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अफसर निकम्मे या शिक्षक? शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव डा. आलोक शुक्ला के बयान के मायनें… भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है प्रदेश का शिक्षा विभाग…

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सुरेश महापात्र।

छत्तीसगढ़ में स्कूली शिक्षा विभाग में शिक्षकों पर निकम्मे होने को लेकर शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव डा. आलोक शुक्ला ने एक लाइव वेबिनार में आरोप लगाया। इसके बाद से प्रदेश में शिक्षक बेहद आक्रोशित हैं। शिक्षकों ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर जमकर भड़ास निकाली है। अब प्रदेश में अफसर निकम्मे हैं या शिक्षक? इसे लेकर बड़ी बहस शुरू हो गई है। शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव डा. आलोक शुक्ला के बयान के मायनें तलाशने की कोशिशें हो रही हैं। संविदा अफसर पर सरकार की मेहरबानी और शिक्षा विभाग का भ्रष्टाचार का अड्डा बनने को लेकर भी सवाल उठना शुरू हुआ है।

दरअसल प्रमुख ​सचिव ने वेबिनार में शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर साफ—साफ कह दिया कि जिन शिक्षकों का परफारमेंस ठीक नहीं है उन्हें 10 साल तक ना तो प्रमोशन मिले और ना ही कोई सम्मान। ऐसे शिक्षक निकम्मे हैं। उसकी सर्विस बुक में लिखा जाए कि ये अयोग्य व्यक्ति है इसे अगले दस साल तक कोई पुरस्कार या सम्मान ना दिया जाए। पर वे यह बताना भूल गए कि छत्तीसगढ़ में करीब 18 जिलों में शिक्षा विभाग के उप संचालक के पदों पर प्रभारी बैठे हुए हैं।

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल 16 जून को राजधानी स्थित अपने निवासकार्यालय में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए प्रदेश स्तरीय शाला प्रवेश उत्सव कार्यक्रम का शुभारंभ किया। इसी के साथ प्रदेश के करीब 30 हजार प्राथमिक, साढ़े 13हजार मिडिल व साढ़े चार हजार हाई-हायर सेकेंडरी स्कूलों में नए शैक्षणिक सत्रकी शुरूआत हो गई। इन स्कूलों के शुरू होने के साथ—साथ समस्याओं की फेहरिस्त नहीं बदली। आगे बदलेगी इसकी भी उम्मीद कम ही है।

दरअसल छत्तीसगढ़ में स्कूल शिक्षाविभाग चारागाह की तरह ही है। अफसर और सप्लायर का सिंडिकेट इसका उपयोग किस तरह से करता है इसका अंदाजा लगाना भी कठिन है। जिसे लेकर यह विभाग विवाद के केंद्र में रहा। छत्तीसगढ़ में शिक्षा विभाग किस तरह घुन का शिकार है इसकी बानगी देखनी और समझनी है तो सबसे पहले विभाग के प्रमुख सचिव डा. आलोक शुक्ला से इसकी शुरूआत करनी होगी। ये फिलहाल मुख्यमंत्री के सबसे विश्वस्त अधिकारी हैं जिन्हें सेवा निवृत्ति के बाद तीन बरस के लिए संविदा के आधार पर शिक्षा जैसे विभाग की बागडोर थमाई गई है।

नवीन शिक्षा सत्र के प्रारंभ होने के 15 दिन के बाद एक वेबिनार में प्रमुख सचिव महोदय ने शिक्षकों के लिए निकम्मा शब्द का इस्तेमाल किया। जिसके बाद पूरे प्रदेश में शिक्षक बेहद उद्वेलित हैं। सोशल मीडिया पर डा. आलोक शुक्ला को लेकर जमकर भड़ास निकाला जा रहा है। कई ऐसे प्रतिक्रिया हैं जिन्हें पढ़ने के बाद लगता है कि दरअसल डा. शुक्ला जिन्हें निकम्मा साबित करने में तुले थे उन्होंने अपने इस अधिकारी को ही निकम्मा साबित कर दिया है।

स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता सुधार को लेकर छत्तीसगढ़ में एनजीओ के मार्फत प्रयोग किए गए। परिणाम सिफर रहा। बीते दो बरस में स्कूल शिक्षा के लिए कुल जमा 59 फार्मुला उपयोग में लाया गया। किसी भी प्रयोग की उम्र दो माह से ज्यादा नहीं रही। इन प्रयोगों के एवज में शासन के कितने बजट का बंटाधार किया गया। इसके लेखा—जोखा का भगवान ही मालिक है।

करोड़ों रुपए फर्जी खरीदी में बर्बाद किए गए। कमिशन खोरी के और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बीच यह विभाग केवल आंकड़ों की बाजीगरी में ही व्यस्त रहा। डा. आलोक शुक्ला के एक सबसे गंभीर मामले की जानकारी हमने सबसे पहले दी जब पढ़ई तुंहर द्वार के माध्यम से आन लाइन शिक्षा का तामझाम सामने लाया गया। हमने जानकारी दी कि इस वेबसाइट का सर्वर निजी हाथों में हैं जिससे इसमें दर्ज किए जा रहे डाटा का उपयोग अथवा दुरूपयोग बाद में सर्वर का मालिक कर सकेगा। इस सर्वर के मालिक स्वयं डा. आलोक शुक्ला रहे। इन्होंने गोडैडी से इस वेबसाईट का पंजीयन करवाया था। जिसे सीधे शैक्षणिक सेवाओं के नेटवर्क में प्रसारित कर दिया गया।

हांलाकि हमारी खबर के बाद छत्तीसगढ़ शासन ने इस वेबसाइट के सर्वर का डाटा अपने पास सुरक्षित कर लिया।कोविड के दौरान आन लाइन माध्यम से बच्चों को घर बैठे शिक्षा के दावों की पोल तो उसी समय खुल गई। छत्तीसगढ़ में स्कूली शिक्षाका करीब 45 फीसद हिस्सा उन क्षेत्रों में जहां तमाम तरह की असुविधाएं हैं। कहीं बिजली नहीं तो कहीं नेटवर्क नहीं और तो और बहुत सारे ऐसे परिवार भी हैं जिनके बच्चे स्कूलों में दर्ज तो हैं पर माता—पिता की हालत ना महंगे स्मार्टफोन लेने लायक हैं और ना ही वे इसका उपयोग करने में सक्षम हैं। फिर भी इस प्रयोग को लेकर अपनी पीठ थपथपाने का काम जोर शोर ​से किया गया।

शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव स्वयं स्वीकार किया कि सारे प्रयोग सफल नहीं रहे। शिक्षा विभाग के भ्रष्टाचार को लेकर बहुत सारी रिपोर्ट कचरे के डिब्बे में डाल दी गई। स्वच्छता किट की सप्लाई को लेकर बड़ा सवाल उठाया गया।  केंद्रीय मद से मिली खेलगढ़िया की राशि में जमकर बंदरबांट हुई। इस मामले में दर्ज की गई शिकायत पर जांच का नतीजा प्रमुख सचिव नहीं ला सके। एक डायरी के कुछ पन्ने मीडिया रिपोर्ट में सामने आए जिसमें भारी पैमाने में लेन देन का उल्लेख शामिल रहा। इस रिपोर्ट पर क्या कार्रवाई की गई और प्रमुख सचिव ने शिक्षा विभाग में हो रही इन ग​ड़बड़ियों पर को स्पष्ट रिपोर्ट जारी नहीं की।

केंद्रीय टीम के सेंपल सर्वे में देश के 38 राज्यों में छत्तीसगढ़ का हाल किसी से छिपा नहीं है। सर्वेक्षण में राज्य के बच्चों का परफार्मेंस 30 राज्यों से भी पीछे है। स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता सहित बच्चों की सीखने की क्षमता को परखने के लिए शिक्षा मंत्रालय ने नवंबर 2021 में सर्वेक्षण कराया था।  नेशनल अचीवमेंट सर्वे 2021 की रिपोर्ट जारी होते ही शिक्षागुणवत्ता की कलई खुल गई।

रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के बच्चे सभी प्रमुख विषयों जैसे भाषा, गणित, अंग्रेजी, पर्यावरण और विज्ञान जैसे विषयों में राष्ट्रीय औसत अंक से काफी कम अंक हासिल किए हैं। देश के राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में राज्य के कक्षा तीसरी के बच्चों को भाषा में 500 में से औसतन 301 अंक मिले हैं। जबकि देश का औसत अंक 323 है। प्रदेश में 34वां स्थान है। इसी तरह गणित में 32वां, पर्यावरण में 34वां स्थानमिला है। इसी तरह पांचवीं, आठवीं और 10वीं कक्षा में भी बच्चे पिछड़ गए हैं।

यानी कुल जमा 38 राज्यों में छत्तीसगढ़ नीचे से पहले से पांचवें स्थान पर ही दिखाई दे रहा है।मूल्यांकन का मापदंड — भाषा: हिंदी में पैराग्राफ पढ़कर समझना और जवाब देना। पर्यावरण व विज्ञान: पर्यावरण में सूझबूझ, आसपास की समझ,विज्ञान से संबंधित सवाल। गणित: जोड़, घटाना, गुणा, भाग, ज्यामिति , आकृति तर्क वाले सवाल। सामाजिक विज्ञान: मानचित्र आधारित, भूगोल के सवाल। शामिल थे जिस पर सर्वे के अपेक्षा अनुरूप परिणाम नहीं मिलने से शिक्षा विभाग पर जबरदस्त दबाव बढ़ा है।

ऐसे में अब अफसर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए सीधे शिक्षकों पर निकम्मेपन का आरोप लगाकर अपना दामन बचाने की जुगत में हैं। डा. आलोक शुक्ला ने बच्चों की पत्रिका किलोल के माध्यम से पूरे प्रदेश से वसूली की। यह पत्रिका उनके नाम पर आरएनआई में दर्ज है। जिसके प्रधान संपादक के तौर पर वे आज भी शामिल हैं। हमने जब इस पत्रिका को लेकर सवाल उठाया तो डा. शुक्ला ने इसके संचालन के लिए एनजीओ को अधिकृत कर दिया। प्रमुख सचिव के तौर पर शिक्षा विभाग ​की जिम्मेदारी उठाते हुए पूुरे प्रदेश के संकुलों से आजीवन सदस्यता शुक्ल के तौर पर दस—दस हजार रूपए की वसूली की गई। बकायदा उन्होंने इसके लिए निर्देशित किया।

किलोल पत्रिका को लेकर अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर डा. शुक्ला ने स्वयं ​स्वीकार किया पर उनकी ​स्वीकार्यता के बावजूद शासन ने किसी तरह का एक्शन क्यों नहीं लिया? यह भी अब सवालों के घेरे में है। गुणवत्ता में गिरावट के लिए शिक्षा विभाग में एनजीओ के माध्यम से किए जा रहे प्रयोगों को भी काफी हद तक जिम्मेदार माना गया है। यह भी बताया जाता है कि शिक्षा विभाग में एनजीओ का सिंडिकेट वहां बैठे अफसरों और कर्ताधर्ताओं के हिसाब से काम करता है। बाकि पाठक समझदार होंगे कि हिसाब के मायने क्या हैं?

खैर राज्य स्तरीय वेबिनार में शिक्षकों को निकम्मा बताए जाने के बाद शिक्षक संघ ने 80 कामों को गिनाते बताया कि ये 80 काम निकम्मे शिक्षक कर रहे हैं। इस सूची में उन सभी जिम्मेदारियों का जिक्र है जिसे शिक्षकों के माध्यम से शिक्षा विभाग के साथ—साथ शासन, प्रशासन जमीनी तौर पर लेता रहा है। सोशल मीडिया में शिक्षकों ने प्रमुख सचिव की टिप्पणी के खिलाफ अपना आक्रोश दर्ज कराया है। मजेदार बात तो यह है कि शिक्षकों की प्रतिक्रिया के बावजूद शिक्षा विभाग की ओर से किसी तरह का खेद नहीं जताया गया है। 

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