने व्यक्तिगत चर्चा कर जानने की कोशिश की।  इतने चुनौतिपूर्ण इलाके में माओवादियों के बहिष्कार के बाद भी मतदान दलों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। अंदरूनी इलाकों में भारी मतदान दर्ज किया गया। इम्पेक्ट की पड़ताल में जानने की कोशिश की गई कि इस दौरान किस तरह की व्यवस्था थी और मतदान दलों की मानसिक स्थिति कैसी रही?

इस रिपोर्ट में हमने मतदान दलों की पहचान जगजाहिर करने से बचने की कोशिश की है। इस रिपोर्ट का उद्देश्य केवल इतना ही है कि आम नागरिक यह जान सकें कि सरकार चुनने की प्रक्रिया में उनके एक मत के लिए निर्वाचन आयोग किस तरह से प्लानिंग करता है और सुरक्षा के इंतजाम कितने मायने रखते हैं। और बड़ी बात यह है कि यदि सुरक्षा के इंतजाम ना हों ​तो परिस्थितियां किस तरह की हो सकती है?

इस बार बस्तर संभाग की 12 समेत माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र के 20 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान संपन्न हो चुका है। इस बार भी छत्तीसगढ़ में दो चरणों में मतदान किया गया। पहले चरण में इन संवेदनशील और अतिसंवेदनशील मतदान केंद्रों में सुरक्षा के लिए लगभग 55 हजार सुरक्षा बलों की तैनाती की गई थी। पहले चरण में रिकार्ड 78 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया है। जो पिछले चुनाव से करीब डेढ़ प्रतिशत ज्यादा है। महिलाओं का मतदान करीब तीन प्रतिशत बढ़ा है।

करीब साढ़े पांच हजार मतदान केंद्रों में से सत्तर प्रतिशत मतदान केंद्र अतिसंवेदनशील श्रेणी में दर्ज थे। इनमें से करीब आधे मतदान केंद्रों में पहुंचने के लिए मतदान दलों को सुरक्षाबलों की सुरक्षा में ही चलना पड़ा। इस बार निर्वाचन आयोग की कोशिश से करीब एक सौ से ज्यादा मतदान केंद्रों में पहली बार वोटिंग करवाई जा सकी। पूर्व में शिफ्ट किए जाने वाले करीब 80 प्रतिशत मतदान केंद्रों में पहली बार वोटिंग दर्ज की गई। इनमें से कुछ मतदान दलों को निर्धारित अवधि से एक दिन पहले हेलिकाप्टर से सुरक्षित कैंप में उतारा गया। यहां से उन्हें सुरक्षा बलों के साथ मतदान केंद्र की दूरी पैदल तय करनी थी।

वहीं कुछ मतदान दल ऐसे भी थे जिनके लिए चौपर की व्यवस्था नहीं थी पर उन्हें मतदान से एक दिन पहले ही अपने मतदान केंद्र में पहुंचना था। इसी में से एक मतदान दल से हमारी चर्चा हुई।अबूझमाढ़ से सटे दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के एक मतदान दल के प्रभारी से हमने तमाम मुद्दों पर बात की। उन्होंने अपनी पहचान मीडिया में जाहिर करने के लिए मना किया। आगे हम उन्हीं की जुबानी जानेंगे कि आखिर क्या—क्या हुआ और कैसे—कैसे हुआ?

हमें मतदान के लिए पूरी तरह से प्रशिक्षित किया गया। इस दौरान हमने समझ लिया ​था कि मतदान की प्रक्रिया को किस तरह से निष्पक्षता के साथ निर्विघ्न संपन्न करवाना है। हमे पहले से ही बता दिया गया था कि मतदान दलों के लिए सुरक्षा के इंतजाम किए गए हैं। हमे निर्धारित स्थल से सुरक्षा बलों के साथ ही चलना था। मतदान केंद्रों तक की दूरी और वहां तक पहुंचाने की पूरी जिम्मेदारी सुरक्षा बलों के ही जिम्मे रखी गई थी। इसके लिए जिला निर्वाचन अधिकारी और जिले के पुलिस अधीक्षक ने व्यापक र​णनीति तैयार कर ली थी। हमें तो यह तक पता नहीं था कि मतदान केंद्र कहां है और फिलहाल किस तरह की स्थिति है।

मतदान दलों की घोषणा के बाद हमे पता चला कि हमारे दल में कौन—कौन शामिल हैं। हमे मतदान केंद्र के नाम के साथ सामग्री प्रदान करने के लिए सुबह छह बजे बुलाया गया था। छह नवंबर की सुबह करीब पांच बजे हम तैयार होकर जिला निर्वाचन केंद्र में पहुंच गए वहां हमें सुबह छह बजे मतदान सामग्री सौंप दी गई। इसके बाद एक वाहन से हमे बारसूर तक पहुंचा दिया गया। करीब तीन बजे हमे सुरक्षा बलों के साथ आगे का सफर तय करना था।

हमारे दल के निकलने से पहले एक बड़ा धेरा बना जिसमें कोबरा के जवान थे। इसके बाद दूसरे घेरे में ​डीआरजी यानी डिस्ट्रिक्ट रिजर्व ग्रुप के जवानों का घेरा था। इसके बाद तीसरे लेयर में सीआरपीएफ के जवाने हमारे चारों ओर सुरक्षित घेरा बनाकर चल रहे थे। यानी पूरी तरह से थ्री लेयर सिक्यूरिटी सिस्टम में मतदान दल शामिल थे। हमे यह निर्देशित किया गया था कि जैसे ही हमें लेटने, बैठने और छिपने के लिए कहा जाएगा हमे तत्काल यही सब करना है।

हमारे निकलने से पहले पहला लेयर फैल गया। वे हमसे काफी दूर तक फैल चुके थे। जंगल के भीतर। इसके बाद डीआरजी के जवानों का लेयर भी फैल गया। वे हमे दिख रहे थे पर काफी दूर… इसके बाद हमारे दल के चारों ओर सीआरपीएफ का एक बड़ा घेरा तैयार था। वे भी हमसे थोड़ी दूरी बनाकर ही जंगल—झाड़ियों के बीच चल रहे थे। करीब एक घंटे के बाद कोबरा के जवानों का संदेश डीआरजी तक पहुंचा और सीआरपीएफ के दल को भी सूचना मिली कि दूर कहीं कोई दिखाई दे रहा है।

हम सभी थम गए। हमें निर्देश मिला कि रूक जाएं। आगे से कोई मैसेज है! दिल तेजी से धड़कने लगा। पता नहीं आगे क्या? हम सभी फुसफुसाए कहीं आगे माओवादियों का एंबुश तो नहीं! फिर पता चला कि कोई ग्रामीण दिखा था। इस इलाके में किसी इंसान के दिखने का मतलब भी हमेशा की तरह अच्छा ही नहीं होता है यह सोचने की स्थिति थी।

हम जंगल के भीतर झाड़ियों के बीच से चलते जा रहे थे। जैसे—जैसे सीआरपीएफ के जवान चलते वैसे हमे फालो करना था। पैदल चलते हुए करीब दो घंटे से ज्यादा हो गया। जंगल था कि खत्म ही नहीं हो रहा था।

इधर सांझ ढलने को दिखने लगा। शाम के करीब छह बजे इधर सूरज ढला और उधर हमे एक सरकारी बिल्डिंग दिखाई दी। बताया गया कि यही वह मतदान केंद्र है। करीब तीन घंटे पैदल चलने के बाद हमे अपना मतदान केंद्र मिल गया। उसमें वह सब कुछ लिखा था जो एक मतदान केंद्र में दर्ज होता है।

सीआरपीएफ के जवानों ने हमे कहा कि थोड़ी देर ठहरें फिर उसके बाद पूरे भवन की और आस—पास की तलाशी का अभियान चला। आईईडी आदि आदि का पता लगाने के औजार से पता साजी की गई। केंद्र में सुरक्षा पुख्ता हुई इसके बाद हम अंदर घुस गए। मन के भीतर तरह—तरह के खयालात और धड़धड़ाती दिल की धड़कन… जिसे केवल हम ही सुन और महसूस कर पा रहे थे। सुबह से निकले शाम तक का समय तो निकल गया अब रात बिताने से पहले खाना—पानी… उफ्फ! भय से भूख भी मारा जाता है। यह साक्षात ​रहा।

हमे एक बात तो पता थी कि हम पूरी तरह से सुरक्षित घेरे में हैं हमे ​कुछ नहीं हो सकता सिवाए शरीर को मिल रही चुनौती के। लंबी दूरी तक पैदल चले बरसों बीत गया था… अब यकायक लगातार तीन घंटे तक जंगल—झाड़ी में तेज धड़कनों के साथ कदमताल ने शरीर का फालूदा बना दिया…

मैंने टोकते हुए उत्सुकता से पूछा कोई तस्वीर ली? उन्होंने बताया कि ‘मोबाइल थी पर सेल्फि लेना या जंगल की तस्वीर… एक बार ​भी ख्याल नहीं आया कि हमारे पास मोबाइल भी है और यह काम भी आता है… नेटवर्क तो था नहीं कि किसी की घंटी बजे!’

जैसे—तैसे रात बीत गई। अब सुबह पांच बजे से हमने अपनी तैयारी शुरू कर दी। एक बात तो बताना भूल ही गया। मतदान केंद्र में हमारे पहुंचने से पहले जिला पुलिस बल भी पहुंच चुका था। यानी मतदान दल को किसी तरह का नुकसान ना पहुंचे और मतदान की प्रक्रिया निर्विघ्न पूरी हो इसके लिए हमारी सुरक्षा सर्वोपरि रखी गई थी।

मुझे उनका अनुभव सुनते हुए लगा ‘चुनाव के दौरान आम जनता वोट देती है और इस वोट से सरकार बनती है पर इस सरकार को निष्पक्ष तरीके से बनाने के लिए लोकतंत्र में किसकी कितनी भूमिका होती है यह जानना समझना हो तो एक बार यह जानना जरूरी है कि वे लोग जिन्हे पता भी नहीं कि ​उनके वोट की ​कीमत क्या है? उनके मत की भी कितनी कीमत होती है लोकतंत्र के लिए…! शहरी क्षेत्रों में जहां लोगों को पता होता है कि उनके मत से क्या होना है? वे मतदान करने नहीं पहुंचते और वे लोग जो अपने मतों को समझते हैं वे जब पैसे लेकर अपना मत देते हैं तो वे क्या खो रहे होते हैं? और वे जो अपने मत का पूरा ईमानदारी से उपयोग करते हैं वे लोकतंत्र में कितना मायने रखते हैं। यह साफ समझ में आने लगा।’

उन्होंने आगे बताया, मतदान सुबह सात बजे अपने निर्धारित समय पर प्रारंभ हो गया। ग्रामीण पहुंचने लगे और वोटिंग शुरू हो गई। इस मतदान केंद्र में पहली बार वोटिंग हो रही थी। इससे पहले मतदान केंद्र शिफ्ट कर दिया जाता था। बड़ी बात यह थी कि इस मतदान केंद्र में दो राजनीतिक दल के प्रतिनिधि मौजूद थे। यह बड़ी बात थी। उनके हाथों में मतदाता सूची भी थी।

इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन के बारे में मतदाताओं की जानकारी नहीं थी। यह साफ दिखाई दे रहा था। मतदान दल की आपबीती सुनने के बाद एक तथ्य तो यह भी समझ में आया कि जिन इलाकों में मतदान को लेकर असल में प्रचार की दरकार है वहां तक कोई भी नहीं पहुंचता… संभव है निर्वाचन आयोग आगे इस कमी पर भी ध्यान देगा।

पहला मतदाता बिना वोट किए बाहर निकला तो हमने उसे बताया कि जब तक बीप की आवाज नहीं आएगी तब तक वोट नहीं होता है। इसके बाद वह अंदर गया और बीप की आवाज आई… यानी पहला वोट पड़ चुका था। हम मुस्कुराए हमारी मेहनत का पहला प्रतिफल जो था… लोकतंत्र के महापर्व में मतदान दलों को तब खुशी मिलती है जब उनके केंद्र में वोट पड़ता है। यह मेहनत के सार्थक होने जैसा ही है मानो परीक्षा दी और पहली श्रेणी में पास कर लिया हो… इस केंद्र में 904 दर्ज मतदाताओं में से 614 ने अपने मतों का प्रयोग किया। 

इस बार यहां मतदान की फसल लहलहाई… हमारी मेहनत सार्थक हुई। तीन बजे मतदान समाप्त हुआ। इसके बाद वहां से वापसी की जद्दोजहद… करीब आधे—पौन घंटे बाद हम वोटिंग मशीन और सामग्री सीलबंद कर निकल गए… फिर वही तरीका… इस बार सुरक्षा कारणों से फिर से रास्ता बदल दिया गया था। क्योंकि जाते समय हाथ खाली थे इस बार जनादेश का खज़ाना हमारे हाथ था… हमे पता था इसका सुरक्षित पहुंचना ही लोकतंत्र की जीत है… करीब तीन सवा तीन घंटे पैदल चलने के बाद जैसे ही छिंदनार का ब्रिज दिखा तो मानों स्वर्ग का द्वार दिखाई दे गया…

सुरक्षाबलों की मौजूदगी से मतदान की सफलता ही सुनिश्चित नहीं होती है बल्कि उन सभी लोगों की सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है जो लोकतंत्र के महायज्ञ में अपनी आहूती डालने पहुंचते हैं। उसकी प्रक्रिया में शामिल होते हैं। एक मतदान दल के सदस्य ने तो यह भी बताया कि उन्हें जब मतदान केंद्र के बारे में जानकारी मिली तो वे खुश हो गए कि बस दो किलोमीटर दूर ही तो है…

इसके बाद सुरक्षा बलों के ​हिसाब से चलना शुरू किया तो करीब 18 किलोमीटर का फासला जंगल के रास्ते तय कर अपने केंद्र तक पहुंच सके। सुरक्षाबलों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे हर हाल में सबसे सुरक्षित रास्ते से अपने साथ दल के सदस्यों की सुरक्षा को पुख्ता करते हुए चलें। इसलिए वे ऐसी राह तलाशते हैं जहां एंबुश का खतरा ना हो… लोकतंत्र की इस जीत पर सुरक्षाबलों को सैल्यूट तो बनता ही है… जय हिंद

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