आप लोग तो अलग ही चैप्टर हो डैडी!
चमन बहार पर केवल कृष्ण.
पंकज त्रिपाठी अक्सर क्राफ्ट और टूल्स की बात करते हैं, यानी अभिनय में शिल्प की बात।
अभिनेताओं के स्कूल तो एक जैसे होते हैं, लेकिन शिल्प अपना-अपना होता है। कैरेक्टर को लेकर लेखक और निर्देशक के अलावा अदाकार की भी अपनी परिकल्पना होती है, उसी के मुताबिक वह अपने शिल्प को गढ़ता है। छैनी पर हथौड़ी से कब कितना प्रहार किया जाना चाहिए, यह उसी की समझ पर निर्भर करता है।
एक आम-दर्शक को इन बारीकियों से उतना वास्ता नहीं होता, वह बस यह चाहता है कि उसे परोसा जा रहा ठोस भी तरल होकर भीतर उतरता जाए, उतरता जाए, उतरता जाए।
…. तो अभिनय की शिल्पकारी ठोस को तरल बनाने वाली शिल्पकारी। है फर्क नहीं पड़ता कि आपने किन-किन टूल्स का इस्तेमाल किया, या कितनी गुंजाइश आपके कैरेक्टर ने आपको दी। मायने यह रखता है कि आप कितनी सरलता के साथ दर्शकों के भीतर उतर गए।
इस मामले में चमन बहार में दो लोगों ने खूब महफिल लूटी है। एक तो हैं रिंकू ननोरिया यानी रितिका और दूसरे हैं डीएफओ के लौंडे यानी मीजान खान। इन दोनों ही अभिनेताओं के पास या तो संवाद थे ही नहीं, या फिर ना के बराबर थे। थे तो बस टूल्स, जिनकी बदौलत उन्हें अपने कैरेक्टर को तराशना था। दोनों ने खूब तराशा और क्या ही खूब तराशा।
चमन बहार की सफलता एक रिसर्च का विषय भी हो सकती है। समझ,चतुराई और अनुभवों से भरे अपूर्व के कौशल को पकड़ने की कोशिश में हर बार कुछ न कुछ नया हाथ आ ही जाता है, बहुत कुछ फिसल भी जाता है। उनकी चतुराई यह थी कि उन्होंने बहुत समझदारी के साथ कास्टिंग की। मसलन, रिंकू को तो खूबसूरत होना ही चाहिए, रितिका को समझदार भी होना चाहिए।
चमनबहार की सफलता के बाद, जब यह कहा जा रहा था कि रितिका को शो-पीस की तरह प्रस्तुत किया गया, रितिका कह रही थी कि उनकी भूमिका बहुत ही स्पेशल थी। शब्दों की किल्लत ने उन्हें अपने एक्सप्रेशन साबित करने का मौका दिया। बॉडी लैंग्वेज पर अपना काम साबित करने का मौका दिया।
रितिका की तरह यही मौके मीजान को भी मिले और उन्होंने हर गेंद पर चौके-छक्के जड़े । एक अकडू, चेनस्मोकर, अंतर्मुखी आशिक को उन्होंने उतने ही टूल्स से गढा़, जितने की इजाजत कैरेक्टर ने दी। अपूर्व की समझदारी रही कि उन्होंने अपनी कहानी कहने के लिए थिएटर के कलाकारों को चुना। इस समय मैं बहुत से कलाकारों का नाम नहीं जानता लेकिन इस फिल्म में सब के सब मेरे लिए अलग-अलग चैप्टर हैं। महानगरों के “फिल्म-पंडितों” को इस फिल्म में लफंडर बाजी के अलावा कुछ दिखा ही नहीं और मेरे पास देखने के लिए इतना सारा है कि लिखूं तो क्या-क्या लिख डालूं ! खैर, यह देखने की अपनी-अपनी तमीज का मामला है। मुझे सुकून इस बात का है कि मेरा नजरिया उन लाखों दर्शकों जैसा ही रहा, जिन्होंने इस फिल्म को सराहा है।
– फेसबुक वॉल से साभार