मुझे पत्रकारिता के इस पेशे में लाने का श्रेय स्व. रम्मू श्रीवास्तव को है… पत्रकार का सफ़रनामा… दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक दिवाकर जी… ने पत्रकारिता का पढ़ा है जिया है और अब भी जी रहे हैं… वे अपना सफ़रनामा लिख रहे हैं… यह तीसरा अंक… कुछ यादें कुछ बातें- 3 – रम्मू श्रीवास्तव
रम्मू श्रीवास्तव- छत्तीसगढ में मूल्यानुगत पत्रकारिता करने वालों में जो नाम प्रमुखता से लिया जाता है वह है रम्मू श्रीवास्तव का जो आजीवन रम्मू भैया के नाम जाने जाते रहे। उनकी हिंदी व अंग्रेज़ी में समान पकड़ थी ।उनकी भाषा शैली व ज्ञान का लोहा सभी मानते थे। विविधता से भरे उनके लेखन की बानगी तब भी देखने मिलती थी जब वे देशबंधु के होली अंक को सँवारते थे। वे शहर के नामचीन लोगों को ऐसी ऐसी टाइटिल से नवाजते थे कि बरबस हर किसी के चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगती थी। दरअसल गंभीर चेहरे के पीछे निश्चल हास्य का एक और चेहरा था जो गुदगुदा सकता था पर क़तई रूलाता नहीं था। राजनीति पर उनकी पकड़ ज़बरदस्त थी। राजनेताओं के साथ मित्रता भी व्यापक थी लेकिन वह कभी किसी पार्टी विशेष तक सीमित नहीं रही।
परितोष चक्रवर्ती, वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार।
-दिवाकर मुक्तिबोध
मुझे संवारने, काम के लायक बनाने में यकीनन अनेक वरिष्ठजनों यथा सर्वश्री ललित सुरजन, राजनारायण मिश्र, सत्येन्द्र गुमास्ता, स्व. रामाश्रय उपाध्याय, गोविंदलाल वोरा का बड़ा योगदान रहा है। इन सभी के साथ मैंने अलग-अलग समय में काम किया लेकिन मुझे इस पेशे में लाने का श्रेय स्व. रम्मू श्रीवास्तव को है।
रम्मू श्रीवास्तव यानी रामनारायण श्रीवास्तव। रायपुर व जबलपुर के अखबारों में कार्य करते करते रामनारायण कब रम्मू हो गए मुझे ज्ञात नहीं लेकिन सन् 1967 में मैं जब भिलाई नगर से रायपुर पढ़ने आया, उन्हें रामनारायण के रूप में ही जानता था। रायपुर में अकेले वे हमारे परिवार के निकटतम थे बाकी पूरा शहर अजनबी। मैं उन्हे इस रूप में भी जानता था कि उन्होंने नागपुर में साप्ताहिक ‘नया खून’ में पिता जी के सहयोगी के बतौर काम किया था।
पिता जी तब इस अखबार के संपादक थे और स्वामी कृष्णानंद सोख्ता संचालक। पिताजी के साथ उन्होने कितने महीने काम किया पता नहीं अलबत्ता यह याद जरूर है कि वे गुमसुम से, बेहद दुबले पतले सांवले से युवक थे जिनसे कभी -कभी ‘नया खून’ के दफ्तर में मुलाकात होती थी। हम उनके हाथ काली श्याही से रंगे हुए देखते थे। कम्पोजिटर से वे पत्रकार कैसे बने, इसकी भी जानकारी नहीं किन्तु यह बिलकुल स्पष्ट है जिस व्यक्ति ने नया खून जैसे अखबार में स्व. श्री गजानन माधव मुक्तिबोध के मातहत काम किया हो, उसका भाषा एवं विचार से संस्कारित होकर सफल पत्रकार बनना तय-शुदा बात थी।
इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि रम्मू श्रीवास्तव दैनिक भास्कर जबलपुर, ज्ञानयुग प्रभात जबलपुर तथा दैनिक भास्कर रायपुर के संपादक रहे। इसके अलावा उन्होंने रायपुर से प्रकाशित आंग्ल दैनिक हितवाद, नई दुनिया (देशबंधु) नवभारत सहित अनेक अखबारों में विभिन्न पदों पर काम किया। हिन्दी में तो उनकी मास्टरी थी ही अंग्रेजी में भी वे निपुण थे और रायपुर से हितवाद भोपाल तथा अन्य अखबारों के लिए हिन्दी, अंग्रेजी में खबरें लिखते थे।
रामनारायण श्रीवास्तव, रम्मू श्रीवास्तव हो गए हैं, यह मैंने जाना सन् 1967 में जब मै पहली बार उनसे मिलने नई दुनिया (अब देशबंधु) के दफ्तर गया। उन दिनों अखबार का दफ्तर बूढ़ापारा में सद्दानी चौक से बूढ़ा तालाब जाने वाली सड़क पर हुआ करता था। रायपुर में वहीं मेरी पहली मुलाकात उनसे हुई। उन्होने मेरा परिचय ललित जी से कराया। वे युवा थे और कालेज के छात्र। रम्मू भैया ने बताया वे दफ्तर का कामकाज भी देखते हैं।
रम्मू भैया से मिलने नई दुनिया जाने लगा। हफ्ते में कम से कम एक चक्कर कॉलेज से लौटने के बाद। नई दुनिया के दफ्तर पहुंचकर चुपचाप उनके सामने बैठ जाता। वे या तो पेपर पढ़ते मिलते या लिखते। सिगरेट के कश खींचते और धुंआ उगलते हुए उन्हे देखना अजीब सा लगता था। धुआं कभी छंटता नहीं था और न चाहते हुए भी धुएं को हलक में जगह देनी पड़ती थी। रम्मू भैया मंद-मंद मुस्कराते हुए अपने काम में लीन रहते थे और आपकी बातों का हां-हूं में जवाब देते थे पर उन्हे अहसास था, धुएं से सामने वाले को तकलीफ हो रही है। पर वे मजबूर थे। सिगरेट छूट नहीं सकती थी और आप भी उन्हें छोड़ नहीं सकते थे।
पत्रकारिता को पेशे के रूप में अपनाने के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था। बल्कि मैं डरता था। मन में डर था कि अखबार में काम करने के लिए दृष्टि सम्पन्न होने के साथ-साथ भाषा और विचार पर अच्छी पकड़ भी जरूरी है। मैं समझता था चूंकि मेरी हिन्दी अच्छी नहीं है इसलिए मैं इस पेशे में फिट नहीं हो सकता। लेकिन यह भय तब कुछ कम हुआ जब मैंने एक अंतरराष्ट्रीय हॉकी टूर्नामेंट के संदर्भ में एक टिप्पणी लिखी और रम्मू भैया को दे आया।
अगले दिन जब अखबार देखा तो मन बल्लियों उछलने लगा। नई दुनिया के अंतिम पृष्ठ पर नाम के साथ टिप्पणी छप गई थी। सन् 1967 की ही यह बात है। मेरा हौसला बढ़ा क्योंकि रम्मू भैया ने पीठ थपथपाई थी। मै आश्वस्त हुआ , मै भी लिख सकता हूं। यह एक तरह से टर्निंग पाइंट था। चंद महीनों बाद ही नई दुनिया का बूढ़ापारा स्थित दफ्तर स्टेशन रोड स्थानांतरित हो गया और मैं भी बतौर प्रूफ रीडर श्री राजनारायण मिश्र के सहायक के रूप में प्रतिदिन हाजिरी देने लग गया। रम्मू भैया ,श्री राजनारायण, श्री सत्येन्द्र गुमाश्ता एवं संपादक श्री रामाश्रय उपाध्याय अग्रज थे और सभी का भरपूर स्नेह मुझ पर बरसता रहा।
रम्मू भैया जीवट थे। अपार सहनशील। बेहद हंसमुख एवं मिलनसार। मुझे हमेशा उन्होने छोटे भाई का स्नेह दिया। जब मैं अखबार में नहीं था, पुरानी बस्ती, महामाया मंदिर स्थित उनके निवास में प्राय: प्रतिदिन जाया करता था। घर में वे कभी खाली नहीं मिले। कोई न कोई बैठा रहता था। और बातों की जुगाली के बीच रम्मू भैया अपना काम करते रहते थे। यानी या तो अखबार हाथ में रहता था या कलम। उनके एवं सत्येन्द्र गुमाश्ता जी के साथ मैंने टेली प्रिंटर डेस्क पर काम किया। खबरों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद।
पहले वे दोनों एजेंसी की छोटी-छोटी खबरें पकड़ाते थे और जब उन्हे विश्वास हुआ मैने खबरें ठीक से अनूदित कर रहा हूँ तो उन्होने जिम्मेदारियां बढ़ा दीं। ऐसे अद्भुत प्रशिक्षण का वह दौर अब खत्म सा हो गया है। प्रतिभा को तराशने वाले वैसे लोग पत्रकारिता में क्वचित ही रह गए है। देशबंधु की इस त्रिमूर्ति सर्वश्री रम्मू भैया , राजनारायण जी, सत्येन्द्र गुमाश्ता का स्पर्श जिन्हें भी मिला वे स्वर्णिम हो गए। पत्रकारिता में सोने जैसे चमक उठे।
पत्रकारिता में स्वाभिमान, धैर्य और आत्मचिन्तन का अद्भुत मिश्रण बहुत कम लोगों में देखने मिलता है। इस त्रिमूर्ति में ये विशेषताएं मौजूद थी। स्वाभिमान के पक्के लेकिन धैर्य भी अपार। मजबूरियां उन्हे तोड़ सकती थी। झुका नहीं पाती। बात-बात पर नौकरी पर लात मारने की परम्परा उस समय भी कायम थी। किन्तु धैर्य पूर्वक बर्दाश्त करने का माद्दा भी था। खासकर अपने स्वाभिमान के खातिर सामने वाले की प्रतिष्ठा पर चोट करने का पाप नहीं ही हो सकता था।
मुझे अच्छी तरह याद है, एक अवसर पर किसी खबर को लेकर स्व. मायाराम सुरजन रम्मू भैया पर बेहद आगबबूला हुए और उन्होने भरी मीटिंग में, जिसमें मुझ जैसा एक दम नया मुलाजिम भी मौजूद था, उन्हें हाथ पकड़कर कमरे से बाहर कर दिया। उन्होने हुकुम दनदना दिया, बिल्डिंग से बाहर निकल जाएं। दफ्तर उन दिनों नहरपारा में हुआ करता था। मायाराम जी को गुस्से में देखकर रम्मू भैया चुपचाप उठे। एक शब्द नहीं कहा। उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं की और सम्पादकीय कक्ष में आ गए।
लेकिन जैसे ही मायाराम जी को पता चला वे भवन से बाहर नहीं गए हैं,वे तमतमाते हुए आये और उन्हें सीढ़ी का रास्ता दिखाया। ऐसे घनघोर अपमान के बावजूद रम्मू भैया ने आपा नहीं खोया, बल्कि हल्की सी मुस्कान के साथ सीढ़ियां उतर गए। यह अलग बात है, मायाराम जी का गुस्सा जब शांत हुआ, रम्मू भैया फिर सम्पादकीय विभाग में काम करते नजर आए। इस वाकये का उल्लेख आज इसलिए क्योंकि यह धैर्य की पराकाष्ठा को स्पर्श करता है।
अपने अग्रज के सम्मान की रक्षा के लिए अपने स्वाभिमान को हौले-हौले थपकियां देकर शांत रखने की जीवटता निश्चय ही लाजवाब है। इसे हम भीरूता या नौकरी को जिंदा रखने की मजबूरी या कायरता नही कह सकते। यह खालिस संबंधों के निर्वहन की बात थी। वैसे ही संबंध जैसे पिता पुत्र में या भाई-भाई में होते हैं। देशबंधु चूंकि एक मिशन के रूप में था, जिसमें पत्रकारिता के मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांतों का पोषण होता था, इसलिए वहां कार्यरत सभी कर्मचारी अखबार के मालिक भी थे और कर्मचारी भी । नौकर और मालिक में भेद नहीं था।
लिहाजा मायाराम जी की भूमिका एक पिता के समान थी और वे सभी को पुत्रवत मानते थे। यह सभी जानते थे, गुस्सा उनकी नाक पर रहता है,लेकिन मक्खी को उड़ाने में जितना वक्त लगता है उससे भी कम समय गुस्से को शांत होने में लगता था। फिर भी रम्मू भैया ने जो सहनशीलता दिखायी थी, वह बेमिसाल है क्योंकि देशबंधु के इतिहास में ऐसा कोई और उदाहरण नहीं है।
सहनशीलता की बात आई तो मायारामजी का उदाहरण भी बेमिसाल है। वे गुस्से को फटाफट उगल देते थे। लेकिन समय और परिस्थितियों को देखते हुए उसे जज्ब करने का भी अद्भुत सामर्थ्य उनमें था। मुझे याद है स्व. रामाश्रय उपाध्याय जो रिटायर होने तक रायपुर नई दुनिया, देशबंधु के संपादक रहे, ने अपने प्रसिद्ध कालम ‘एक दिन की बात’ में मायारामजी पर अप्रत्यक्ष रूप से कटाक्ष किया।
अगले दिन मीटिंग में जिसमें यह नाचीज भी मौजूद था, उन्होंने बगैर हल्ला-गुल्ला किए शांत भाव से रामाश्रयजी से सिर्फ इतना कहा कि वे दूसरी नौकरी का इंतजाम कर लें। रामाश्रयजी ने लगभग गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में अनुरोध किया, उन्हें 6 माह का वक्त दिया जाए। मायारामजी कुछ पल खामोश रहे फिर कहा ठीक है आप काम करते रहें, कहीं जाने की जरूरत नहीं। सिर्फ इतना ध्यान रखिए लेखन में ऐसी पुनरावृत्ति न हो।
रामाश्रयजी, राजनारायणजी, रम्मू भैया एवं श्री सत्येन्द्र गुमाश्ता के व्यक्तित्व, प्रकृति एवं कार्यशैली में भिन्नता थी किन्तु सभी में एक गुण समान रूप से मौजूद था, जूनियर लड़कों को प्रोत्साहित करना, उन्हे मार्गदर्शन देना एवं उनकी गलतियों को बताना। इसलिए देशबंधु को आदर्श, सैद्धांतिक एवं मूल्यपरक पत्रकारिता का स्कूल कहा जाता था। इस स्कूल से निकले तमाम युवजनों ने पत्रकारिता में अच्छा नाम कमाया।
हमारी बात रम्मू भाई पर केन्द्रित थी। उन पर फिर लौटते हैं। रम्मू भैया की एक विशेषता यह थी कि वे अखबार रद्दी में बेचते नही थे। पुराने अखबार फेंकते नहीं थे। अखबारों को सहेजकर रखना उनकी आदत थी। पुरानी बस्ती, महामाया पारा का ‘वोरा निवास’ जहां कि वे किराए के मकान में रहते थे, एक कमरा अखबारों के गट्ठरों से अटा पड़ा रहता था। अखबारों के दिल से वही लगा सकता है जिसकी इस पेशे के प्रति गहन आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास हो लेकिन इस प्रेरणादायक प्रवृत्ति के बावजूद रम्मू भाई ने अपने लिए कभी कुछ नही गढ़ा जबकि अपनी दीर्घकालीन पत्रकारिता में उनके पास अनुभव का जो विराट खजाना था, उसमें से कुछ मोती यदि वे चाहते तो बाहर आ ही सकते थे।
और तो और पिताजी के सान्निध्य में ‘नया खून’ में उन्होंने काम किया हालांकि वह उनकी पत्रकारिता का शुरूआती दौर था, की स्मृतियों का दिलचस्प रेखांकन हो सकता था, वह महत्वपूण होता। लेकिन जब-जब रम्मू भैया से मैंने लिखने का अनुरोध किया, वे मुस्कुराकर रह जाते और लिखने का वादा करते। नौकरी करते हुए विभिन्न अखबारों में प्रकाशित लेख, राजनीतिक विश्लेषण एवं सामाजिक प्रश्नों पर टिप्पणियों के रूप में उनके विचार एक नहीं, कई पुस्तकों के रूप में संकलित किए जा सकते थे, जो समय-काल के परिदृश्य को देखने-परखने एवं समझने में सहायक होते किंतु रम्मू जी ने शायद इसकी जरूरत नहीं समझी।
उनके आसपास भी कोई ऐसा नहीं था जो लट्ठ लेकर पीछे पड़ता। उनके निधन के बाद पता चला उन्होने जो कुछ संग्रहित कर रखा था उन्हें रद्दी में बेच दिया गया। यानी रम्मू भैया को पढ़ना अत्यंत दुष्कर। अब कोई धैर्यवान ही समाचार पत्रों के कार्यालय में धुनी रमाकर, लाइब्रेरी से फाइलें निकालकर देख पढ़ सकता है। किन्तु जरूरत किसे है? कितने लोग उन्हें जानने वाले रह गए हैं? अलबत्ता पत्रकारिता के गंभीर शोध छात्र यह जहमत जरूर उठा सकते हैं। बशर्ते बीते हुए कल के पत्रकारों एवं उनकी पत्रकारिता को जानने व समझने-बूझने की उनमें ललक हो।
बहरहाल रम्मू भैया भी दिवंगतों की उसी श्रेणी में हैं जिनकी स्मृतियों को समय की लकीरें धीरे-धीरे धुंधला करते जाती हैं। वैसे यह फलसफा बहुत आम है कि कौन किसे याद रखता है। जीवन और मृत्यु का यह सबसे बड़ा सत्य है अलबत्ता यह निश्चित है कि कोई याद जेहन से मिटती नहीं। इसलिए रम्मू भैया एक श्रेष्ठ पत्रकार के रूप में, एक दोस्त के रूप में, बडे भाई के रूप में और एक सहृदय, उदार व्यक्ति के रूप में हमेशा याद आते रहेंगे भले ही उनके लिखे और छपे अक्षर इतिहास की बंद फाइलों मे क्यों न कैद हो गए हों।
// 06 अक्टूबर 2014//
(अगला भाग शनिवार 5 अगस्त को)