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#between naxal and force सलवा जुड़ूम के बाद सुलगते दक्षिण बस्तर में हमले, हादसे और बदले की भावना का कनेक्शन… 

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  • सुरेश महापात्र।

हिंदुस्तान के भीतर बस्तर का एक रक्त रंजित इतिहास भी दर्ज हो रहा था। जिसमें आदिवासी ही मारे जा रहे थे… (6)  से आगे…

सलवा जुड़ूम के बाद दक्षिण बस्तर का हाल तेजी से बिगड़ने लगा। दो वर्ग में संघर्ष साफ दिखाई देने लगा। दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए। करीब 80 हजार की आबादी वाले भैरमगढ़ ब्लाक के इंद्रावती नदी से सटे अंदरूनी गांवों से लोगों का पलायन तेजी से शुरू हुआ। भयाक्रांत आदिवासी यह तय करने में विफल थे कि वे किसका साथ दें और किसके खिलाफ रहें। ताकत का साफ प्रदर्शन होने लगा। अंदर के गांवों में जहां माओवादियों का दबदबा रहा वहां जो ग्रामीण बच गए वे सीधे मान लिए गए कि वे माओवादियों के साथ हैं। जो गांव छोड़कर राहत शिविर में शरणार्थी बने वे माओवादियों की भाषा में दुश्मन (फोर्स यानी सशस्त्र बलों) के साथ हैं ऐसा प्रचार किया जाने लगा।

सबसे पहले जिन इलाकों में माओवादियों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई वह इलाका बीजापुर जिले के भैरमगढ़ ब्लाक में आता है। यह ब्लाक करीब 2698 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसमें मात्र 35 वर्ग किलोमीटर ही शहरी या कस्बाई क्षेत्र में आता है। जिसमें कुटरू, नेमेड़, भैरमगढ़ और माटवाड़ा शामिल थे। इसके अलावा मुख्यमार्ग पर स्थित जांगला जहां सड़क पर पुलिस थाना स्थित है। यहां शरणार्थी शिवि​र बनने शुरू हो गए। 

भैरमगढ़ ब्लाक में करीब 282 गांव दर्ज हैं इसमें से 80 गांव इंद्रावती नदी पार अबूझमाढ़ से सटे हैं। इस ब्लाक के करीब 45 गांव निर्जन ग्राम के तौर पर दर्ज हैं। यानी यह ब्लाक पहले से ही दो हिस्सों में विभक्त रहा। नदी पार के गांवों में पूरी तरह जनताना सरकार का दबदबा और नदी के इस पार के गांवों में विशेषकर नदी से तटे इलाकों में माओवादियों का जबरदस्त दबाव बना हुआ है। इंद्रावती नदी के तटीय अंबेली, बंडेपारा, तुंगेली, उसकापटनम, करकेली और बेदरे इलाके में सबसे पहले बैठकों की शुरूआत हुई। 

माओवादियों के खिलाफ अभियान चालू होने के महज छह माह के भीतर सरकारी रिकार्ड में 12 राहत शिविरों में करीब 20 हजार आदिवासियों के शरणार्थी बनने की बात दर्ज है। दरअसल अभियान के बाद माओवादियों ने सलवा जुड़ूम समर्थकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया था। माओवादियों ने उनके खिलाफ ‘सलवा जुडूम’ में भाग लेने और पुलिस का समर्थन करने के लिए उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी थी। 

इससे बड़ी संख्या में लोग भयाक्रांत होकर गांव छोड़ने लगे थे। वहीं इन भयभीत आदिवासियों में यदि वे इन संवेदनशील इलाकों में रहते हैं तो सलवा जुडूम समर्थकों का निशाना बनने का भी भय सताने लगा था। यानी बस्तर के भीतर पूरी तरह से दो फांक वाली स्थिति तैयार हो चुकी थी।

जून 2005 में सलवा जुड़ूम प्रभाव के बाद से ही बीजापुर के कुछ इलाकों में सुरक्षा के लिहाज से मुख्यमार्ग में राहत शिविर शुरू कर दिए गए। बावजूद इसके अंदरूनी इलाकों में मसलन फरसेगढ़ और कुटरू के बीच का माओवादियों के हमले के अनुमान से अतिसंवेदनशील इलाका ऐसा था जहां जरूरत पड़ने पर सुरक्षा बलों को आसानी से पहुंचना कठिन था।   

ऐसे में राहत कैंप सुरक्षा के आधार पर दोनों के बीच रानीबोदली में भी सुरक्षा कैंप लगाया गया था। इसमें एसएएफ के जवान तैनात किए गए थे। जुड़ूम के बाद बदली हुई परिस्थितियों में फरसेगढ़ और कुटरू में राहत शिविर बनाए गए थे। जहां अंदरूनी गांवों के हजारों आदिवासियों को रखा गया था।

फरसेगढ़, कुटरू, नेमेड़, माटवाड़ा, जांगला, भैरमगढ़ और नेलसनार में राहत शिविर बनाए गए थे। इसमें से सबसे पहले फरसेगढ़ में एसपीओ के तौर पर शिविर के शरणार्थी आदिवासी युवाओं को मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने मान्यता दी। संभवत: यह सलवा जुड़ूम के बाद मुख्यमंत्री का पहला सार्वजनिक कार्यक्रम था। जिसमें इस मंच पर उनके साथ सलवा जुड़ूम के नेतृत्वकर्ता महेंद्र कर्मा भी मौजूद थे।

आदिवासी युवाओं को जिनमें से ज्यादातर के पास शैक्षणिक योग्यता का प्रमाण उपलब्ध नहीं था। इनका उपयोग किस तौर पर किया जाए यह तय करना सरकार के लिए कठिन हो गया था। इसके बाद विशेष पुलिस अधिकारी एसपीओ के तौर पर इनकी नियुक्ति के लिए सरकार ने रास्ता खोल दिया। इन्हें हथियारों की ट्रेनिंग दी गई। इसके बाद इन्हीं एसपीओ को सलवा जुड़ूम राहत शिविरों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी सौंपी गई।

एसपीओ के तौर पर काम करने के लिए उन आदिवासी युवाओं को भी मौका दिया गया जो पहले माओवादी संगठन में सक्रिय थे। यह एक सुरक्षा रणनीति के तहत फैसला प्रतीत हुआ। क्योंकि दक्षिण बस्तर के बीहड़ में माओवादियों के तौरतरीकों से लैस बल को तैयार किया जा रहा था। जिनके पास माओवादी संगठन के काम करने और गुरिल्ला वार का प्रशिक्षण भी था। इस तरह से अब दोनों ही तरफ से आदिवासियों के आमने—सामने होने का दौर शुरू हो गया।

ऐसी स्थिति में अब माओवादियों के दुश्मनों की सूची में वे लोग सीधे तौर पर शामिल हो गए जो अब एसपीओ के तौर पर काम करने लगे थे। हांला​कि इस घटनाक्रम के बाद माओवादियों को अपनी रणनीति तय करने में थोड़ा वक्त लगा। पर जैसे ही वे इसके लिए तैयार हुए वे अब सीधे उन ठिकानों पर हमले शुरू करने लगे जहां एसपीओ और आत्मसमर्पित माओवादी सशस्त्र बलों के साथ खड़े ​थे। 

30 जनवरी 2006 को एक राहत ​शिविर पर माओवादी हमला किया गया। इसमें 11 आम नागरिकों के साथ 3 आत्मसमर्पित माओवादियों सहित कुल 14 लोग मारे गए थे। इस हमले में 12 एसपीओ घायल हो गए थे।

15—16 मार्च 2007 की दरमियानी रात को बीजापुर जिले के रानीबोदली में एसएएफ के कैंप पर माओवादियों ने हमला कर दिया। रानीबोदली के बालिका छात्रावास के एक हिस्से में यह कैंप था। जिसमें करीब 60 जवान तैनात थे। तीन दिन पहले ही यहां जवानों ने होली खेली थी। इस दौरान से माओवादी वहां रेकी कर रहे थे।

बाद में हमले की जांच रिपोर्ट में यह तथ्य भी सामने आया कि माओवादी कैंप में तैनात जवानों से काफी घुल मिल गए थे। माओवादियों की चेहरे से पहचान आसान नहीं थी। इसका लाभ माओवादियों ने उठाया था। हमले वाली रात से पहले माओवादियों के इन्हीं लोगों द्वारा सुरक्षा जवानों को बोकरा भात और शराब की पार्टी भी दी थी।

16 मार्च अलसुबह खबर मिली कि रानीबोदली में नक्सलियों ने अटैक कर दिया है। सोचने की जरूरत ही नहीं कि रानीबोदली की दूरी कितनी है और कब तक पहुंचेंगे। बस निकल पड़े। कुटरू से फरसेगढ़ की राह पकड़ी और सामने दिखने लगा रानीबोदली का विशेष सशस्त्र बल का कैंप जहां आधी रात नक्सलियों ने तांडव मचाया था। बाहर सड़क तक मानव के जलने की दुर्गंध और पूरा परिसर मांस के लोथड़ों और कारतूस के खोलों से अटा पड़ा। किसके लोथड़े थे और कारतूस के खोखे किनकी गोलियों के थे यह अंदाज लगाना कठिन…।

पूरे परिसर में मौत का तांडव। 55 जवान शहीद हुए थे, इस जगह पर। शहीद हुए थे या मारे गए थे। अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है। क्यों कि बाद में जो परिस्थियां सामने आईं, जो सच्चाई बाहर निकली उसे जानने के बाद मारा जाना लिखना ही सही लगता है। जले, अधजले, मृत जवानों के शवों को कूद—फांद कर अंदर तक जाना और तस्वीरें लेना। पूरे अंतश को झकझोर गया। 
इंसान के जलने की दुर्गंध सालों तक नाक में समायी रही। किसी एक प्राणी के सड़न की गंध को बर्दाश्त करना कितना कठिन होता है? वहां तो 55 लाशें अपनी कहानी बयां कर रही थीं। कोशिश यही थी कि कोई भी एंगल ना छूट पाए।

एक बात साफ दिखाई दे रही थी कि जिस समय हमला हुआ उस दौरान नशे में धुत्त जवान बिस्तर पर पड़े पड़े ही जल गए थे। वे हथियार उठाने तक की हालत में नहीं थे। जो होश में आया वह मारा गया। आश्रम की छत पर तैनात संतरी की ड्यूटी कर रहे जवान यदि कूद कर भाग नहीं गए होते तो वे भी जान से हाथ धो सकते थे।

इस हमले के बाद पहली बार राज्य के गृहमंत्री रामविचार नेताम रानीबोदली पहुंचे। उनके साथ हेलिकाप्टर पर नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा भी आए थे। दोनों ने शहीद जवानों को श्रद्धांजलि दी। इसके बाद श्री नेताम ने घटना के संबंध में मीडिया को जानकारी दी। जब इस हमले को लेकर जवाबदारी का सवाल पूछा गया तो खिन्न होकर रामविचार नेताम ने साफ कहा ‘…यदि आप चाहते हैं तो मैं यह पद त्याग देता हूं!’

चूंकि घटना स्थल से करीब 12 किलोमीटर की दूरी पर सीआरपीएफ का कैंप था। पर हमले की सूचना मिलने के बाद भी कुटरू और फरसेगढ़ कैंप से बैक सपोर्ट फोर्स नहीं पहुंची। जिससे इस हादसे का स्वरूप बड़ा हो गया था। चूंकि तब तक सीआरपीएफ के पास एं​टी लैंड माइन व्हीकल की उपलब्धता थी तो ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी ही था। कुटरू से फरसेगढ़ का फासला करीब 25 किलोमीटर का है। इन दोनों के बीच में रानीबोदली कैंप केवल इसी वजह से तैनात थी ताकि जरूरत पड़ने पर वह बैक सर्पोट कर सके।

उस बालिका आश्रम में बच्चियां कैसे रह रही होंगी? इसकी कल्पना की ही जा सकती है। मैंने उस दौरान आश्रम की बच्चियों से जानकारी ली थी उन्होंने बताया था कि जब रात को गोलियों और धमाकों की आवाज सुनाई दी तो वे अपने बिस्तर के नीचे छिप गए थे। सुबह जब उजाला हुआ तो उन्होंने सबसे पहले श्मसान में तब्दील आश्रम के दूसरे हिस्से को देखा जहां बाहर लाशें बिछी हुईं थी।

सलवा जुड़ूम के बाद हालत पूरी तरह बदल गए थे। चारों ओर दहशत और खून—खराबा की दास्तां लिखी जा रही थी। कैंप पर तैनात जवान सीधे तौर पर माओवादियों के निशाने पर रहे। कैंप पर अटैक करने के लिए माओवादी पूरी तैयारी के साथ पहुंचते यह साफ दिखाई दे रहा था। माओवादी अपने साथ कच्चे बांस की बनाई सीढ़ी भी लेकर पहुंचते। जिससे वे हमले के दौरान चढ़ाई में उपयोग करते और हमले में किसी साथी की मौत होती तो उसे उसी सीढ़ी में उठाकर चले जाते।

दिसंबर 2010 को पिपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के 10वीं वर्षगांठ के मौके पर प्रकाशित माओवादी सूचना बुलेटिन के 21वें अंक पेज क्रमांक 11 से 13 में माओवादी संगठन ने सलवा जुड़ूम को लेकर विस्तार से जानकारी हैं। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि सलवा जुड़ूम अभियान के बाद माओवादियों ने अपने मोबाइल वारफेयर का पहला अभियान संचालित किया। जिसमें 6 माओवादियों के मारे जाने का भी जिक्र है।

Ranibodili : Responding to the call of Party’s Unity Congress-9th Congress the first raid which symbolized mobile warfare was conducted in Dandakaranya in Ranibodili. This raid terrified the ruling classes. 55 CAF and SPOs were annihilated, 12 CRPF and SPOs were injured, 33 weapons and more than 2,000 ammunition were seized by the PLGA. Comrades Mohan, Linganna, Kailash, Bhagat, Bhimal and Chaitu were martyred while valiantly fighting the enemy.

हिंदी रूपांतरण

रानीबोदली : पार्टी की एकता कांग्रेस-9वीं कांग्रेस के आह्वान पर प्रतिक्रिया करते हुए रानीबोदली के दंडकारण्य में मोबाइल युद्ध का प्रतीक पहला छापा मारा गया। इस छापेमारी ने शासक वर्ग को भयभीत कर दिया। 55 सीएएफ और एसपीओ का सफाया कर दिया गया। 12 सीआरपीएफ और एसपीओ घायल हो गए। 33 हथियार और पीएलजीए द्वारा 2,000 से अधिक गोला-बारूद जब्त कर लिया गया। कामरेड मोहन, लिंगन्ना, कैलाश, भगत, भीमल और चैतू दुश्मन से बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गए।

(7) आगे पढ़ें…

क्रमश:

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