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और इस तरह भिलाई से जुड़ गया केरल…

सुदीप ठाकुर।

सत्तर-अस्सी के दशक में छत्तीसगढ़ की बड़ी हो रही हमारी पीढ़ी के लिए भिलाई ऐसा गंतव्य रहा है, जहां उसके सपने पूरे हो सकते थे। इसका आकर्षण 1990 के दशक की उदारीकरण की नीतियों के बाद कुछ कम होता गया है, लेकिन आज भी भिलाई इस्पात संयंत्र की विशिष्ट जगह है, जैसा कि पिछले साल कोविड-19 के दौरान देखा गया कि कैसे भिलाई से ऑक्सीजन की सप्लाई देश के दूसरे हिस्सों में की गई थी। ( इसका जिक्र मैंने अपने एक ब्लॉग में किया था,)

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भिलाई इस्पात संयंत्र ने छत्तीसगढ़ को तो एक नई पहचान दी ही, यह टाउनशिप अपने आपमें उस भारत का प्रतीक भी रही है, जिसका सपना पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस इस्पात संयंत्र की परिकल्पना करते समय देखा था।

आजादी मिलने के करीब सात साल बाद भारत सरकार ने तत्कालीन सोवियत संघ के साथ दो फरवरी, 1955 को भिलाई में इस्पात संयंत्र स्थापित करने के लिए करार किया था। भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना के साथ ही यहां देश के कोने कोने से लोग काम करने के लिए आने लगे। इनमें उत्तर में पंजाब से लेकर दक्षिण के सुदूर केरल तक से लोग आए। पश्चिम बंगाल से लेकर गुजरात तक। देखते ही देखते इस टाउनशिप में भारत की सतरंगी झलक दिखने लगी। नियोजित तरीके से बसाई गई टाउनशिप को यों ही लघु भारत नहीं कहा जाता। सुंदर आवासीय परिसर। चारों ओर हरियाली। 80 के दशक तक यह शहर अपने पूरे शबाब पर था।

अब चूंकि इस विकास की अंधाधुंध दौड़ ने शहरी परिकल्पना को रद्दी कार्बन कापी में बदल दिया है, तो इसका कुछ कुछ असर यहां भी दिखने लगा है। इसके बावजूद यह शहर अब भी देश के उन चुनींदा शहरों में है, जिसे आप भारत की बहुलता का प्रतीक कह सकते हैं।

इस बहुलता, इस विविधता और देश का अग्रणी इस्पात संयंत्र होने के बावजूद भिलाई ने मजदूर आंदोलन के रूप में पहचान बनाई। मशहूर श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी ने यहां आंदोलन को धार दी थी। मगर मैं यहां एक और आंदोलन की चर्चा करने जा रहा हूं, जो इत्तफाक से 1970-80 के दशक में उसी दौरान हो रहा था, जब नियोगी का आंदोलन चरम पर था।

यहां आने वाले पंजाबी, तेलुगू, मलयाली, बंगाली, मराठी, गुजराती, कन्नड़, उड़िया, बिहारी, सब आपस में रच-बस गए थे, लेकिन उनके साथ एक मुश्किल भी थी। वे अपनी जड़ों और अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर मध्य भारत में स्थित छत्तीसगढ़ के भिलाई में आ तो गए थे, पर उन्हें छुट्टियों या पारिवारिक कार्यों से अपने घर जाने में दिक्कत होती थी। मुंबई-हावड़ा रेल लाइन होने की वजह से बिहार पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र की ओर जाने वालों की उतनी अड़चन नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें सीधी ट्रेनें मिल जाती थीं। यही बात उत्तर भारत की ओर जाने वालों के साथ थी।

मुश्किल थी दक्षिण भारत से यहां आकर बसे लोगों के साथ, वह भी केरल से आने वाले लोगों के साथ। दक्षिण भारत की ओर जाने वालों को भिलाई से करीब ढाई सौ किलोमीटर दूर नागपुर जाकर ट्रेनें बदलनी होती थीं, मगर केरल तक जाने में तब भी काफी अड़चन थी। और फिर इसी जरूरत ने एक आंदोलन को जन्म दिया।

1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक दुर्ग में मेरे साथ पढ़ने वाली मेरी मित्र और अब केरल में प्रसार भारती में इंजीनियर सुधा Sudha Sudhir ने अभी कॉलेज के दोस्तों के व्हाट्सएप ग्रुप में इस आंदोलन की कुछ तस्वीरें और अखबार की कतरन साझा की, तो इस आंदोलन के बारे में जानकारियां मिलीं। ( इस पोस्ट के साथ वे तस्वीरें और कतरन साझा कर रहा हूं)

केरल से आए शुरुआती लोगों ने भिलाई मलयाला ग्रंथशाला नाम से एक संस्था बनाई थी। उससे जुड़े मलयालियों ने 1970 के दशक में रेल मंत्री को केरल तक सीधी रेल सुविधा के लिए पोस्ट कार्ड लिखना शुरू किया। अखबार की एक कतरन से पता चलता है कि पोस्ट कार्ड लिखने का सिलसिला 1980 के दशक की शरुआत तक चलता रहा, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। लेकिन जब उत्तर भारतीयों के लिए दुर्ग से सारनाथ तक सीधी ट्रेन शुरू कर दी गई, तब केरल के लिए भी आंदोलन तेज हो गया। इस आंदोलन में शामिल रहे पीआरएन पिल्लई के हवाले से इस खबर में बताया गया कि इस आंदोलन से जुड़े प्रतिनिधिमंडल ने तत्कालीन रेल मंत्री मधु दंडवते ( जनता पार्टी सरकार, 1977-79) से भी मुलाकात की थी। अखबार ( कतरन से पता नहीं चल रहा है कि यह कौन-सा अखबार है) लिखता है कि इस मुलाकात के बाद रेल मंत्रालय ने परीक्षण करवाया , तो रिपोर्ट आई कि दुर्ग से केरल के लिए रोजाना ढाई यात्रियों का औसत है!

यह नहीं, दुर्ग स्टेशन से नागपुर से दक्षिण की ओर जाने वाली ट्रेनों के आरक्षण की सुविधा भी उस समय तक नहीं थी। इस खबर के मुताबिक दंडवते ने आश्वासन दिया था कि नई दिल्ली से केरल के लिए चलने वाली एक नई ट्रेन में एक कोच के लिए रिजर्वेशन दुर्ग से होगा। लेकिन जनता पार्टी की सरकार के गिर जाने से यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

1982 में आंदोलन को नए सिरे से तेज किया गया। नई कमेटी बनी। इसमें तत्कालीन विधायक और इंटक नेताओं को भी जोड़ा गया। भूख हड़ताल की तैयारी शुरू की गई। तय किया गया कि आंदोलन का समापन दो अक्तूबर को गांधी जयंती को रेल रोको आंदोलन के रूप में होगा। आंदोलन के बीच में ही ओणम आ गया और उस दिन बताते हैं कि आंदोलनकारियों के घरों में खाना नहीं बना।

दो महीने लंबे चले आंदोलन के दौरान आखिरकार आंदोलनकारियों की दुर्ग के तत्कालीन सांसद चंदूलाल चंद्राकर के जरिये रेलमंत्री ए बी ए गनी खान चौधरी से मुलाकात हुई। इसके बाद पहली अक्तूबर से जयंती जनता एक्सप्रेस में नागपुर से दुर्ग से केरल जाने वाले यात्रियों के लिए एक कोच की व्यवस्था कर दी गई। हालांकि केरल तक सीधी ट्रेन के लिए पांच साल और इंतजार करना पड़ा, जब 1987 में बिलासपुर से एर्णाकुलम के लिए सीधी कोचिन एक्सप्रेस ट्रेन शुरू हुई।

आंदोलन वाले उस ओणम की याद कॉलेज की मेरी एक अन्य मलयाली मित्र और भिलाई इस्पात संयंत्र में कार्यरत लाली ने दिलाई है। ओणम को बीते अभी एक पखवाड़ा हुआ है और गांधी जयंती को एक पखवाड़े बचे हैं। आप कह सकते हैं कि गांधी भी कैसे कमाल के आदमी थे, जिन्होंने केरल को छत्तीसगढ़ से एक अलग ढंग से जोड़ दिया।

पुनश्चः वोल्गा से शिवनाथ जैसी भिलाई पर केंद्रित किताब लिखने वाले भिलाई के पत्रकार मित्र मुहम्मद जाकिर हुसैन ने बताया कि अखबार की यह कतरन उनकी रिपोर्ट का हिस्सा है, जो उन्होंने 2016 में लिखी थी। इस जानकारी के लिए उनका आभार।

लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं वर्तमान में दैनिक अमर उजाला में संपादक हैं। (फ़ेसबुक वॉल से साभार)

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