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‘धाकड़’ सरकार को सांसदों की जरूरत ही नहीं…

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सुरेश महापात्र।

जिन लोगों का जन्म मेरी तरह 1971 के बाद हुआ है उनके लिए इस वक्त सबसे बड़ा वक्त है। वे अपनी आंखों से सरकार की ताकत देख सकते हैं। क्योंकि इससे पहले जन्म लेने वाले ज्यादातर ने इंदिरा के युग को देख ही लिया होगा यह माना जा सकता है।

हिंदुस्तान में कांग्रेस पर इस बात को लेकर आरोप लगता रहा है कि इसने हिंदुस्तान में 70 बरस तक अपनी सरकार चलाई। इसके साथ ही यह भी आरोप लगता रहा है कि इतने ही बरस तक नेहरू और गांधी का वर्चस्व भारतीय राजनीति पर रहा।

सत्तर बरस की कांग्रेसी सत्ता भले जुमला ही हो पर हर हिंदुस्तानी के दिलोंदिमाग में यह फिलहाल रचा—बसा सा दिखाया जा रहा है। इस वक्त हिंदुस्तान में ‘धाकड़’ सरकार काम में लगी है। तस्वीरें बदलीं जा रही हैं। कानून बदले जा रहे हैं। कायदे बदले जाने का दौर चरम पर है। धारा 370 ना केवल हटा दिया गया बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर मुहर भी लगा दी है।

इससे पहले आज़ादी के समय से मंडरा रहे अयोध्या में राम मंदिर की भूमि को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया समझौते की शक्ल में न्याय का नया रूप कायम हो गया। वहां अब जनवरी 2024 में रामलला स्थापित हो जाएंगे। बाबरी के दौर का बदला हम लेकर नए न्यायपथ की ओर बढ़ जाएंगे।

फिलहाल हिंदुस्तान में मंदिरों से सटे कई मस्जिदों के गुंबदों पर खतरा मंडरा रहा है। कब्जे के आरोपों पर जांच और सियासत बराबर चल रही है। अब भारतीय कानून व्यवस्था बदलने की तैयारी है। दो कदम के बाद हम भारतीय न्याय संहिता समेत इससे जुड़े तीन कानूनी किताबों के हिसाब से दोषी या निर्दोष साबित किए जाएंगे। राजद्रोह की जगह देशद्रोह ले लेगी। अंग्रेजों के समय के कानून कचरे में पड़े सड़ा दिए जाएंगे। इन कानूनों को काला पानी की सज़ा दे दी जाएगी।

पर हम इस वक्त कुछ और ही मसले पर बात करने की कोशिश में हैं। बात है भारत के संसद में दो युवकों की घुसपैठ के मामले के बाद उपजे हालात पर। इसे लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष की दलीलों से परे भी बहुत कुछ है। मसला लोकतंत्र के मंदिर में घुसपैठ से बाहर निकलकर उपराष्ट्रपति की मिमिक्री पर आकर अटक गई है।

2014 के बाद यह नई व्यवस्था है कि आपके लोकतांत्रिक अधिकारों पर राष्ट्रवाद की नज़रें सख्त हैं। आपको यह ध्यान रखना है कि किसकी मिमिक्री कर सकते हैं और कब कर सकते हैं। मज़ाक बनाने के चक्कर में आपका मज़ाक बनाया जा सकता है। यह सबसे महत्वपूर्ण समझ है जिसे समझना जरूरी है।

तीन शब्दों पर ध्यान केंद्रित रखना होगा पहला राष्ट्रवाद, देश हित, देशद्रोह इन शब्दों के भीतर अंर्तनिहित शब्दों की ध्वनि पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है। इन तीन शब्दों के पीछे नरेंद्र मोदी, प्रधान मंत्री और संवैधानिक पदों पर बैठे सभी लोगों को शामिल किया जा चुका है। यदि आपको पता नहीं है तो यह पता रखना आपकी जिम्मेदारी है।

हिंदुस्तान के इतिहास की यह सबसे बड़ी घटना है कि जिस वक्त देश के लिए कानून के पुराने प्रावधान बदले जा रहे हैं तब करीब—करीब समूचा विपक्ष निलंबित है। सड़क पर उपराष्ट्रपति की मिमिक्री करता फिर रहा है। मिमिक्री को लेकर सारे न्यूज चैनलों में खबरें लगातार चलाई जा रही है। एक राज्य के एक सांसद ने संसद भवन के बाहर निलंबित होने के बाद भीड़ के सामने उपराष्ट्रपति की भाव भंगिमा को लेकर मसखरी की। किसी बुजुर्ग का इस तरह से मज़ाक बनाया जाना भौंडापन हो सकता है। पर अपराध नहीं होना चाहिए।

यदि भौंडापन की बात कहें तो संसद जैसे पवित्र स्थान में बैठक अपशब्द कहना तो ज्यादा शर्मनाक होना चाहिए। मिमिक्री से ज्यादा आपराधिक होना चाहिए। पर सत्ता पक्ष ऐसे हर मामले पर वही करना पसंद करती है जो उसे लगता है कि उसे सही लग रहा है।

दरअसल इस दौर में प्रधानमंत्री का पद लोकतंत्र, न्याय प्रणाली, राष्ट्र, संसद और संविधान से बड़ा करने की कोशिश में है। इसके पीछे बड़ी वजह यही है कि यही वह दौर है जब पहली बार संसद के लिए चुनाव लड़ने वाली पार्टी महज दो सीटों में अपना खाता खोलने मे कामयाब हो सकी थी। इस वक्त उसके पास बहुमत से ज्यादा बहुमत है। यानि लोकतंत्र में सर्वशक्तिशाली स्थिति में जैसा सरकार को होना चाहिए वही है।

इतिहास में ऐसे बहुत से मामले हैं जब जनमत की शक्ति से सरकारें आयीं और अपना रवैया ताकत के अनुरूप दिखाया। इंदिरा के दौर में जिन लोगों ने देखा वे भी अच्छे से जानते समझते हैं कि इंदिरा के दौर में भी एक समय ऐसा रहा जब सत्ता की ताकत ने पूरे हिंदुस्तान को कलम की नोक पर दबाकर रख दिया था। मंत्रियों की स्थिति महज खानापूर्ति तक सीमित हो गई थी।

अब भी यही हम देख रहे हैं। आपातकाल कांग्रेस के दौर का सबसे काला अध्याय है। तब सारी शक्तियां प्रधानमंत्री के हाथों में केंद्रित हो गईं थी। इसका नतीजा भी कांग्रेस ने भुगता और भुगत रही है। हर बरस जब भी वह दिन आता है तो अब सोशल मीडिया में उस वक्त को लेकर सच—झूठ परोसा जाता है। जिसे जो समझना है वह समझता रहे।

यह सब कुछ बताने का आशय बस यही है कि अतीत भी सीखाता है और वर्तमान तो दर्पण होता ही है। पर वर्तमान ही इतिहास में दर्ज होता है। जब एक बार इतिहास दर्ज हो जाता है तो आने वाली पीढ़ियां अपने हिसाब से समझ विकसित करती हैं। हर सरकार की कोशिश रहती है कि वह इतिहास अपने हिसाब से लिखे पर हर एक पुराने दौर के बाद नया दौर आता है और उस दौर के हिसाब से इतिहास की परख होती है।

दरअसल जब वर्तमान में चल रहे ये सारे मुद्दे थक—हार कर किसी कोने में बैठ जाएंगे तब एक बार फिर वहीं चिंता शुरू होगी कि हम कहां जा सकते थे और कहां पहुंचे हैं? तब आज के ना तो मीडिया के महानायक सफाई देने के लिए मौजूद होंगे। और ना ही इस समय की वे ताकतें जो सर्वशक्तिमान बनीं हुई हैं। भाग्वत गीता में एक ही सार मेरी समझ में स्पष्ट है ‘परिवर्तन संसार का नियम है…’

धर्म और अधर्म की लड़ाई में हमेशा सब कुछ धर्म के हिसाब से नहीं होता। यदि होता तो धर्मराज युधिष्ठिर को अपने गुरू के सामने झूठ बोलने की नौबत ही नहीं आती। पांडवों के पास असीमित शक्तियों के बावजूद युद्ध का इंतजार करना नहीं पड़ता। कौरवों के पास सारे योद्धा होने के बावजूद पराजय का सामना नहीं करना पड़ता।

आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि हिंदुस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था के मर्म में महाभारत और रामायण की प्रेरणा है। इसके बावजूद इस दौर में हम जो देख रहे हैं उसे देखकर साफ लग रहा है कि ताकत के प्रति अभिमान का अंत आज नहीं तो कल होगा। क्योंकि किसी का दंभ आज तक सफल नहीं हो सका।

दौर खत्म होने के बाद आपकी खामियों पर भी बात होगी। तब यह ध्यान रखा जाएगा कि आपने अपने दौर में क्या और क्यों किया? क्योंकि पीढ़ियां बदलते ही सोच और समझ भी बदल जाएगी। तब आप भी किसी एक किनारे खड़े होकर अपने अच्छे—बुरे का फैसला कर रहे होंगे।

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