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“सारकेगुड़ा की बुनियाद पर… कांग्रेसी नक्सलियों से मिले हुए हैं…” – इन्हें कोई खतरा नहीं… सरकार—पुलिस की यही सोच लील गई झीरम में कांग्रेसियों को…

नज़रिया / सुरेश महापात्र

वर्ष 2012 में जब बीजापुर पुलिस जिले के सारकेगुड़ा में पुलिस ने मुठभेड़ में 17 माओवादियों के मारे जाने का दावा किया था तो खबर बहुत बड़ी बनी थी। कुछ समय तक हंगामा मचता रहा। फिर जांच आयोग के गठन के सा​थ खामोशी छा गई थी…। अक्सर बस्तर में ऐसा ही होता आया है। इससे पहले 2008 में दंतेवाड़ा पुलिस जिला (अब सुकमा जिला) के सिंगावरम में करीब इतनी ही तादात में माओवादियों के मुठभेड़ में मारे जाने का दावा सामने आया था। फिलहाल यह मामला भी जांच में ही है। इन दोनों घटनाओं में एक समानता है कि कांग्रेस तब राज्य मेें विपक्षी पार्टी थी उसने फर्जी मुठभेड़ में ग्रामीणों के मारे जाने का दावा किया था।

इन दोनों मामलों में कोंटा विधायक कवासी लखमा जांच दल के सदस्य थे और उन्होंने स्पष्ट तौर पर दावा किया था कि मुठभेड़ फर्जी है। माओवादियों द्वारा तो कमोबेश हर मुठभेड़ और माओवादियों की मौत के बाद इसी तरह के दावे किए जाते रहे हैं। पर कांग्रेस पार्टी द्वारा मुठभेड़ों को फर्जी बताए जाने का मामला कम ही सामने आया है।

एक और घटना की याद ताजा हो गई है जिसका खुलासा मैनें तब अपनी रिपोर्ट में किया था। यह मामला भी बीजापुर जिले के पोंजेर गांव के कथित मुठभेड़ से जुड़ा था। इस मामले में ना तो तब पुलिस ने किसी मुठभेड़ का दावा किया था और ना ही किसी पक्ष ने पुलिस में हत्या की रिपोर्ट दर्ज करवाई थी। ग्रामीणों की सूचना पर मैं स्वयं वस्तुस्थिति का पता लगाने पोंजेर पहुंचा। वहां ग्रामीणों ने सात कब्र दिखाते बताया था कि यहां उनके परिवार के सदस्यों को एसपीओ और फोर्स की टीम ने हत्या कर दी थी जिसके बाद उन्हें यहां दफना दिया गया है। ये ग्रामीण संतोषपुर गांव के निवासी थे। जब मुठभेड़ हुई थी तब वहां एसपी रतनलाल डांगी थे आईजी टीजे लांगकुमेर!

‘दैनिक भास्कर’ ने अपने पहले पन्ने पर यह समाचार प्रकाशित किया था ‘मुठभेड़ या हत्याएं’ शीर्षक के साथ। इस समाचार के बाद बड़ा बवाल मचा। केंद्र में यूपीए के सरकार थी सो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की जांच टीम भी पहुंची। इसके बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम पहुंची। सुप्रीम कोर्ट में फर्जी हत्याओं के मामलों पर जो पिटिशन दाखिल की गई थी उसमें भी इस मामले का जिक्र था। सो बाद में अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर नस्ती कर दिया गया है। ना किसी की शिनाख्त हुई ना कोई अपराध सिद्ध हुआ ना सजा हुई। यानी मौतों के बाद खानापूर्ति।

इस रिपोर्ट के बाद कथित दक्षिण पंथी समर्थकों ने मुझे वामपंथी विचारधारा वाला और शहरी नक्सल समर्थक जैसे संबोधनों से उपकृत किया। इससे पहले सलवा जुड़ूम की रिपोर्ट के दौरान दैनिक भास्कर में भैरमगढ़ इलाके के अबूझमाड़ की तलहटी में बसे ‘ताकिलोड’ की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक ‘इंद्रावती नदी पार धुएं में छिपे लाल चेहरे…’ इस रिपोर्ट का संपादन तब दैनिक भास्कर के सलाहकार संपादक राजनारायण मिश्र ने किया था। उन्होंने संपादन के दौरान मसले के तथ्य पेश करने के दौरान तकनीकी त्रूटि कर दी थी।

इस रिपोर्ट की समीक्षा माओवादियों की सेंट्रल कमेटी ने की थी उनकी अपनी पत्रिका ‘प्रभात’ में इस रिपोर्ट पर फैसला लिखा ‘तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना कोई दैनिक भास्कर के सुरेश महापात्र से सीखे… ऐसा करके सुरेश महापात्र ने आपराधिक कृत्य किया है…’ यह पत्रिका बीजापुर जिले में सीआरपीएफ के द्वारा माओवादियों के एक कैंप को ध्वस्त करने और मुठभेड़ के दौरान जब्त सामग्री से प्राप्त हुआ था। इस मुठभेड़ में माओवादियों की मौत की खबर संकलन के दौरान जब्त सामग्री से मैनें यह पत्रिका चुरा लिया था। लौटते समय इसे पढ़ने से हम पत्रकार साथी थोड़े चिंतित हुए। तब माओवादी अपने विरोधियों की हत्या कर दे रहे थे…।

इन घटनाओं का जिक्र आज तब फिर करने का विचार इसलिए आया कि सारकेगुड़ा की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक हो गई है। सीधे तौर पर फर्जी तरीके से बेगुनाह ग्रामीणों की हत्या का सच सामने आया है। 10 माह पहले ही प्रदेश में सरकार बदली है। इससे पहले 15 बरस तक ना जाने कितनी जांच रिपोर्ट आईं और कहां पड़ी हैं? कोई नहीं जानता!

सरकार, जनता चुनती हैं और जब सुरक्षा बल हत्या के दोषी होते हैं तो सरकारें रिपोर्ट दबाने में जनहित का तर्क कैसे दे सकती हैं? मामला यह नहीं है कि सारकेगुड़ा का सच बाहर आ गया बल्कि बाकि मामलों में जो रिर्पोट आई हैं उसका क्या होगा? पोंजेर में दफन लाशों का दुबारा पोस्ट मार्टम किया गया… बेगुनाह ग्रामीणों की हत्या के इस मामले में अपराधियों की खोज कौन करेगा?

बड़ी बात यही है कि बस्तर में सरकार, प्रशासन, पुलिस और माओवादी सभी के न्यायप्रियता के पैमाने अलग—अलग हैं। हर कोई अपने पक्ष के हिसाब से फैसले करता है पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ों का सवाल उठाओ तो वे माओवादी समर्थक कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं। माओवादियों पर बेगुनाहों की मुखबिरी की आड़ में हत्या का मसला उठाओ तो वे सरकार समर्थक पत्रकार का तमगा देते फिरते हैं। प्रशासन की कमियों पर बात करो तो वे नक्सलियों पर मढ़कर निकल जाते हैं। पुलिस तो बस पुलिस है वह खुद को गलत मानने को तैयार नहीं…।

इस विषय पर लिखते समय मेरे मन में सबसे बड़ा सवाल यही है कि ‘क्या सारकेगुड़ा में फर्जी मुठभेड़ और 17 ग्रामीणो की हत्या’ का आरोप लगाना तब के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और कांग्रेस दल पर भारी पड़ गया? मुझे इसी बात की शंका साफ है कि 2012 में सारकेगुड़ा मामले को लेकर कांग्रेस ने जिस तरह से आक्रमक रूख अख्तियार किया था उसके बाद बस्तर में पुलिस तंत्र और राज्य में सरकार ने यह मान लिया था कि ‘कांग्रेसियों को माओवादियों से कोई खतरा नहीं वे सब मिले हुए हैं…’ बस सोच की यही चूक परिवर्तन यात्रा के दौरान करीब एक बरस बाद कांग्रेसियों के पूरे नेतृत्व की शहादत का कारण है।

यदि ऐसा ना होता तो अतिसंवेनशील इलाके में कांग्रेस के परिवर्तन यात्रा के दौरान सुरक्षा में कोताही नहीं बरती जाती। बस्तर में माओवादी अपनी सल्तनत मानते हैं और सरकार अपना लोकतंत्र… बीच में खडे लोग नक्सल विरोधी, नक्सल समर्थक, वामपंथी, दक्षिण पंथी, सरकार विरोधी, सत्ता समर्थक, मुखबिर और बेजुबान आदिवासी हैं मौतें ही इनका नसीब हैं गोली चले या धारदार हथियार… फैसला दो पक्षों के बीच ही है।

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