Big newsNaxal

CG : अब साइकिल नहीं ‘हॉट लाइन’ का प्रयोग कर रहे माओवादी… पेड़ पर तैयार होता है ‘मोबाइल एंबुश’…

इम्पैक्ट डेस्क.

नक्सल प्रभावित राज्यों में जहां एक तरफ धीमी गति से सरकारी विकास पहुंच रहा है, तो वहीं दशकों से हथियार उठाए माओवादी भी नए ट्रेंड में नजर आने लगे हैं। घने जंगल में सूचनाएं पहुंचाने के लिए अब उन्हें साइकिल नहीं उठानी पड़ती। नक्सलियों के पास ‘हॉट लाइन’ की सुविधा है। वायरलेस सेट लेकर वे लंबे पेड़ पर बैठ जाते हैं। वहीं से ‘मोबाइल एंबुश’ का खाका तैयार होता है। केंद्रीय सुरक्षा बलों के अलावा राज्य पुलिस पर देसी ‘बैरल ग्रेनेड लॉन्चर’ (बीजीएल) से जमकर फायर किए जा रहे हैं। एंटी पर्सनल आईईडी व फॉक्स होल के जरिए माओवादी, सुरक्षा बलों पर हमले का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ भी नक्सलियों के नए ट्रेंड को समझकर उनके वार की काट निकाल रही है। जिस तेजी से ‘बीजीएल’ तैयार हो रहे हैं, यह बात केंद्रीय सुरक्षा बलों एवं लोकल पुलिस के लिए खतरे का संकेत है।

माओवादियों के खिलाफ केंद्रीय सुरक्षा बलों द्वारा किए जा रहे ऑपरेशनों की कमान संभालने वाले एक अधिकारी का कहना है, नक्सली अब अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। पहले जो एंबुश (घात लगाकर हमला करना) लगते थे, वे परंपरागत तरीके पर आधारित थे। कई दिन पहले से तैयारी शुरू होती थी। उनके पास यह सूचना रहती थी कि सुरक्षा बलों की टीम इसी रास्ते से गुजरेगी। जैसे ही सुरक्षा बल, वहां पहुंचते, एंबुश शुरू हो जाता था। इससे बलों को भारी नुकसान उठाना पड़ता था।

वायरलेस सेट से रखते हैं निगरानी

करीब डेढ़ दो दशक पहले तक नक्सलियों के पास संचार के विकसित साधन नहीं थे। अपने समूहों तक सूचना पहुंचाने के लिए साइकिल का इस्तेमाल होता था। अगर एंबुश में कोई बदलाव होता तो उसके लिए साइकिल सवार के जरिए संदेश पहुंचाया जाता था। अब माओवादी एक नए ट्रेंड में आ रहे हैं। एंबुश का तरीका भी बदल गया है। मौजूदा समय में ‘मोबाइल एंबुश’ लगता है। उनके पास संचार के तमाम संसाधन हैं। ‘खबरी’ उन्हें बताता है कि सुरक्षा बलों की लोकेशन क्या है। जाने का रूट कौन सा है और वापसी के लिए सुरक्षा बल कौन सा रास्ता लेते हैं। वायरलेस सेट लेकर वे लंबे पेड़ पर बैठे रहते हैं। वहां से बलों की मूवमेंट पर नजर रखते हैं। अब वे अपनी सुविधा के अनुसार ‘मोबाइल एंबुश’ की जगह बदल सकते हैं। पहले अगर ऐसा कुछ करना होता तो साइकिल सवार को भेजा जाता था। अब वायरलेस के जरिए आंखों देखा हाल बताते रहते हैं। अगर सुरक्षा बल दो किलोमीटर की दूरी पर हैं तो भी ‘मोबाइल एंबुश’ का स्थान बदल दिया जाता है। गत दो वर्ष में ‘मिनपा’ और एक अन्य जगह पर ऐसे ही एंबुश के जरिए सुरक्षा बलों को नुकसान पहुंचाया गया। चूंकि नक्सलियों के पास मजबूत सूचना तंत्र है, इसलिए वे मौका देखते ही आईईडी लगा देते हैं।

देसी बीजीएल बनी नक्सलियों का खास हथियार

माओवादियों की अपने कोर एरिया पर पकड़ रहती है। जिस जगह पर वे हमले की योजना बनाते हैं, वहां आसपास के गांव में अपने खबरी को वायरलेस सेट दे देते हैं। वे लोग, उस सेट को अपने झोले में डाले रहते हैं। सुरक्षा बलों की मूवमेंट की खबर उन्हें मिलती रहती है। हालांकि सीआरपीएफ व अन्य बल, नक्सलियों के सूचना तंत्र को जैमर की मदद से पकड़ने या खत्म करने का प्रयास करते हैं। मोबाइल एंबुश लगाने में नक्सली एक्पर्ट हैं। खुद ही आईईडी तैयार करते हैं। मल्टीपल आईईडी को ‘डेजी चेन’ के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। कुछ माह से ‘बीजीएल’ को नॉमर्ल गन की तरह प्रयोग में लाया जा रहा है। इसमें तीन-चार तरह के ग्रेनेड फायर किए जा सकते हैं। सीआरपीएफ व दूसरे सुरक्षा बलों के कैंप पर दो सौ मीटर दूर से फायर कर देते हैं। हालांकि इससे अभी तक ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। वजह, उन्हें काफी दूर से बीजीएल चलाना पड़ता है। नतीजा, उसकी मार क्षमता कम हो जाती है।

सीआरपीएफ के अफसरों का कहना है कि देसी बीजीएल तैयार करने के लिए आसपास के इलाकों में ही फैक्ट्री हैं। ये अलग बात है कि स्थानीय प्रशासन वहां तक नहीं पहुंच पा रहा है। बस्तर में ऐसी ही एक फैक्ट्री बताई जाती है, मांड में भी बीजीएल बनती हैं। देसी बीजीएल को यदि कम दूरी से चलाया जाए तो वह काफी नुकसान कर सकता है। बरसात में जहां भी सूखी जगह नजर आती है, वहां आईईडी लगा दी जाती है। एंटी पर्सनल आईईडी और लैंड माइन आईईडी, दोनों लगाई जाती हैं। लैंड माइन आईईडी का इस्तेमाल वाहन आदि को उड़ाने के लिए किया जाता है। यह रिलीज मेकेनिज्म पर काम करती हैं। फॉक्स होल सुरंग में एल आकार में आईईडी लगा दी जाती है।

जिलेटिन स्टिक का करते हैं इस्तेमाल

जानकारों का कहना है कि उच्च विस्फोटक आरडीएक्स/पीईटीएन आसानी से नहीं मिलते हैं। कम क्षमता वाले विस्फोटक जैसे पोटेशियम, चारकोल, आर्गेनिक सल्फाइड, नाइट्रेट और ब्लैक पाउडर आदि से आईईडी जैसे प्रेशर कूकर व टिफिन बम तैयार कर लिए जाते हैं। नक्सल प्रभावित इलाकों में माइनिंग साइट पर जिलेटिन स्टिक का इस्तेमाल होता है। वहां हमला बोलकर नक्सली, जिलेटिन स्टिक उठा लेते हैं। इसकी मदद से वे इंप्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस ‘आईईडी’, टिफिन बम और दूसरे तरह के प्रेशर बम तैयार कर लेते हैं। इस तरह का विस्फोटक तैयार करने के लिए नक्सलियों के पास कंटेनर, केमिकल, डेटोनेटर, इनिशिएटर और वायर सब कुछ होता है। डेटोनेटर को पावर देने के लिए ड्राई बैटरी सेल का इस्तेमाल किया जाता है।

आजकल तो स्पेशल डेटोनेटर भी आने लगा है। स्पेशल डेटोनेटर में घड़ी का सेल लग सकता है। ज्यादा वोल्टेज की जरूरत है तो तीन चार सेल जोड़ देते हैं। ऐसे ब्लास्ट के लिए मोबाइल फोन व कॉर्डलेस फोन का इस्तेमाल होता है। बस्तर में जो बीजीएल मिले हैं, उनका बैरल साइकिल में हवा भरने वाले पंप से तैयार किया जा रहा है। सुकमा के किस्टाराम क्षेत्र में स्थित पोटकपल्ली कैंप पर नक्सलियों ने करीब डेढ़ दर्जन बीजीएल दागे थे। बीजापुर में धर्माराम कैंप पर भी बीजीएल से हमला किया गया था। नक्सलियों का प्रयास रहता है कि वे बीजीएल के जरिए सुरक्षा बलों के हथियार गृह को निशाना बनाएं। चूंकि अब नक्सलियों ने देसी बीजीएल हासिल कर लिया है तो एक ही बार में दर्जनों फायर कर देते हैं।

error: Content is protected !!