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पुस्तक समीक्षा : एक सफ़र मुकम्मल… और दिवाकर! दिवाकर तो मेरे इतने अपने हैं कि क्या कहूं…

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सुधीर सक्सेना।

दिवाकर मेरे मित्र हैं। लगभग समवयस्क। कविता से उनका वास्ता कम है। गद्य से ज्यादा। गद्य में भी उन्होंने कहानियां इतनी ही लिखी हैं कि उन्हें ऊंगलियों पर गिना जा सके। हां, उन्होंने संस्मरण खूब लिखे हैं। अग्रलेखों की तो गिनती ही क्या! यूं तो वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी रहे, लेकिन यह अवधि अधिक सुदीर्घ नहीं रही। उन्हें प्रिंट मीडिया ज्यादा रास आया। प्रिंट मीडिया से उनके जुड़ाव का अंतराल चार दशकों से भी अधिक कालखण्ड में फैला हुआ है और आरोह-अवरोह भरे रोचक-रोमांचक दौरों को अपनी परिधि में समेटता है।

दिवाकर से मेरी पहली मुलाकात सन् 70 के दशक के उत्तराद्ध में रायपुर में हुई थी। संभवत: सन् 1978 के समापन मास में। तब वह दैनिक ‘देशबंधु’ में थे। उनका दफ्तर तब नहरपारा में हुआ करता था। वह पहली मंजिल पर अपने सहयोगियों के साथ बैठते थे, जहां पहुंचने के लिए काठ की सीढिय़ां चढऩी होती थीं। उनसे मिलना एक अजनबी या अपरिचित से मिलने के एहसास से सर्वथा परे था। लगा हम बहुत पहले से एक-दूसरे को जानते हैं। वजह यह कि वह बहुत सरल और सहज थे। मिलनसार। आत्मीय। साफगो। कहें तो पारदर्शी। तब वह पुरानी बस्ती में रहते थे।

महामाया मंदिर के पास। पुराने ढब के उस मकान में जाने और मां के हाथ का सुस्वादु पोहा खाने की स्मृति आज भी चटख है। पुरानी बस्ती में तब अनेक पत्रकार रहा करते थे। रामाश्रय उपाध्याय (पंडितजी), रम्मू श्रीवास्तव, जयशंकर नीरव, देवेंद्र शर्मा जैसे वरिष्ठ और कौशल मिश्रा जैसे उदीयमान पत्रकार। पत्रकारों की बसाहट के मान से यह मोहल्ला ब्राह्मणपारा से होड़ लेता था। मैं तब बहुभाषी-संवाद समिति ‘समाचार भारती’ में था, जिसका ब्यूरो-ऑफिस फूल चौक के पास नवापारा में था।

दिवाकर नहरपारा से अथवा पुरानी बस्ती से जब- तब नयापारा चले आते थे या फिर मैं वहां चला जाता था। एक दूसरे के साथ समय बिताना हमें अच्छा लगता था। हम अपने तजुर्बे बांटते थे और अपने सपने भी सांझा करते थे। दिवाकर बहुत संयमित जीवन जीते थे और खुद खींची लकीरों के अतिक्रमण से बचते थे, लेकिन अराजकता को छूती मेरी आदतों का उन्होंने कभी बुरा नहीं माना। उन्होंने मुझे याद नहीं पड़ता कि मुझे कभी टोका होगा।

दिवाकर की स्मरणशक्ति गजब की है। 40-42 साल पुरानी घटनाओं का उन्हें खूब स्मरण है। उन्हें चेहरे और ठौर-ठिकाने याद रहते हैं। प्रसंगों का क्रम भी वह नहीं भूलते। वह मूल्यों में यकीन रखते हैं और उनके प्रति सदैव कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं, जिनका उनकी जीवन-यात्रा में कोई प्रेरक भूमिका रही है।

छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता और छत्तीसगढ़ की राजनीति को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा है। उसकी विद्यायी शक्तियों, शख्सियतों और समीकरणों से वे गहरे परिचित रहे हैं। छत्तीसगढ़ के अधिकांश नेताओं, पत्रकारों और लेखकों से उनके आत्मीय संबंध रहे हैं। वह रायपुर और बिलासपुर में कई अखबारों में रहे, लेकिन मुझे नहीं लगता कि पत्रों की प्रतिद्वांद्विता और नेपथ्य की दुरभिसंधियों के बावजूद उनके संबंध किसी पत्रस्वामी या किन्हीं पत्रकारों से अप्रिय रहे होंगे। उन्होंने न तो किसी के फटे में पांव अड़ाया और न ही किसी की दुर्दशा के चटखारे लिए। यही वजह है कि वे अपने वरिष्ठों के प्रिय और कनिष्ठों के सम्मान के पात्र रहे।

‘देशबंधु’ पत्रकारिता में दिवाकर के प्रवेश की पहली सीढ़ी रहा। प्रथम सोपान। इससे उनका लगाव स्वाभाविक है। एक तरह की एफिनिटी। दिवाकर ने देशबंधु तब ज्वाइन किया, जब अखबार, पत्रकारिता की ‘नर्सरी’ हुआ करते थे। ‘देशबंधु’ तब एक बड़ा अखबार था। बड़े अखबार से अधिक बड़ा बैनर। उसकी अलग साख थी। प्रतिष्ठा थी। पहचान थी।

उसके पास प्रतिभाशाली टीम थी। उसकी प्रतिबद्धताओं और वैचारिक झुकाव से सब परिचित थे। ‘एक सफ़र मुकम्मल’ का एक संस्मरण भी ललित सुरजन पर हैं, जिन्हें हमने खो दिया हैं। ‘देशबंधु’ में बिताये दिनों की बात करते हुए दिवाकर ने कुछ महत्वपूर्ण और विचारणीय बातें कहीं हैं। मसलन खबर क्यों ओव्हर और अंडरप्ले होती है, सियासी और सरकारी तंत्र पत्रकारीय खबरों पर क्यों हावी रहता है और व्यावसायिक हित क्यों वरीय रहते हैं? यह भी गौरतलब है कि घरानों की प्रतिद्वंद्विता और रिश्तों से पत्रकारों के पारस्परिक रिश्ते क्यों प्रभावित होते हैं?

ये बातें इसलिए मानीखेज हैं, क्योंकि अपने जीवन में हर पत्रकार ऐसे खयालों की गलियों से गुजरता है। संस्मरणों की इस किताब में उन्होंने अपने शुरूआती दौर के सहकर्मियों की आत्मीय याद की है। उन्हें यह बताने में संकोच नहीं होता कि भाषा की तमीज उन्होंने राजनारायण मिश्र से सीखी और उनकी प्रारंभिक दो किताबों के प्रकाशन का श्रेय उन्हें ही जाता है। इसी तरह वह स्वयं को पत्रकारिता में लाने का क्रेडिट रम्मू श्रीवास्तव को देते हैं, जिन्होंने नागपुर में उनके पिता ग.मा. मुक्तिबोध के मातहत ‘नया खून’ में काम किया था। इसी क्रम में वह बबन मिश्र, बसंत दीवान को बहुत आदरपूर्वक और निर्भीक वर्मा (कप्पू) और सुशील त्रिपाठी को अत्यंत आत्मीयतापूर्वक याद करते हैं।

दिवाकर हिन्दी के यशस्वी और शीर्षस्थ साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध के बेटे हैं। वे सन् 1964 में असमय काल-कवलित हो गये। मां शांता मुक्तिबोध ने लंबी आयु पाई। उनसे सन् 78 में महामाया परिसर के मकान में मुलाकात हुई थी। वे बड़ी ममतालु स्त्री थीं। वास्तल्य से पूरित। दिवाकर ने बाबू साहब (पिता), आई (मां) और काका (चाचा शरच्चंद्र) के बहुत भावभीने संस्मरण लिखे हैं। इनसे हमें दिवाकर की गहरी संवेदनशीलता का आभास मिलता है।

इन संस्मरणों की तरलता हमें भिगो देती है। इसी क्रम की कड़ी है ‘कम सून बाबा।’ यह स्याही नहीं, वरन अश्रुओं से लिखा भावनात्मक स्मृति लेख है, जो बरबस द्रवित कर जाता है। दिवाकर अलंकृत भाषा-शैली के लेखक नहीं है। वाक् -विलास से उनका वास्ता नहीं। रौ में लिखते हैं। उनके लिखे को हम दिल की जुबान कह सकते हैं। कहीं भी वह क्लिष्ट या बोझिल प्रतीत नहीं होते। उनकी भाषा बहता नीर है, निर्मल और स्वच्छ।

‘एक सफ़र मुकम्मल’ में दिवाकर ने तेजिंदर गगन और आलोक तोमर के बारे में भी लिखा है। तोमर से यद्यपि उनकी कोई मुलाकात नहीं थी और न ही कोई विशेष बातचीत लेकिन उसके बावजूद वे उनके लेखन के प्रेमी थे। तेजिंदर तो बेहद अंतरंग थे। तेजिंदर से भी रिश्ता तभी बना, जब दिवाकर से। सन् 2010-19 के वर्षों में रायपुर आने-जाने का सिलसिला तेज हुआ तो मिलने की आवृत्ति भी बढ़ी। अक्सर ऐसा होता कि हम फोन पर समय तय कर लेते और सिविल लाइंस स्थित इंडियन कॉफी हाउस में मिलते।

कुछ और मित्र भी आ जाते। मसाला डोसा। कॉफी। और दुनिया-जहान की बातें। ‘दुनिया इन दिनों’ में लिखना उन्हें और उन्हें छापना मुझे अच्छा लगता रहा। बेटी के बिछोह का दर्द उनमें अभी भी टीसता है। अचानक एक दिन हमें खबर लगी कि तेजिंदर भी नहीं रहे। जिंदगी की मनहूस तारीखों में वह भी एक तारीख थी। बुरा वक्त डैने पसारता है तो अपने पीछे बहुत कुछ छोड़ जाता है। आलोक के तो जाने की कोई उम्र ही न थी। उनके साथ संभावनाएं भी चली गईं।

दिवाकर नैतिकता के आग्रही हैं। संबंधों को हृदय से मान देते हैं। बातों पर मुकम्मल नहीं चढ़ाते। कई बार उनके कहने पर मुझे अपना रायपुर का प्रोग्राम री-शिड्यूल करना पड़ा कि दिवाकर चाहते थे कि मैं वहां उन दिनों आऊं, जब वह वहां मौजूद हों।

इस किताब का छपना प्रीतिकर है। इसमें दिवाकर ने मेरे अपनों पर प्रीतिपूरक लिखा है… और दिवाकर! दिवाकर तो मेरे इतने अपने हैं कि क्या कहूं…।

  • सुधीर सक्सेना (कवि एवं पत्रकार)

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