#between naxal and force सोनी सोरी के दस बरस छह महिने और 4 दिन तक से पहले बस्तर… जहां माओवादी, पुलिस और जनता निष्पक्ष नहीं हो सकती…
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सुरेश महापात्र।
बस्तर में माओवादियों की समस्या के समाधान के नाम पर कितना कुछ हो रहा है। पृथक छत्तीसगढ़ से पहले पूर्ववर्ती मध्य प्रदेश सरकार पर यह आरोप लगता रहा कि बस्तर के पिछड़ेपन के लिए राज्य सरकार ही जिम्मेदार है। बस्तर अंतिम छोर पर रहा। विकास के पैसा और पहिया रायपुर से ही गुम हो जाता रहा। यही वजह है बस्तर में विकास ही अब सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। विकास में बाधा के लिए माओवादियों की जिम्मेदारी भी तय कर दी गई है।
छत्तीसगढ राज्य निर्माण के बाद बस्तर को लेकर बहुत सी पहल की गई। तीन बरस के कार्यकाल के बाद अजित जोगी की सत्ता वापस नहीं आई। कांग्रेस नेपथ्य में चली गई। 15 बरस तक भारतीय जनता पार्टी की सरकार राज्य सत्ता संभालती रही। पर विकास की चाह और प्रयास चलते रहे। बस्तर में माओवादियों को विकास का सबसे बड़ा विरोधी माना जाता रहा है। यही वजह है कि विकास के लिए माओवादियों की बाधा दूर करने के बहाने बस्तर में भारी पैमाने में अर्धसैनिक बलों की तैनाती की गई। समूचे बस्तर में अब भी करीब 50 हजार अर्धसैनिक तैनात हैं।
अर्धसैनिकों की तैनाती तब से बढ़ी जब से बस्तर में माओवादियों के खिलाफ जनसंघर्ष की शुरूआत हुई। जून 2005 से सलवा जुड़ूम अभियान शुरू हुआ। इस अभियान ने पश्चिम बस्तर बीजापुर जिले के भैरमगढ व कुटरू इलाके से विस्तार लेना शुरू किया। माओवादियों के खिलाफ ग्रामीण जनता की शुरूआती बैठकों के बाद कांग्रेस और सत्ता की दखल तब शुरू हुई। जब इन बैठकों का हिंसक प्रतिरोध माओवादियों द्वारा किया जाने लगा।
कुटरू इलाके के अंबेली और करकेली ग्राम में बड़ी बैठक के दौरान माओवादियों ने हमला कर दिया था। इसके बाद बस्तर के हालात तेजी से बदलते और बिगड़ते चले गए। अर्धसैनिक बलों की तैनाती बढ़ा दी गई। अंदरूनी गांवों से आदिवासी बाहर निकलने लगे और इस तरह से सबसे पहला कैंप कुटरू में शुरू हुआ। जहां सीआरपीएफ के घेरे में ग्रामीणों के ठहरने का इंतजाम किया गया।
इस घटनाक्रम के बाद बस्तर तेजी से बदलता चला गया। माओवादियों और अर्धसैनिक बलों के बीच संघर्ष बढ़ने लगा। मुठभेड़, मौतें और हत्याएं होने लगी। अंदरूनी गांवों से निकले निहत्थे आदिवासी युवाओं के हाथों में हथियार थमाने का सिलसिला भी शुरू हुआ। संघर्ष बढ़ता गया और दूरियां भी बढ़ती गईं। पश्चिम बस्तर से शुरू हुआ यह अभियान राजनैतिक तौर पर हथियार भी बनते बीजापुर से सुकमा इलाके में शिफ्ट हो गया। यह सब इतिहास है पर इसका बस्तर के आज के वर्तमान के साथ करीबी संबंध है।
इसी दौर के बाद बस्तर पूरी तरह से दो भागों में विभक्त हो गया। या तो आप साथ हैं या खिलाफ हैं… जैसी स्थिति कायम हो गई। सलवा जुड़ूम अभियान के नाम पर रैलिया निकाली गईं। गांव—गांव में बैठकों का दौर शुरू हुआ और माओवादियों की शिनाख्ती के नाम पर अत्याचार भी होने लगे। यह तय किया जाने लगा कि जो निश्चिंत होकर गांव में रह रहे हैं वे माओवादियों के साथ हैं। सो अर्धसैनिक बलों की टुकड़ी सर्चिंग पर निकलती तो सबसे पहला टारगेट वे लोग होने लगे जो अंदरूनी गांवों बेखौफ रहते दिखते।
ऐसे लोग या तो हर सर्चिंग के बाद पकड़कर संघम सदस्य के नाम पर जेलों में भरे गए या पुलिस से डरकर भागते हुए गोलियों के शिकार हो गए। ये मारे गए लोग बेगुनाह थे या गुनाहगार यह तय करना कठिन होने लगा। कई दफा माओवादियों की मौजूदगी की सूचना पर निकली फोर्स की मुठभेड़ भी हुई। माओवादी मारे गए तो जवान भी शहीद होने लगे। जहां भी मुठभेड़ें हुईं वहां पहले माओवादियों ने जन अदालत लगाकर मुखबीर तलाशना शुरू किया। जिस पर शक हुआ उसे सजा भी दे दी। सजा सिर्फ मार पीट की नहीं होती बल्कि पूरी नृशंसता के साथ हत्या कर गाड़ देने की प्रक्रिया होती। इसका मतलब साफ था कि आप खिलाफ गए तो… साफ चेतावनी महसूस की जा सकती है।
इधर माओवादियों ने भी हमले तेज कर दिए। जहां—तहां बारुदी विस्फोट कर ताबड़तोड़ हमले करते और इस तरह से बस्तर का यह इलाका युद्ध क्षेत्र में तब्दील हो गया। एक के बाद एक सड़क पर हमले और उसकी प्रतिक्रिया में फोर्स की कार्रवाई। यह बस्तर के इतिहास में दर्ज होता रहा। माओवादियों के हमले के बाद फोर्स की कार्रवाई भी ठीक वैसी ही होती जैसा माओवादियों के द्वारा होता रहा। यानी संदिग्ध का पता करो, भागते को संदिग्ध मानों, जो भी संदेहास्पद लगा या तो उसकी शिनाख्ती तक इंतजार करो या गोली से उड़ो दो। जिन गांवों में फोर्स के आने की आहट के साथ सन्नाटा पसर जाए ऐसे गांवों में सूनी झोपड़ियों को आग लगा दो…
बस ऐसे ही समय में बस्तर में यह तय किया जाने लगा कि फलां—फलां माओवादियों के समर्थक हैं। फलां—फलां फोर्स के हिमायती हैं। यह सब कुछ छत्तीसगढ की सरकार देख रही थी। फोर्स के कैंपों पर माओवादियों के हमले में सैकड़ों जवान शहीद हुए। इसके लिए माओवादी रेकी करते। सुनियोजित तरीके से अटैक कर कैंप को ध्वस्त कर जवानों की हत्या को अंजाम देकर हथियार लूट ले जाते।
किसी एक घटनाक्रम का जिक्र करना संभव नहीं है। हर हमले की अपनी कथा है। जिसमें माओवादियों की आक्रामक रणनीति और फोर्स की कमियां साफ देखी जाती रही हैं। बावजूद इसके पोंजेर, मुरकीनार, रानीबोदली, गगनपल्ली, एर्राबोर, ताड़मेटला का जिक्र फोर्स के नुकसान के हिसाब से और संतोषपुर, सारकेगुड़ा, एड्समेटा, तिम्मापुर, मोरपल्ली निर्दोष आदिवासियों के नुकसान के नाम दर्ज हैं।
हर मौत, हर हमले, हर मुठभेड़ और प्रत्येक घटना के बाद प्रथम दर्शी पत्रकार ही रहे। जो बस्तर के बीहड़ में काम करते हैं। हमने बेहद करीब से ऐसी घटनाओं को और हालातों को देखा व समझा है। आज यह सब याद करने के पीछे भी एक वजह है वजह है सोनी सोरी… अरनपुर इलाके में एक आदिवासी छात्रावास की अधीक्षिका। जंगल के बीच यह छात्रावास पड़ता है। यहां दिन में सर्चिंग करती फोर्स ठहरकर पानी पीती और रात को माओवादी पहुंचते… चुनौती ऐसी कि फोर्स की जानकारी और माओवादियों की जानकारी साझा करने का दुस्साहस करना… जोखिम भरा हो सकता है। ऐसा मेरा मानना है।
पर यह महिला माओवादियों और फोर्स के साफ्ट टारगेट में ना हो क्या ऐसा माना जा सकता है? मेरा मानना है नहीं! बस्तर में हर वह व्यक्ति संदिग्ध है जिसने ज्यादा लंबा समय अंदर वाले इलाके में व्यतीत किया हो। क्योंकि यह साफ मान्यता है कि माओवादियों के समर्थन के बगैर ऐसा करना संभव ही नहीं है। कुछ हद तक यह सत्य भी है। पर यही नरैटिव सबके हिस्से गढ़ दिया गया है। हर ऐसे व्यक्ति को इसकी कीमत चुकानी पड़ी है जिसने भी दोनों पक्षों के बीच निष्पक्ष होने की नाकाम कोशिश की है। या तो उसे माओवादियों ने मार दिया या फोर्स ने… बच गए तो धाराओं से लैस पुलिस तो है ही… (1)
क्रमश: