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क्या अमन सिंह और सौम्या चौरसिया जैसे ब्यूरोक्रेट ही सत्ता का पर्याय हैं… और छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के डरे सहमे होने की असल वजह भी?

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सुरेश महापात्र।

इन दिनों छत्तीसगढ़ में प्रवर्तन निदेशालय की टीम ताबड़तोड़ कार्यवाही कर रही है। उन्होंने राज्य सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे दो ब्यूरोक्रेट आईएएस समीर विश्नोई और राज्य प्रशासनिक सेवा की अधिकारी सौम्या चौरसिया को गिफ्तार कर लिया है। कई तरह के मामलों की जांच अभी भी चल रही है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ईडी द्वारा गिरफ्तारी के बाद साफ कह दिया कि यह उनकी उप उचिव के खिलाफ राजनैतिक साजिश के तहत कार्रवाई है। इसके खिलाफ पूरी ताकत से लड़ेंगे। कमोबेश यही भाषा पूर्ववर्ती भारतीय जनता पार्टी की रमन सरकार के दौर में उनके ब्यूरोक्रेट अमन सिंह पर उठने वाली उंगली पर रमन सिहं की होती थी।

एक प्रकार से छत्तीसगढ़ में चाहे अमन सिंह हों या सौम्या चौरसिया कोई ना कोई इस तरह की केंद्रीय भूमिका में रहता ही है जिसके इर्द—गिर्द पूरी सरकार चक्कर लगाती है।

एबीपी न्यूज के स्टार रिपोर्टर ज्ञानेंद्र तिवारी ने अपने ट्वीट में एक जबरदस्त इशारा किया है कि सौम्या चौरसिया के खिलाफ पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, नेता प्रतिपक्ष नारायण चंदेल, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरूण साव, प्रखर नेता अजय चंद्राकर, वरिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल तक एक शब्द नहीं बोलते…।

यह साफ है कि उन्हें पता है कि जिनके खिलाफ बोलने के लिए इन नेताओं को उकसाया जा रहा है वह राज्य में सत्ता का पर्यायवाची शब्द है।

साल 2012 की बात है तब तो यह कल्पना भी बेमानी रही कि छत्तीसगढ़ में भाजपा की सत्ता को कांग्रेस से कोई चुनौती है! उस दौर में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस बिल्कुल इसी तरह से सत्ता के लिए छटपटाती दिख रही थी। जमीन पर संघर्ष का ताना—बाना बुना जा रहा था। राज्य में किसी मीडिया घराने की हिम्मत नहीं थी कि वे कांग्रेस के इस संघर्ष को अपना शब्द दे सकें। कोई यदि कोशिश करता तो उसके लिए जनसंपर्क विभाग से फरमान जारी होता था। खबरें खुद बा खुद मैनेज हो जाया करतीं।

यहां तक काउंटर रिपोर्ट के लिए दिल्ली से किसी ना किसी सर्वे की रिपोर्ट मंगवाई जाती और यह रिपोर्ट प्रथम पृष्ठ पर कांग्रेस की जमीनी संघर्षगाथा का काट हो जाया करतीं। पीआर की खबरें मीडिया इस तरह से परोसतीं मानों बड़ी मशक्कत से यह खबर निकाली गई हो!

वजह साफ थी तब भी मीडिया को जन सरोकार से ज्यादा अपने हित को लेकर लगी रही। इस समय छत्तीसगढ़ में दो ऐसे राजनैतिक पदाधिकारी हैं जो उस दौरान मीडिया के भीतर अपनी घुटन को साफ महसूस भी करते रहे। आप समझ सकते हैं वे दो कौन थे? उनमें से एक वर्तमान में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के मीडिया सलाहकार रूचिर गर्ग हैं और दूसरे राजनैतिक सलाहकार विनोद वर्मा हैं।

ये दोनों बेहतर बता सकते हैं कि मीडिया पर दबाव का कितना प्रभाव पड़ता है। किसी भी सेठ की नौकरी बजाने के लिए सेठ का अनुशासन ‘पत्रकारिता परमो धर्म’ की असल बुनियाद है। जिसका काटा अब तक कोई नहीं कर पाया है। ऐसे में जब कोई व्यक्ति पत्रकार के तौर पर सरोकार और पत्रकारिता को लेकर अपनी राय रखता है तो मैं उसे बेहद संदिग्ध नजर से देखता हूं। मुझे यह पता है कि दबाव क्या होता है। दबाव के प्रभाव में ना आने का नतीजा क्या होता है? पर जिनके पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता वे सिर्फ बोल सकते हैं। बदल नहीं सकते। हमारी हैसियत बस इतनी ही बची है।

2013 में कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बाद भी राज्य में भाजपा की रमन सरकार काबिज हो गई। इसके बाद सत्ता के केंद्र में पूरी तरह से अमन सिंह का राज रहा। यह छत्तीसगढ़ का बच्चा—बच्चा जानता और समझता है। पर उस दौर की तमाम मीडिया कतरने चैक कर लें कहीं इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलेगा! बिल्कुल ऐसा ही अब हो रहा है।

दरअसल सत्ता के प्रभाव में सबसे ज्यादा मजबूत अफसर के सामने सत्ता के बेबस होने की वजह वे फाइलें होती हैं जिनके लिए गोपनीयता सत्ता की प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है। यह बात सही है कि जिस दौर में केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए टू की सरकार थी तब इस तरह की जोर आजमाईश केंद्र के इशारे पर छत्तीसगढ़ में कभी दिखाई नहीं दी। जितना अभी दिखाई दे रहा है। तमाम विरोधों के बाद भी केंद्र सरकार ने कभी सीधे अमन सिंह के गिरेबां में हाथ डालने की हिमाकत नहीं की। उसकी यही वजह रही कि वे भले ही ब्यूरोक्रेट थे पर उनकी भूमिका राजनैतिक केंद्रित रही।

कहने का आशय यही है कि सरकारें राज्य के आंतरिक राजनैतिक महत्व के ब्यूरोक्रेटिक पद के किसी योग्य की तलाश करती है। जिनके माध्यम से वे सारी फाइलें टेबल तक पहुंचे जिसकी भनक किसी दूसरे को कतई ना हो। यह सत्ता के लिए जरूरी भी होता है। क्योंकि सीएम राज्य के मुखिया होते हैं और वे कई फैसलों को लेकर बेहद सर्तकता बरतते हैं।

ऐसे में जिस अधिकारी को इस बात की जिम्मेदारी होती है वे सीधे सीएम से मुखातिब होते हैं वे ऐसे संवेदनशील मामलों को सीधे सीएम तक ले जाते हैं और उनके माध्यम से निर्णय का क्रियान्वयन होता है यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। शायद यही वजह है कि सौम्या चौरसिया के घर पर आईटी रेड की श्रृंखला के बाद जो कुछ हो रहा है उसे लेकर सीएम केंद्रीय एजेंसियों के रवैये को लेकर आंखे तरेर रहे हैं।

2018 के चुनाव से पहले सीपीआर के पद पर राजेश सुकुमार टोप्पो रहे। उनकी बातचीत के कई विडियो वायरल हुए। जिससे पहली बार पब्लिक डोमेन में मीडिया की हकीकत का अंदाजा लग सका। लोगों को साफ पता लगा कि सीपीआर के चैंबर के भीतर कुर्सी पर बैठा शख्स किस तरह से मीडिया से जुड़े लोगों से बात करता है। उसका लहजा और उसकी तमीज दोनों को अंदर उनके सामने पेश मीडिया पर्सन को ही पता होती है। यदि राजेश सुकुमार टोप्पो का यह विडियो वायरल नहीं होता तो कभी पता ही नहीं लगता कि सरकार विरोधी खबरें जनसंपर्क विभाग में मिमियाती मीडिया के खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे वाली कहावत को चरिता​र्थ करती है। यह बात भी कम ही लोगों को पता होगी कि राजेश सुकुमार टोप्पो के विडियो वाली इस घटना के बाद से सीपीआर के केबिन में मीडिया मेन के मोबाइल पर लगी रोक अब तक कायम है।

छत्तीसगढ़ में सौम्या हों या अमन सिंह के दौर में मीडिया का मौन इस बात की चुगली करता है कि सत्ता के प्रभावशाली ब्यूरोक्रेट के खिलाफ यदि कुछ भी बोला या परोसा गया तो यह साफ माना जाएगा कि यह सत्ता के खिलाफ प्रदर्शन है जिसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। पर यह भी सही नहीं है कि अपनी व्यक्तिगत कुंठा को प्रदर्शित करने के लिए सुनील नामदेव जैसा प्रयोग किया जाए। कई ईडी की कार्यवाही के बाद न्यायालय परिसर में जिस तरह की रिपोर्टिंग का प्रदर्शन सुनील नामदेव ने अपनी रिपोर्ट में किया है यह कतई स्वागत योग्य नहीं माना जा सकता।

पत्रकार के लिए भाषाई और मर्यादा की सीमा ही उसे गरिमापूर्ण पेशवेर के लिए पहचान देती है। जिसे संभाला जाना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि हर मामले में हर सच के लिए खड़े होने की ताकत अपने भीतर ईमानदारी के साथ रखी जाए। वैसे केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार हो या राज्य में कांग्रेस की भूपेश सरकार दोनों में मीडिया के प्रति समझ उनके सिस्टम से साफ झलकती है। जिसे कोई इंकार नहीं कर सकता।

पद्रेश में ईडी की कार्रवाई के बाद मीडिया के भीतर भी बड़ी बेचैनी है। यहां सिस्टम ने उन मीडियाकर्मियों को निशाने पर लिया ही है जिन्होंने सिस्टम की सीमा रेखा को नजरअंदाज करने की कोशिश की। सच्चाई तो यही है कि अब यह मान लेना चाहिए कि अमन सिंह और सौम्या चौरसिया जैसे ब्यूरोक्रेट ही सत्ता का पर्याय हैं… और छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के डरे सहमे होने की असल वजह भी हमेशा इन जैसे चेहरे ही रहेंगे। भले ही सत्ता किसी की भी क्यों ना रहे…

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