जैसा नाम था वैसा ही चरित्र ‘निर्भीक’ पर खिंलदड़ स्भाव के निर्भीक की आत्महत्या की खबर ने झकझोर दिया… सफ़रनामा दिवाकर मुक्तिबोध…
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक दिवाकर जी… ने पत्रकारिता को पढ़ा है, जिया है और अब भी जी रहे हैं… वे अपना सफ़रनामा लिख रहे हैं… कुछ यादें कुछ बातें-8
– दिवाकर मुक्तिबोध
#निर्भीक_वर्मा: जिस एक और दिवंगत पत्रकार मित्र की छवि मन से नहीं उतरी है, वह है निर्भीक वर्मा। अपने किसी प्रियजन जिसे आप हमेशा प्रफुल्लित देखते रहे हो, प्राय: रोज मिलते रहे हो, यदि किसी दिन उसकी मृत्यु की सूचना मिले तो जाहिर है आप संज्ञा शून्य हो जाएंगे। जिंदगी भर शोक को ढोने के कुछ प्रसंग हर व्यक्ति के जीवन में आते ही हैं।
सुशील की तरह निर्भीक वर्मा के निधन की सूचना एक सुबह मिली और फिर कई दिन वह दिलो-दिमाग के दरवाजे खटखटाता रहा। वह कब गया, तारीख अब ठीक से याद नहीं। अलबत्ता वह साल 1992 का था। तारीख सम्भवतः 3 फरवरी।
खिंलदड स्वभाव के निर्भीक ने जिंदगी को संवारने बहुत पापड़ बेले थे। लेकिन ठीक से संवार नहीं पाए। भोपाल से आए इस युवा पत्रकार से मेरी पहली मुलाकात सन 1978 में देशबंधु कार्यालय में हुई थी। श्री गंगाप्रसाद ठाकुर एवं निर्भीक वर्मा दोनो भोपाल से देशबंधु का प्रकाशन स्थगित होने के बाद प्रबंधन की ओर से रायपुर भेजे गए थे।
मुझसे कहा गया था, निर्भीक से बात करूं, और पुछूं वे किस डेस्क पर कार्य करना पसंद करेंगे। मैने पूछा- गोरे चिट्टे निर्भीक ने बेपरवाही से कंधे उछाल दिए और कहा प्रिंटर और सिटी डेस्क को छोड़कर कहीं भी काम कर सकते हैं। जाहिर सी बात थी आखिरी डेस्क रीजनल ही बचती थी। अपनी पंसद की डेस्क पर कार्य करने के लिए अवसर तलाशने का यह उनका अपना तरीका था। मृत्यु पर्यंत वे इसी डेस्क पर कार्य करते रहे।
निर्भीक का साथ शायद 7-8 वर्षों तक ही रहा। उसके व्यक्तित्व में विविधताएं थी। हास-परिहास प्रिय शगल था और कम्पोजिंग रूम में ठुमके लगाना रोजमर्रा की बात थी। जिंदादिल आदमी जहां भी रहे, खुशनुमा माहौल बनाए रखता है। कभी वातावरण में तनाव नहीं आने देता। निर्भीक की जिंदादिली अद्भुत थी किन्तु विचार-परक पत्रकारिता के भी वे पक्के खिलाड़ी थे।
राष्ट्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय विषयों पर उनकी कलम खूब चलती थी। उनकी लेखन शैली इतनी रसदार थी कि एक-एक शब्द जबान पर मिठास घोल देता था। जैसा उनका व्यक्तित्व था, वे व्यंग्य के उस्ताद थे। देशबंधु में प्रकाशित उनका साप्ताहित कालम ‘‘हम बिहार से बोल रहे हैं’’ भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था एवं उसके पोषक राजनेताओं पर करारा प्रहार करता था। लेकिन उनके लेखन में निरंतरता नहीं थी। उनका कालम लंबा नहीं खींचा। शायद 6-8 महीने ही चला।
देशबंधु के बाद ‘अमृत संदेश’ में मेरा उनका पुन: साथ हुआ। सन् 1983 के प्रारंभ में अखबार की स्थापना के पूर्व से ही मैं इससे जुड़ गया था। निर्भीक एक दो साल बाद आए।निर्भीक में साहित्यिक प्रतिभा गजब की थी। भोपाल की साहित्यिक बिरादरी में उनका खूब उठना बैठना था। सभी छोटे बडे साहित्यकार, लेखक, कवि उनके मित्र। उस समय के युवा एवं प्रख्यात कवि राजेश जोशी के साथ उन्होंने ‘इसलिए’ निकाली।
इस साहित्यिक पत्रिका की कुछ पुरानी प्रतियां उन्होंने मुझे भेंट की। भोपाल छूटा तो पत्रिका भी करीब-करीब बंद हो गई। लेकिन ‘इसलिए’ की अपनी छाप साहित्य की दुनिया में अभी भी कायम है।निर्भीक की स्वभावगत विशेषताओं में कई बातें शामिल हैं- मनमौजी और फक्कड़ प्रकृति लेकिन मन निर्मल एवं संवेदनशील। छोटी-छोटी लेकिन सुई जैसी चुभने वाली बातें भी उनकी आंखों में पानी ला देती थी। ऐसा लगता था मानों आंखों में दर्द का समुंदर लहरा रहा है और वह फूटने-फूटने को है।
दूसरों के दु:ख से दु:खी होने वाले निर्भीक नौकरी दांव पर लगाकर चलते थे। वे बड़ी शान से बताते- उन्होने 33 नौकरियां की। जबलपुर में होटल में वेटर का काम किया। कप-प्लेट धोयी। वे गर्व के साथ बताते- हरिशंकर परसाई उन पर विशेष स्नेह रखते थे। रोज रात को परसाईजी के यहां जाना और चुपचाप साहित्यिक महफिल की बातें सुनना उन्हें बहुत आनंद देता था। राजेश जोशी और परसाई दोनों का अपने जीवन पर गहरा प्रभाव वे मानते थे।
निर्भीक में जैसी संवेदनाशीलता रही, उसका दूसरा उदाहरण मिलना शायद मुश्किल है। देशबन्धु के एक कर्मचारी नारायण को उसकी किसी गलती पर प्रबंधन के वरिष्ठ अधिकारी ने गुस्से में आकर चांटा जड़ दिया। अपमानित कर्मचारी ने नौकरी तो नही छोड़ी लेकिन निर्भीक बेहद गुस्से में आ गए और नौकरी छोड़कर चले गए। यह अलग बात है कि भोपाल में जब उन्हें और कोई ठौर नहीं मिला तो अपनी उसी संवेदनशीलता को जीते हुए उन्होने ललित जी से पुन: नौकरी मांगी। और नहीं मिलने पर भोपाल के ताल में कूदकर जान देने की चेतावनी दी। ललितजी को पिघलना ही था। सो वो पिघले। निर्भीक की देशबंधु में वापसी तय थी।
करीब महीने भर भटकने के बाद वे लौटकर रायपुर आ गए। देशबंधु फिर उनके लिए तीर्थ स्थल बन गया। वे इसे तीर्थस्थल ही कहते थे क्योंकि देशबंधु के संस्थापक संपादक श्री मायाराम सुरजन के सान्निध्य में उन्होने भोपाल में काम किया था। मायाराम जी उनके आदर्श थे और अप्रतिम श्रद्धा के पात्र भी ।निर्भीक ने जितना कुछ लिखा, उनके समकालीन पत्रकारों को छोड़कर कोई क्या जानता है? यह दु:खद है। लेकिन बहुतेरों को शायद यह नियति भी है।
मृत्यु के बाद उनका व उनके लेखन का न कोई मूल्यांकन होता है और न ही कोई उन्हे याद करता है। पुराने मित्र जब कभी मिलते हैं और चर्चाओं का दौर चलता है तब उनकी कमी को, उनके न रहने से उपजी शून्यता को महसूस किया जाता है। निर्भीक के मामले में भी ऐसा ही है।
निर्भीक को याद करते हुए अंतिम दो बातें। उसके जैसा खिलंदड़ी शराब में सल्फास की गोलियां खाकर आत्महत्या नहीं कर सकता। उसकी मौत निश्चय ही स्वाभाविक नहीं थी। किन्तु इस रहस्य से कभी पर्दा नहीं उठा। शायद उठाया नहीं गया।
दूसरी बात। निर्भीक का असली नाम रामनारायण वर्मा था। हस्ताक्षर भी वे आरएन वर्मा के नाम से करते थे किन्तु कप्पू कहना उन्हे ज्यादा पसंद था। उनकी संवेदनशीलता की एक और मिसाल देखिए। रामसागरपारा के जिस मोहल्ले में वे किराए के मकान में रहते थे, पड़ोस में एक जवान लड़की अपनी मां के साथ रहती थी। गरीबी और ऊपर से जवानी, जाहिर था शोहदों की भीड़ घर के आस-पास मंडराया करती थी। कुछ दिन तक निर्भीक यह तमाशा देखते रहे। अकस्मात एक दिन उन्होने लड़की का हाथ थाम लिया। फटाफट आर्य समाज मंदिर गए और शादी कर ली। जीवन संघर्ष में डूबी हुई एक अबला को सहारा देने का साहस निर्भीक की संवेदनशीलता का अप्रतिम उदाहरण है।
निर्भीक की विचित्रताओं को याद करते हुए एक और प्रसंग का उल्लेख बेमानी नहीं होगा। वो पक्के यारवाश थे तथा अपने दोस्तों के घरों के किचन तक उनकी घुसपैठ रहती थी। मुझे याद है, महामाया मंदिर और बाद में देवेन्द्र नगर के मेरे मकान में अक्सर उनकी आमद रहती थी। आते ही बच्चों के साथ खेलकूद और हास परिहास शुरू। मर्जी हुई तो रसोई से स्वयं थाली निकाल ले आए और भोजन करने बैठ गए। इतनी आत्मीयता से लबालब कोई दोस्त तय है आपके खिलाफ नहीं जा सकता। लेकिन निर्भीक के साथ ऐसा नहीं था।
प्रेस क्लब के चुनाव में मेरी उम्मीदवारी के खिलाफ वह ताल ठोककर मैदान में आ गए। उन्होने चुनाव नहीं लड़ा किन्तु प्रत्येक अखबार के दफ्तर जाकर उन्होंने दमखम के साथ अपील की- मुझे वोट नही करना है। यह अलग बात है उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद चुनाव में मैं जीता और अध्यक्ष बन गया। मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया प्रेस क्लब के चुनाव में वह मुझे क्यों नहीं देखना चाहते थे। उन्होने खुलासा नहीं किया पर मुझे समझाते रहे कि चुनाव के पचडे में मुझे नही पड़ना चाहिए। मैंने बात नही मानी इसलिए खुल्लम खुला विरोध शुरू किया। लेकिन यह विरोध केवल चुनाव तक सीमित रहा। ऐसे थे निर्भीक।
//06 अक्टूबर 2014// (अगला भाग शनिवार 22 अगस्त को)