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आरक्षण की 50 फीसदी लिमिट तोड़ने पर फिर छिड़ेगी बहस… क्या कहता SC का 1992 वाला फैसला…

इंपेक्ट डेस्क.

बिहार में जातिगत सर्वे के नतीजे सामने आ चुके हैं और उसमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग एवं पिछड़ा वर्ग की आबादी मिलाकर 63 फीसदी के करीब है। इसके अलावा अनुसूचित जाति की आबादी 19 फीसदी और जनजाति की 1.68 फीसदी पाई गई है। इस सर्वे के नतीजों के बाद राजनीतिक तौर पर बहस शुरू हो सकती है और उसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी देखने को मिलेगा। लेकिन इसका एक बड़ा असर आरक्षण की बहस के तौर पर भी दिख सकता है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार वाले मामले में 1992 में आरक्षण को लेकर 50 फीसदी की सीमा तय की थी। 

इसे लेकर अकेला तमिलनाडु राज्य ही अपवाद है और अन्य राज्यों में इसका पालन करना होता है। अब बिहार में जो आंकड़े सामने आए हैं, उसके मुताबिक जनरल कैटिगरी की आबादी 15.52 फीसदी ही है। ऐसे में आरक्षण की 50 फीसदी सीलिंग को खत्म करने की मांग फिर से उठ सकती है। महाराष्ट्र, झारखंड जैसे कई राज्यों में अलग-अलग समुदायों को आरक्षण देने की नीति के तहत इस सीलिंग को खत्म करने की मांग पहले ही उठती रही है। यही नहीं महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे कई राज्यों ने तो आरक्षण के प्रस्ताव पारित भी कर दिए, लेकिन अदालत से ही उन पर रोक लगी। सिर्फ 10 फीसदी का EWS कोटा एक अपवाद रहा है।

इंदिरा साहनी मामले में 9 जजों की संवैधानिक बेंच ने 6-3 के बहुमत से फैसला दिया था और 27 फीसदी obc आरक्षण बरकरार रखा था। इसके साथ ही अदालत ने कुछ अहम बातें भी की थीं। इसके तहत अपवादों को छोड़कर आरक्षण की 50 फीसदी सीमा तय करने का फैसला लिया गया। हालांकि इसके बाद 1994 में 76वां संविधान संशोधन हुआ था, जिसके तहत तमिलनाडु में आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से ज्यादा कर दिया गया। इसे संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किया गया है। 

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