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#शब्द कितने मारक होते हैं… यह विनोद दुआ के जाने के बाद पता चला…

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सुरेश महापात्र।

सन् 1954 में जन्मे और सन् 2021 में अपनी मौत से पहले विनोद दुआ ने पत्रकारिता को ना जाने कितने शब्दों से सजाया। टीवी पत्रकारिता में उनके शब्द और शैली ने कम से कम दो पीढ़ी के पत्रकार तैयार किए। उनकी मौत के बाद सोशल मीडिया में राइट विंग यानी भाजपा समर्थक उनके कहे एक शब्द का इस्तेमाल उनके ही खिलाफ कर रहे हैं। यह शब्द था ‘पाखंड’। वैसे यह शब्द अब पूरी तरह से राजनैतिक हो गया है।

इस शब्द का इस्तेमाल पत्रकार विनोद दुआ ने द वायर के लिए किए गए अपने कार्यक्रम में अटल जी के निधन के बाद किया था। इस करीब 23 सेकेंड के विडियो को करीब 24 सेकेंड के एक और विडियो के साथ शेयर किया जा रहा है। 23 सेकेंड के विडियो में विनोद दुआ अटल जी के निधन के बाद यह कहते दिख रहे हैं कि ‘अटल बिहारी बाजपेई का निधन हो गया उनकी उम्र 93 साथ थी। हमारे यहां एक बहुत बड़ा पाखंड होता है या दिखावा होता है… जो दिवंगत हो जाए जो… इस दुनिया में ना रहे… जिसका देहांत हो जाए उसको अचानक से महापुरूष बना दिया जाता है… और फिर जिस तरह की श्रद्धांजलियां दी जाती हैं… यह समझा जाता है कि दिस इज पोलिटिकली करेक्ट टू प्रे टू पर्सन आफ इज गॉन… बेहतर यही होता है कि जो शख्स चला गया है उसको सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि जो अच्छाई थी वो भी गिनाई जाए और जो उनके हाथों से सही काम नहीं हुए जिनका असर समाज पर पड़ा वो भी बताया जाए…’

शेयर किए गए विडिया के अगले 24 सेकेंड में विनोद दुआ कहते दिख रहे हैं ‘कुर्सी पाने की बहुत ही तीव्र और बहुत ही क्षुद्र इच्छा के लिए इंसान किस हद तक नीचे गिर सकता है… इसका एक उदाहरण और इसकी एक मिसाल सामने आई जब प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी ने स्व. राजीव गांधी पर कुछ ऐसी टिप्पणी की… कुछ ऐसे अल्फाज का इस्तेमाल किया जो हमारे यहां सही नहीं माना जाता कि जो दिवंगत हो चुका है, जो इस दुनिया में नहीं है उसके खिलाफ ऐसे बोला जाए…।’

ये दोनो विडियो किसी दो विडियो के केवल उतने ही हिस्से हैं जिसका प्रयोग विनोद दुआ की मौत के बाद बिल्कुल वैसे ही हो रहा है जैसा पहले स्व. रोहित सरदाना की मौत के बाद होता दिखा। एक पत्रकार के दृष्टिकोण से दोनों अपने तरह के पत्रकार ही रहे। यह कहना गलत नहीं होगा कि विनोद दुआ की पत्रकारिता उन दिनों की रही जब आज के पत्रकार जन्म ले रहे होंगे। दूरदर्शन की पत्रकारिता में जो बदलाव प्रणव राय और विनोद दुआ की जोड़ी ने कर दिखाया ऐसी तो अब कल्पना भी करना कठिन है।

ना उतने संसाधन और ना ही उतनी व्यापकता। दूरदर्शन जब से बना कभी नहीं बदला। दिन में दो बार समाचार और सप्ताह में दो दिन बुधवार और शुक्रवार की शाम को हिंदी गानों के कार्यक्रम के साथ रविवार को सिनेमा और कुछ ​सीरियल के सिवा दर्शकों के लिए कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम ही हुआ करते थे। तब मौजूदा सरकार के खिलाफ उसी के नियंत्रित संस्था की टेबल में बैठकर उसके ही मंत्री के काम को नंबर देने का हौसला क्या आज के टीवी पत्रकारों के पास है?

कहते हैं कि आपका किया और कहा कहीं नहीं जाता है। वैसा ही पहले रोहित सरदाना के साथ हुआ अब विनोद दुआ के साथ हो रहा है। मुझे लग रहा है कि जिस उद्देश्य से यह विडियो भाजपा के आईटी सेल ने जारी किया है वह अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल रहा। विनोद दुआ का आंकलन केवल एक शब्द ‘पांखड’ और अटल जी के निधन के बाद की गई इस टिप्पणी के परिप्रेक्ष्य में किया जाना सही नहीं होगा।

एक प्रधानमंत्री के तौर पर अपने भाषणों में कई बार बेहद निचले स्तर के शब्दों का चयन करते तो यह देश भी नरेंद्र मोदी को देख ही रहा है। पर क्या केवल उनके कहे गए कुछ स्तरहीन शब्दों के चयन के आधार पर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के कार्यकाल का समग्र अध्ययन किया जा सकेगा। उन्होंने एक प्रधानमंत्री होते उस पद की गरिमा से इतर कई भाषण चुनावी सभाओं में दिए और कई बातों का जिस तरह से जिक्र किया है वह भी तो इतिहास मे दर्ज ही है। हांलाकि सही मायने में वे भी जो कहते दिखते हैं उसमें राजनीति का ‘पाखंड’ ही तो छिपा रहता है।

नोट बंदी के दौर में उनका हंसते हुए इस बात का जिक्र करना कि ‘लोगों के घरों में शादियां थीं और उनके पास पैसे नहीं थे…।’ क्या यह उस वर्ग का मजाक उड़ाना नहीं माना जा सकता जिनके सामने नोटबंदी से आर्थिक दिक्कतें खड़ी हो गईं। पश्चिम बंगाल के चुनाव में ‘दीदी ओ दीदी’ जैसा चुनावी कैंपेन क्या सही था? विदेशों में जाकर देश की राजनीति पर गंदी और भद्दी टिप्पणियां उनसे पहले किस प्रधानमंत्री ने की? बावजूद इसके क्या उनकी कार्यशैली और राजनैतिक सोच के साथ राष्ट्र के विकास के लिए किए जा रहे प्रयासों को नकार दिया जाए।

राजनीति में बहुत सी बातें होती हैं। सारे राजनैतिक दल अपने राजनैतिक लाभ—हानि को देखकर बयान देते हैं और यह होता रहा है होता रहेगा। पर महज उनके राजनैतिक भाषण को आधार मानकर उनके अस्तित्व और कार्य को पूरी तरह से नकारा जा सकता है? मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है ऐसा बिल्कुल सही नहीं होगा।

पर यह तो अब साफ हो गया है​ कि हिंदुस्तान में हर मौत और हर उपलब्धि के बाद देखने, सोचने और समझने का तरीका हमेशा के लिए बदल रहा है। हम मौतों पर मातम की परंपरा से भी काफी उपर उठ चुके हैं। हम हर मौत के बाद उसके कहे गए शब्दों के हिसाब का किताब लेकर बैठे रहेंगे। उसमें से छाटेंगे कौन से शब्द उसकी मौत को कितना जलील कर सकते हैं। आप यह मत भूलिए कि आप जिस तरह से हर मौत के बाद बदला लेने को आतुर दिख रहे हैं यही बदले की भावना… हर तरह की सद्भावना को खत्म कर देगी। सो सनद रहे…

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