बस्त्तर में सत्ता की पुरानी लकीर मिटाकर नई परिभाषा गढ़ रहे हैं भूपेश…
सुरेश महापात्र।
छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद 20 बरस पूरे हो चुके हैं। अजित जोगी, डा. रमन सिंह के बाद भूपेश बघेल सीएम हैं तो स्वाभाविक तौर पर समीक्षा, आंकलन और आलोचना के लिए बिंदु तय ही होंगे।
वैसे भी तब जब डा. रमन सिंह जैसे मुख्यमंत्री की छवि से प्रदेश को बाहर निकालने और अपनी पृथक छवि गढ़ने का मसला हो।
लोग स्वाभाविक तौर पर बीते 15बरस से ही नई सरकार की तुलना करेंगे। ऐसे में चुनौती बड़ी ही होगी।
चुनावी वादे और योजनाओं के क्रियान्वयन के साथ प्रदेश का राजनैतिक संतुलन बनाए रखना आसान तो कतई नहीं है।
वह भी ऐसे राजनैतिक माहौल में जब आम तौर पर लोगों के जेहन में ढाई-ढाई का फार्मूला बसा हो।
वर्ष 2018 में चुनाव परिणाम के बाद सरकार दो बरस पूरा कर चुकी है। मार्च 2019 से दिसंबर 2020 तक पूरी दुनिया के साथ छत्तीसगढ़ भी कोविड संक्रमण के भयावह दौर से गुजरा।
लोग संक्रमण के शिकार हुए मौतें भी हुई। 15 बरस बनाम नई सरकार से उम्मीदों का बोझ लेकर राजनैतिक उहापोह से निजात पाना आसान तो कतई नहीं हो सकता।
2020 के अंत तक भूपेश बघेल ने यह स्थापित कर लिया कि अब सीएम का चेहरा कोई दूसरा नहीं होगा। इसके बाद नए तरीके से छत्तीस गढ़ों को जीतने की कोशिश में जुटे हैं।
जनवरी 2021 में सरगुजा से बस्तर तक भूपेश बघेल अश्वमेघ यग्य के दौरे पर हैं। हवन पूजन के बाद पूरे प्रदेश में उनके अश्व विचरण कर रहे हैं कहीं से भी अश्व विचरण में किसी बाधा की सूचना नहीं है। यानी सारे गढ़ सीएम बघेल के साथ हैं।
विपक्ष केवल सोशल मीडिया में ही दिखाई दे रहा है। धान खरीदी को लेकर कई तरह से हवा बनाने की कोशिश की गई पर जमीनी सफलता विपक्ष के हिस्से में हासिल नहीं हो सकी।
जबकि जमीन में बारदाने का सबसे बड़ा संकट सामने है। लोग मंहगे बारदाने बाजार से लेकर धान बेचने खरीदी केंद्रों में कतार लगाकर खड़े हैं।
इसमें कोई दो मत नहीं कि प्रदेश में राजनीति का असली केंद्र धान ही रहेगा। यही वह फसल है जिसकी कीमत डा. रमन सिंह ने पराजय से चुकाई है। भाजपा अपनी राजनीति में इसी धान रो पकड़कर आगे बढ़ने की जुगत में है। इसमें सफलता मिलेगी या नहीं फिलहाल आंकलन कठिन है।
प्रदेश की राजनीति में किसी मुख्यमंत्री का करीब-करीब सभी जिलों में जाकर रात गुजारने और लोगों से मिलने का तरीका बड़ी लकीर खींचने की कोशिश है।
यह माना जाना चाहिए कि भूपेश बघेल 2023 की तैयारी में अभी से जुट गए हैं। वे हर जिले में अपने साथ कार्यकर्ता और लोगों को जोड़ने की मुहिम में हैं।
बस्तर के नारायणपुर, बीजापुर जैसे जिलों में रमन सिंह केवल चुनावी अभियान के दौरान रात गुजारते रहे। भूपेश इससे बहुत आगे निकलते दिख रहे हैं।
नक्सल मोर्चा पर भूपेश सरकार को बड़ी सफलता मिली है। पहले केंद्रीय बल और राज्य बल के बीच एक असमंजस का दौर रहा। फिलहाल कंबाइंड कमांड का बढ़िया नतीजा सामने है।
सीआरपीएफ, बीएसएफ के कैंप बस्तर से लेकर माओवाद प्रभाव क्षेत्र में बिठाए गए हैं। कैंप का विरोध पहले से ही होता रहा है पर यह पहली बार है जब विरोध के बावजूद सशस्त्र बल ज्यादा सहज हैं।
राज्य पुलिस के मुखिया के साथ-साथ मुख्यमंत्री भी माओवादियों के आधार इलाके में सरकार की सशक्त मौजूदगी के लिए कटिबद्ध दिख रहे हैं। यही वजह है केंद्रीय बल की ओर से विजय कुमार और नलिन प्रभात बस्तर में लगातार नजर बनाए हुए हैं। प्रभात इस बीच कई दौरे कर गए। ऐसा पहले कम ही देखने सुनने को मिलता था।
अक्सर माओवादी मोर्चे में बड़े नुकसान के बाद ही ऐसे अफसर यहां दिखा करते थे। पर अब परिस्थितियों के साथ काम करने का तरीका भी बदला है फोर्स एडवांस तौर तरीकों के साथ शांति, विकास और लोगों को जीतने में जुटी है।
एक दौर था जब एसआरपी कल्लूरी के बगैर माओवाद पर अंकुश असंभव लगता था इस मिथक को भी बड़ी सहजता के साथ खत्म कर दिया गया है।
विशेषकर बस्तर में आईजी पी सुंदरराज सातो जिलों को एक सूत्र में पिरोकर बस्तर में माओवादियों के गढ़ को भेदने में कामयाबी हासिल करते दिख रहे हैं।
औद्योगिक विकास को लेकर भूपेश बघेल पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जैसी गलती करेंगे ऐसा नहीं लग रहा है। विनिवेश की जद में एनएमडीसी के नगरनार स्टील प्लांट को राज्य सरकार द्वारा लेने की घोषणा का भविष्य भले ही कुछ भी क्यों ना हो पर यह राजनैतिक तौर पर भूपेश बघेल की राजनीति के लिए बड़ा मसला हो गया है। इस लकीर को काटना या मिटाना विपक्ष के लिए आसान नहीं है।
डा. रमन सिंह बस्तर में टाटा को स्थापित करा पाने में विफल रहे। वे थोड़ा सा जोखिम लेते तो बस्तर की भूमि में टाटा जैसे संस्थान को स्थापित करने का राजनैतिक लाभ स्थाई हो सकता था।
इस अवसर को डा. सिंह ने सिर्फ इस भय से गंवा दिया कि इससे बस्तर में भाजपा को नुकसान हो जाएगा। जबकि बिना इसके भी नुकसान हो गया।
बस्तर में औद्योगिक विकास के लिए किए जा रहे सरकार के प्रयासों को सफलता मिलेगी या नहीं यह भविष्य के गर्भ में है पर सरकार अपना इरादा जाहिर कर रास्ते खोलने में जुटी दिख रही है।
बोधघाट जैसी योजना को लेकर सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अतीत की गलतियों को सुधारकर विकास की पक्की राह पर चलना पसंद कर रही है। बस्तर में कांग्रेस के पास अभूतपूर्व जनादेश है इसका लाभ ना उठाना कांग्रेस के लिए ही नुकसानदेह होगा।